राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धाराएं 187 से 193: हिस्सेदारी आवेदन, प्रक्रिया, आपत्तियां और अधिकार क्षेत्र
Himanshu Mishra
13 Jun 2025 9:22 PM IST

राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956, राज्य के भू-अधिकारों के नियमन और व्यवस्थापन हेतु एक प्रमुख विधिक दस्तावेज है। इसमें भूमि के विभाजन (partition) से जुड़ी विभिन्न प्रक्रियाएं, अधिकार, आपत्तियां और न्यायिक व्यवस्थाएं दी गई हैं।
धाराएं 187 से 193 हिस्सेदारी यानी संयुक्त भूमि के कानूनी विभाजन से संबंधित हैं। यह धाराएं बताती हैं कि हिस्सेदारी के लिए आवेदन कैसे किया जाए, किसके पास किया जाए, यदि संपत्ति एक से अधिक जिलों में हो तो क्या प्रक्रिया होगी, और यदि आपत्तियां उठें तो उन्हें कैसे सुलझाया जाए। इस लेख में इन सभी धाराओं का सरल हिंदी में विस्तार से विश्लेषण किया गया है।
धारा 187 — हिस्सेदारी के लिए आवेदन (Application for Partition)
हिस्सेदारी के लिए किया जाने वाला आवेदन कुछ निर्धारित विवरणों (prescribed particulars) के साथ होना चाहिए। इसके साथ उस संपत्ति का वार्षिक रजिस्टर (annual register) की प्रमाणित प्रति भी संलग्न होनी चाहिए। इसके अलावा, जिस भी दस्तावेज़ के आधार पर हिस्सेदारी का दावा किया जा रहा हो, उसे भी आवेदन के साथ प्रस्तुत करना आवश्यक होता है। यह आवेदन किसी एक सह-स्वामी द्वारा भी किया जा सकता है या दो या अधिक सह-स्वामी मिलकर भी कर सकते हैं।
यदि जिस हिस्से की हिस्सेदारी मांगी जा रही है वह किसी बंधक (mortgage) के अधीन है, तो बंधककर्ता (mortgagor) और बंधकधारी (mortgagee) दोनों को संयुक्त रूप से आवेदन में शामिल होना होगा। यदि वे एक साथ आवेदन नहीं कर रहे हैं, तो उनमें से एक को दूसरे को विपक्षी पक्ष के रूप में शामिल करना होगा, अन्यथा आवेदन पर विचार नहीं किया जाएगा।
उदाहरण: राम और श्याम एक खेत के सह-स्वामी हैं, लेकिन श्याम ने अपने हिस्से को बंधक रखा है। अब यदि राम हिस्सेदारी की मांग करता है, तो उसे श्याम को भी पक्षकार बनाना पड़ेगा या फिर श्याम के साथ मिलकर संयुक्त आवेदन करना होगा।
धारा 188 — आवेदन किसे प्रस्तुत किया जाए (To Whom Application Lies)
यह धारा बताती है कि हिस्सेदारी के लिए आवेदन उस जिले के कलेक्टर को प्रस्तुत किया जाना चाहिए जिसमें वह संपत्ति स्थित है। धारा 189 के प्रावधानों को छोड़कर, सभी मामलों में कलेक्टर ही प्राधिकृत अधिकारी होगा।
उदाहरण: यदि जोधपुर जिले में स्थित किसी गांव में संयुक्त भूमि है, तो उसके विभाजन के लिए आवेदन जोधपुर के कलेक्टर को ही किया जाएगा।
धारा 189 — एक से अधिक जिलों में फैली संपत्ति का विभाजन (Partition of an Estate Falling Under Several Districts)
जब किसी संपत्ति की सीमा एक से अधिक जिलों में फैली हुई हो, तो विभाजन कैसे किया जाएगा, इसका निर्धारण इस धारा में किया गया है। यदि ऐसे जिले एक ही संभाग (division) में आते हैं, तो संभागीय आयुक्त (Commissioner) यह निर्णय लेगा कि किस जिले में विभाजन प्रक्रिया चलेगी। लेकिन यदि वे जिले अलग-अलग संभागों में हों, तो यह निर्णय राजस्व मंडल (Board of Revenue) द्वारा लिया जाएगा।
उदाहरण: कोई संपत्ति बांसवाड़ा और डूंगरपुर जिलों में फैली हुई है और दोनों जिले एक ही संभाग में हैं, तो संभागीय आयुक्त तय करेगा कि किस जिले में मामला चलेगा। परंतु यदि एक भाग उदयपुर संभाग में और दूसरा कोटा संभाग में आता है, तो निर्णय राजस्व मंडल करेगा।
धारा 190 — विभिन्न दावों का एकत्रीकरण (Consolidation of Claims)
यदि एक ही संपत्ति पर कई सह-स्वामियों ने अलग-अलग हिस्सेदारी के लिए आवेदन किया हो, तो सभी दावों को एकत्रित (consolidate) कर एक ही प्रक्रिया में शामिल कर दिया जाएगा और एक ही निर्णय के माध्यम से उनका निपटारा किया जाएगा।
उदाहरण: यदि राम, श्याम और घनश्याम तीनों ने अलग-अलग आवेदन प्रस्तुत किए हैं कि वे अपनी-अपनी हिस्सेदारी चाहते हैं, तो तीनों मामलों को एक में मिला दिया जाएगा और एक ही निर्णय दिया जाएगा जिससे प्रक्रिया तेज और न्यायसंगत हो।
