राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धाराएं 200 से 203: आपसी सहमति, मध्यस्थता, कलेक्टर द्वारा विभाजन और विभाजन
Himanshu Mishra
16 Jun 2025 6:49 PM IST

राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धाराएं 200 से 203 तक की विधिक व्यवस्था भूमि के विभाजन (Partition) की प्रक्रिया को तीन अलग-अलग रूपों में प्रस्तुत करती हैं — पहला, जब पक्षकार आपसी सहमति से विभाजन करते हैं; दूसरा, जब वे मध्यस्थों (Arbitrators) की सहायता लेते हैं; और तीसरा, जब मतभेद या विवाद के कारण कलेक्टर को स्वयं विभाजन करना पड़ता है।
साथ ही यह भी बताया गया है कि कलेक्टर द्वारा किए गए विभाजन में खर्च का अनुमान और भुगतान किस प्रकार किया जाएगा। इस लेख में इन चारों धाराओं को आसान हिंदी में, उदाहरणों सहित समझाया गया है ताकि भूमि संबंधी विवादों को सुलझाने वाले सभी व्यक्ति – चाहे वे कानून के जानकार हों या नहीं – इसे आसानी से समझ सकें।
धारा 200 – आपसी सहमति से विभाजन (Partition by Agreement)
यदि पक्षकार स्वयं आपसी सहमति से विभाजन करना चाहते हैं, तो कानून उन्हें यह स्वतंत्रता देता है, लेकिन यह सहमति एक व्यवस्थित प्रक्रिया के अंतर्गत होती है। सबसे पहले एक निश्चित तारीख तय की जाती है, जब तक विभाजन की प्रक्रिया पूरी करनी होती है। इस प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए उन्हें आवश्यक रिकॉर्ड की प्रतियां मुफ्त में दी जाती हैं। पटवारी को निर्देश दिया जाता है कि वह उन्हें सभी आवश्यक सहायता दे ताकि वे पूर्व आदेश (Preliminary Order) के अनुसार भूमि विभाजन कर सकें और साथ ही उत्पादन तालिकाएं (tels of production) तैयार कर सकें।
फिक्स की गई तारीख पर, सभी पक्षकारों को उपस्थित होना होता है और वे तैयार किए गए लॉट्स का रिकॉर्ड तथा संपत्ति का मानचित्र प्रस्तुत करते हैं, जिसमें विभिन्न लॉट्स को अलग-अलग रंगों में दिखाया गया होता है। ये लॉट्स प्रत्येक हिस्सेदार को दिए गए हिस्से को स्पष्ट करते हैं। फिर कलेक्टर सभी पक्षकारों या उनके अधिकृत एजेंटों के समक्ष उन लॉट्स पर हस्ताक्षर कराता है।
यदि यह प्रक्रिया विधि के अनुसार और पूर्व आदेश के अनुरूप पूरी कर दी जाती है, तो विभाजन को वैध और अंतिम मान लिया जाता है।
उदाहरण: यदि राम, श्याम और मोहन एक गांव की 60 बीघा भूमि को आपसी सहमति से विभाजित करना चाहते हैं और पहले से तय हो कि राम को 20 बीघा, श्याम को 25 बीघा और मोहन को 15 बीघा मिलना है, तो वे पटवारी की सहायता से नक्शा तैयार कर सकते हैं, लॉट्स में रंग भरकर अलग-अलग हिस्से दिखा सकते हैं और तय तिथि पर कलेक्टर के समक्ष उपस्थित होकर उसे प्रमाणित करवा सकते हैं।
धारा 201 – मध्यस्थता के द्वारा विभाजन (Partition by Arbitration)
यदि सभी पक्षकार इस बात पर सहमत होते हैं कि वे विभाजन के लिए मध्यस्थों (Arbitrators) को नियुक्त करेंगे, और वास्तव में नियुक्त कर देते हैं, तो कलेक्टर विभाजन का कार्य उन्हीं मध्यस्थों को सौंप देता है। इस प्रकार के मध्यस्थता संबंधी कार्यों पर मध्यस्थता अधिनियम, 1940 (Arbitration Act, 1940) के सभी प्रावधान लागू होते हैं। यह अधिनियम उस समय लागू था और अब इसे Arbitration and Conciliation Act, 1996 द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है, लेकिन इस धारा में 1940 के अधिनियम का संदर्भ है।
यह प्रावधान इस प्रकार है कि विभाजन के दौरान जो प्रक्रिया धारा 200 में पक्षकारों के लिए बताई गई है, वही प्रक्रिया धारा 201 के अंतर्गत मध्यस्थों पर भी लागू होती है। हालांकि, मध्यस्थों को स्वयं कलेक्टर के समक्ष उपस्थित होकर हस्ताक्षर करने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन उन्हें पुरस्कार पत्र (Award) तथा लॉट्स पर स्वयं हस्ताक्षर करके उन्हें कलेक्टर को सौंपना होता है।
