राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 194 से 199: हिस्सेदारी के लंबित निर्णय, प्रबंधन, मूल्यांकन और प्रारंभिक आदेश

Himanshu Mishra

14 Jun 2025 10:54 PM IST

  • राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 194 से 199: हिस्सेदारी के लंबित निर्णय, प्रबंधन, मूल्यांकन और प्रारंभिक आदेश

    राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धाराएं 194 से 199 हिस्सेदारी की प्रक्रिया के उन महत्वपूर्ण चरणों को स्पष्ट करती हैं जो तब उत्पन्न होते हैं जब अपील लंबित हो, संपत्ति का अस्थायी प्रबंधन करना पड़े, मूल्यांकन का निर्धारण आवश्यक हो, या विभाजन से पहले कोई प्रारंभिक आदेश देना हो।

    यह धाराएं प्रशासनिक प्रावधानों के साथ-साथ न्यायिक प्रक्रिया को भी संतुलित करती हैं और भूमि के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए आवश्यक दिशा-निर्देश प्रदान करती हैं। इस लेख में इन सभी धाराओं की सरल भाषा में व्याख्या की गई है ताकि आमजन और कानून के छात्रों दोनों को इसका पूरा लाभ मिल सके।

    धारा 194 – अपील लंबित होने पर हिस्सेदारी की प्रक्रिया पर रोक (Stay of Partition Pending Decision of Appeal)

    जब कोई अपील लंबित हो — चाहे वह धारा 193(1)(b) के अंतर्गत सिविल न्यायालय में लंबित हो या धारा 193(3) के अंतर्गत कलेक्टर के निर्णय के विरुद्ध हो — तो अपीलीय न्यायालय (Appellate Court) कलेक्टर को एक आदेश (precept) जारी कर सकता है जिससे वह अंतिम निर्णय होने तक हिस्सेदारी की प्रक्रिया को स्थगित कर दे।

    उदाहरण: यदि कलेक्टर ने किसी आपत्ति पर फैसला सुनाया है और एक पक्षकार उस निर्णय के विरुद्ध अपील में चला गया है, तो वह अपीलीय न्यायालय से निवेदन कर सकता है कि जब तक अपील का निर्णय न आ जाए, तब तक विभाजन की प्रक्रिया को रोका जाए।

    धारा 195 – हिस्सेदारी पूर्ण होने तक संपत्ति का अस्थायी प्रबंधन (Attachment of Estate Pending Completion of Partition)

    इस धारा के अनुसार, कलेक्टर को यह अधिकार है कि वह किसी भी चरण पर, बोर्ड की अनुमति (sanction) से संपत्ति को संलग्न (attach) कर ले और उसे प्रत्यक्ष प्रबंधन (direct management) के अंतर्गत ले आए। जब संपत्ति इस प्रकार प्रबंधित की जाती है, तो उससे प्राप्त आय पहले भू-राजस्व (revenue) और प्रबंधन खर्चों की पूर्ति में उपयोग की जाती है, जो संग्रह राशि का 10% तक हो सकता है। इसके बाद बचे हुए धन का उपयोग अन्य वैध देनदारियों की पूर्ति में किया जाता है और अंततः शेष राशि सह-स्वामियों के बीच उनके हिस्से के अनुसार बाँटी जाती है।

    उदाहरण: अगर किसी संपत्ति की हिस्सेदारी प्रक्रिया लंबी चल रही है और कलेक्टर को लगता है कि आय का दुरुपयोग हो सकता है, तो वह संपत्ति को अपने नियंत्रण में लेकर उससे हुई कमाई को राजस्व, प्रबंधन और देनदारियों की पूर्ति के बाद शेष सह-स्वामियों में बांट सकता है।

    धारा 196 – परीक्षण की विधि (Method of Trial)

    इस धारा के अनुसार, कलेक्टर पटवारी को निम्नलिखित निर्देश देता है कि वह संपत्ति के विभाजन के लिए आवश्यक विवरण तैयार करे। पटवारी को संपत्ति के नक्शे पर विभाजन योग्य क्षेत्र को एक विशेष रंग में चिह्नित करना होता है। उसे उस भूमि की मिट्टी की गुणवत्ता (soil classification), खसरा (field book) और खतौनी (record of cultivators) से आवश्यक सारांश तैयार करना होता है। साथ ही, जो प्लॉट खुदकश्त (स्वयं द्वारा जोते गए) हैं या जो किसी उप-धारक (sub-holder) के अधीन हैं, उनकी सूची बनानी होती है।

    पटवारी को प्रत्येक प्लॉट का मूल्यांकन करने की विधि सुझानी होती है और वृक्षों, जंगल की आमदनी, अन्य स्रोतों से आय तथा कुओं की स्थिति, उनका उपयोग और निर्माण खर्च का भी पूरा विवरण देना होता है।

    यदि कार्य अधिक है तो कलेक्टर, पटवारी की सहायता के लिए एक अस्थायी सहायक नियुक्त कर सकता है, जिसका प्रारंभिक खर्च आवेदनकर्ता को देना होगा और बाद में यह खर्च मुकदमे की कुल लागत में जोड़ दिया जाएगा।