धारा 191 — विभाजन पर रोक लगाने की शक्ति (Power to Stay Partition of an Estate)
यह धारा कलेक्टर, उपखंड अधिकारी (Sub-Divisional Officer), या सहायक कलेक्टर को यह अधिकार देती है कि वे किसी हिस्सेदारी आवेदन को अस्वीकार कर सकते हैं या उस पर रोक लगा सकते हैं यदि उन्हें कोई उपयुक्त कारण प्रतीत हो। इसके अलावा, किसी संपत्ति को इस प्रकार विभाजित नहीं किया जा सकता जिससे कोई हिस्सा इतनी छोटी भूमि में बदल जाए कि वह न्यूनतम निर्धारित क्षेत्रफल से कम हो जाए।
उदाहरण: यदि किसी संपत्ति को विभाजित करने से एक हिस्सा केवल 5 वर्ग मीटर रह जाता है जबकि न्यूनतम सीमा 10 वर्ग मीटर है, तो कलेक्टर ऐसे विभाजन को रोक सकता है।
धारा 192 — हिस्सेदारी आवेदन की उद्घोषणा (Proclamation of Application for Partition)
जब कलेक्टर को हिस्सेदारी का आवेदन प्राप्त होता है और वह आवेदन विधिवत और प्रथम दृष्टया स्वीकार्य होता है तथा धारा 191 के तहत न तो अस्वीकार किया गया हो और न ही स्थगित, तो कलेक्टर एक उद्घोषणा (proclamation) जारी करेगा।
यह उद्घोषणा उन सह-स्वामियों को बुलावा देती है जिन्होंने उस आवेदन में भाग नहीं लिया है। उन्हें 30 से 60 दिनों के भीतर व्यक्तिगत रूप से या अपने प्रतिनिधि के माध्यम से उपस्थित होकर कोई आपत्ति हो तो वह प्रस्तुत करनी होती है। उद्घोषणा की एक प्रति प्रत्येक सह-स्वामी को दी जाती है।
उदाहरण: यदि किसी संपत्ति में 10 सह-स्वामी हैं और केवल 5 ने ही हिस्सेदारी का आवेदन किया है, तो शेष 5 को उद्घोषणा के माध्यम से बुलाया जाएगा और उनसे पूछा जाएगा कि क्या उन्हें कोई आपत्ति है।
धारा 193 — स्वामित्व से संबंधित आपत्तियाँ (Objection Raising Question of Title)
यदि किसी सह-स्वामी द्वारा निर्धारित दिन तक कोई आपत्ति उठाई जाती है जो स्वामित्व (title) के प्रश्न से संबंधित है, और जिसे पहले किसी सक्षम न्यायालय द्वारा तय नहीं किया गया है, तो कलेक्टर तीन विकल्पों में से कोई एक अपना सकता है।
पहला, यदि प्रश्न पहले ही न्यायालय द्वारा तय हो चुका है तो वह आवेदन अस्वीकृत कर सकता है। दूसरा, वह किसी पक्ष को तीन माह की अवधि देकर सिविल न्यायालय में वाद (suit) दायर करने का निर्देश दे सकता है। तीसरा, वह स्वयं उस आपत्ति की योग्यता (merits) की संक्षिप्त जांच कर सकता है।
यदि कलेक्टर दूसरे विकल्प का चुनाव करता है और संबंधित पक्ष तीन महीने में वाद दायर नहीं करता, तो कलेक्टर उस पक्ष के खिलाफ निर्णय दे देगा। लेकिन यदि वाद दायर कर दिया गया, तो सिविल न्यायालय के निर्णय के अनुसार आगे की कार्यवाही की जाएगी।
यदि कलेक्टर आपत्ति की स्वयं जांच करता है, तो उसे सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure, 1908) के अनुसार वाद की सुनवाई करनी होगी।
जो भी निर्णय इस प्रक्रिया के अंतर्गत कलेक्टर द्वारा दिए जाएंगे, वे सिविल न्यायालय के निर्णय माने जाएंगे और उस पर जिला न्यायाधीश या उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है, जो भी उपयुक्त हो।
उदाहरण: यदि किसी सह-स्वामी का कहना है कि एक अन्य सह-स्वामी का नाम रिकॉर्ड में गलत तरीके से दर्ज है और वह मालिक नहीं है, तो कलेक्टर उसे सिविल न्यायालय में वाद दायर करने का आदेश दे सकता है या स्वयं उस मुद्दे की जांच कर सकता है।
राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम की धाराएं 187 से 193 हिस्सेदारी की पूरी प्रक्रिया को विस्तार से स्पष्ट करती हैं। इन धाराओं का उद्देश्य सह-स्वामित्व वाली संपत्तियों का न्यायपूर्ण विभाजन सुनिश्चित करना है।
यह प्रावधान सिर्फ आवेदन और आपत्ति तक सीमित नहीं हैं, बल्कि जटिल कानूनी विवादों की स्थिति में उनके समाधान की प्रक्रिया भी तय करते हैं। इससे सुनिश्चित होता है कि सह-स्वामियों के अधिकार सुरक्षित रहें, और भूमि के उपयोग में बाधाएं न आएं। इससे ना केवल भूमि विवादों की संख्या घटती है, बल्कि प्रशासनिक प्रक्रियाएं भी अधिक पारदर्शी और कुशल बनती हैं।