उदाहरण: अगर किसी ज़मीनी विवाद में तीन भाई आपसी सहमति से दो वरिष्ठ ग्रामवासियों को मध्यस्थ बनाकर उन्हें निर्णय का अधिकार सौंपते हैं, तो वे लोग विभाजन का नक्शा और रिपोर्ट तैयार करके उस पर हस्ताक्षर कर देंगे। इसके बाद कलेक्टर को वह दस्तावेज़ सौंपा जाएगा, और कलेक्टर अगर पाता है कि यह प्रक्रिया कानून और पूर्व आदेश के अनुसार हुई है, तो इसे स्वीकार कर लिया जाएगा।
धारा 202 – जब कलेक्टर को स्वयं विभाजन करना पड़े (Court when to make Partition Itself)
कभी-कभी ऐसा होता है कि पक्षकार आपसी सहमति से विभाजन नहीं कर पाते या वे किसी मध्यस्थ को नियुक्त करने पर सहमत नहीं होते। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि मध्यस्थता प्रक्रिया विफल हो जाए, पुरस्कार पत्र खारिज हो जाए या विवाद उत्पन्न हो जाए। ऐसे में अंतिम विकल्प यह होता है कि कलेक्टर स्वयं विभाजन की प्रक्रिया को अपने हाथ में लेता है।
जब कलेक्टर स्वयं विभाजन करता है, तो वह सारे संबंधित दस्तावेज़ों और मानचित्रों का उपयोग करता है, और न्यायोचित ढंग से प्रत्येक हिस्सेदार का भाग निर्धारित करता है। इस प्रक्रिया में न्याय, निष्पक्षता और सभी तथ्यों का समुचित मूल्यांकन आवश्यक होता है।
उदाहरण: यदि राम और श्याम आपस में सहमत नहीं हो पा रहे कि किस खेत को कौन रखे, और मोहन द्वारा नियुक्त मध्यस्थ पर दोनों को संदेह है, तो कलेक्टर यह तय करता है कि अब वह स्वयं भूमि का विभाजन करेगा ताकि विवाद का निष्पक्ष समाधान हो।
धारा 203 – विभाजन की लागत का अनुमान और वसूली (Estimate and Levy of Partition Costs)
जब कलेक्टर यह निर्णय ले लेता है कि वह स्वयं विभाजन करेगा, तो उसके बाद सबसे पहले विभाजन में होने वाली लागत का अनुमान लगाया जाता है। यह अनुमान किया गया व्यय पहले तो उस व्यक्ति से वसूला जाएगा जिसने हिस्सेदारी का आवेदन किया था, लेकिन यदि ऐसा संभव न हो, तो सभी हिस्सेदारों से नियमानुसार किश्तों में वसूली की जाएगी। इन किश्तों की राशि और समय राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार निर्धारित किए जाते हैं।
यदि प्रारंभिक अनुमान कम पड़ जाता है, तो समय-समय पर अतिरिक्त व्यय का पुनः आकलन किया जा सकता है और फिर से अतिरिक्त राशि वसूली जा सकती है। राज्य सरकार उन सभी मदों (items) को निर्दिष्ट करेगी जिन्हें विभाजन व्यय में शामिल किया जाएगा, और बोर्ड यह निर्धारित करेगा कि यह खर्च किन-किन हिस्सेदारों पर कितना-कितना वितरित किया जाए।
उदाहरण: किसी गांव में 120 बीघा ज़मीन के विभाजन में पटवारी, अमीन, मानचित्रकार और अन्य अधिकारियों की सहायता की आवश्यकता पड़ी। इस पूरी प्रक्रिया में 15,000 रुपये का खर्च आया। यदि 5 हिस्सेदार हैं, तो नियमों के अनुसार यह तय किया जाएगा कि कौन कितना भुगतान करेगा – यह भूमि की मात्रा और प्रक्रिया में लिए गए लाभ के अनुपात में होगा।
राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धाराएं 200 से 203 तक न केवल विभाजन की प्रक्रिया को लचीला बनाती हैं, बल्कि यह सुनिश्चित करती हैं कि कोई पक्षकार यदि विवाद से बचना चाहता है तो वह आपसी सहमति या मध्यस्थता का मार्ग अपनाकर शीघ्र समाधान पा सकता है।
लेकिन जहां सहमति या मध्यस्थता संभव नहीं हो, वहां कलेक्टर के पास वैधानिक शक्ति है कि वह स्वयं न्यायसंगत विभाजन करे। इसके साथ ही, प्रक्रिया की लागत किस प्रकार अनुमानित और वसूली की जाएगी, यह भी स्पष्ट रूप से बताया गया है। ये प्रावधान भूमि विवादों में पारदर्शिता, प्रभावशीलता और न्याय सुनिश्चित करने में अत्यंत सहायक हैं।