    उदाहरण: किसी गांव में 100 बीघा भूमि की हिस्सेदारी होनी है। पटवारी नक्शे में नीले रंग से वह क्षेत्र दर्शाएगा, प्रत्येक प्लॉट की मिट्टी कैसी है वह लिखेगा, कौन सा खेत किसके द्वारा बोया जा रहा है यह खतौनी से निकालेगा, और कुल मूल्यांकन के लिए एक अनुमानित गणना पेश करेगा।

    धारा 197 – मूल्यांकन के सिद्धांतों और शर्तों का निर्धारण (Determination of Principles and Conditions of Valuations)

    यह धारा बताती है कि कलेक्टर को राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार, मूल्यांकन के सामान्य सिद्धांतों और शर्तों का निर्धारण करना होता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संपत्ति के विभिन्न प्लॉटों का आपसी तुलनात्मक मूल्यांकन न्यायपूर्ण हो।

    किसी प्लॉट का मूल्य सिर्फ उसके क्षेत्रफल से ही नहीं, बल्कि मिट्टी की गुणवत्ता, सिंचाई की सुविधा, भूमि की प्रकृति (tenure), किरायेदार की योग्यता और अन्य प्रभावकारी कारणों से भी निर्धारित हो सकता है। एक बार यह सामान्य सिद्धांत तय हो जाएं, तो पटवारी प्रत्येक प्लॉट का मूल्य इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर निर्धारित करेगा।

    उदाहरण: एक प्लॉट 2 बीघा है लेकिन उसमें नहर से सिंचाई होती है और मिट्टी उपजाऊ है, जबकि दूसरा प्लॉट 3 बीघा है लेकिन बंजर है। ऐसे में पहला प्लॉट अधिक मूल्यवान होगा, भले ही वह आकार में छोटा हो।

    धारा 198 – हिस्सेदारी का प्रारंभिक आदेश (Preliminary Order for Partition)

    धारा 198 के अंतर्गत जब धारा 196 में बताई गई जांच पूरी हो जाती है, और कलेक्टर को आवेदन अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं मिलता, तो वह एक प्रारंभिक आदेश (preliminary order) जारी करता है। इस आदेश में प्रत्येक दावेदार के हिस्से की प्रकृति और सीमा स्पष्ट की जाती है, संपत्ति को कितने भागों में बांटा जाएगा, हर भाग का आकार कितना होगा, और विभाजन कैसे किया जाएगा, यह सब उल्लेखित किया जाता है।

    यदि दो या अधिक दावेदार आपस में सहमत हों, तो उनकी हिस्सेदारी को मिलाकर एक संयुक्त भाग भी बनाया जा सकता है, और उसमें प्रत्येक की व्यक्तिगत हिस्सेदारी को भी स्पष्ट किया जाता है।

    उदाहरण: राम, श्याम और मोहन ने हिस्सेदारी का दावा किया है। प्रारंभिक आदेश में कहा गया कि संपत्ति को तीन भागों में बांटा जाएगा, प्रत्येक 10 बीघा। लेकिन राम और मोहन सहमत हैं कि वे एक साथ खेती करेंगे, तो कलेक्टर उनके 20 बीघा को एक संयुक्त हिस्से के रूप में दिखाकर उसमें राम का 12 बीघा और मोहन का 8 बीघा स्पष्ट रूप से दर्शा सकता है।

    धारा 199 – विभाजन कौन करेगा (Partition by Whom to be Made)

    धारा 199 में बताया गया है कि जब प्रारंभिक आदेश जारी कर दिया जाता है, तो कलेक्टर पक्षकारों को स्वयं विभाजन करने की अनुमति दे सकता है। यदि वे चाहें, तो वे अपने-अपने मध्य किसी मध्यस्थ (arbitrator) को नियुक्त कर सकते हैं जो विभाजन की प्रक्रिया को निष्पक्ष रूप से पूर्ण करे।

    उदाहरण: कलेक्टर ने प्रारंभिक आदेश में भूमि के तीन बराबर हिस्से निर्धारित किए। राम, श्याम और मोहन आपसी सहमति से स्वयं विभाजन कर लेते हैं या फिर वे एक ज्ञानी व्यक्ति को मध्यस्थ बनाकर उसे निर्णय लेने की शक्ति दे सकते हैं।

    धाराएं 194 से 199 राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की हिस्सेदारी प्रक्रिया को एक सुव्यवस्थित, न्यायसंगत और प्रबंधकीय दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। ये प्रावधान यह सुनिश्चित करते हैं कि जब तक कोई अपील लंबित है, तब तक विभाजन न हो; जब तक प्रक्रिया पूरी नहीं होती, तब तक संपत्ति की देखभाल ठीक से हो; और विभाजन के पहले संपूर्ण विवरण और मूल्यांकन का निष्पक्ष निर्धारण हो।

    प्रारंभिक आदेश के बाद यदि पक्षकार चाहें तो वे स्वयं या मध्यस्थ की सहायता से विभाजन कर सकते हैं। इन प्रक्रियाओं से यह स्पष्ट होता है कि कानून केवल कागजों तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यवहारिक जटिलताओं को भी ध्यान में रखता है और उन्हें निपटाने के लिए उचित मार्गदर्शन देता है। इससे न केवल भूमि विवादों में कमी आती है, बल्कि भूमि के प्रबंधन और उपयोग की न्यायपूर्ण प्रक्रिया भी सुदृढ़ होती है।

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