राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 178 से 186 : अलवियन द्वारा भूमि का जुड़ना और किराया संशोधन
Himanshu Mishra
12 Jun 2025 4:48 PM IST

राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 राज्य के भूमि प्रशासन के लिए एक महत्वपूर्ण अधिनियम है, जो बंदोबस्त, किराया निर्धारण, भू-प्रबन्ध, और सह-स्वामित्व (co-ownership) जैसी विषयवस्तुओं को विस्तार से नियंत्रित करता है। इस लेख में हम धाराओं 178 से 186 का सरल और क्रमबद्ध विश्लेषण करेंगे, जिसमें हर धारा का उद्देश्य, प्रक्रिया और उदाहरणों सहित विवेचन किया गया है।
धारा 178 — अल्पकालिक बंदोबस्त (Short Term Settlement)
जब किसी क्षेत्र के लिए धारा 175 के दूसरे अपवाद के तहत संक्षिप्त अवधि के लिए बंदोबस्त किया गया हो, और उस क्षेत्र की यह अवधि समाप्त हो जाए जबकि पूरे जिले के लिए निर्धारित बंदोबस्त की अवधि शेष हो, तो उस स्थानीय क्षेत्र में पुनः किराया निर्धारण का कार्य कलेक्टर अथवा नियुक्त बंदोबस्त अधिकारी द्वारा किया जाएगा। यह किराया अधिनियम के अंतर्गत बनाए गए नियमों के अनुसार तय किया जाएगा।
उदाहरण: यदि किसी नदी के किनारे की भूमि का बंदोबस्त केवल 5 वर्ष के लिए किया गया था जबकि जिले के अन्य भागों के लिए 20 वर्ष की अवधि तय थी, और अब वह 5 वर्ष पूरे हो चुके हैं, तो उस क्षेत्र का पुनः किराया निर्धारण कलेक्टर द्वारा किया जाएगा।
धारा 179 — अलवियन द्वारा भूमि का जुड़ना और किराया संशोधन (Settlement of land added by alluvion and revision of assessment when culturable area reduced by fluvial action)
इस धारा के चार उप-भाग हैं जो भूमि के स्वरूप में हुए भौतिक परिवर्तनों के अनुसार किराया संशोधन की व्यवस्था करते हैं।
पहले उप-खंड में कहा गया है कि जब किसी भूमि में नदी के बहाव से (alluvion) अतिरिक्त भूमि जुड़ जाती है, तो उस पर कलेक्टर या स्थायी बंदोबस्त अधिकारी द्वारा नियमों के अनुसार किराया निर्धारण किया जा सकता है।
दूसरे उप-खंड के अनुसार, यदि किसी भू-खण्ड का कृषि योग्य क्षेत्र नदी कटाव (fluvial action) या किसी अन्य कारण से घट जाता है, तो उसका किराया पुनः निर्धारित किया जा सकता है।
तीसरे उप-खंड में प्रावधान है कि यदि भूमि का उपयोग कृषि से गैर-कृषि या गैर-कृषि से कृषि में परिवर्तित होता है, जिससे उसकी आर्थिक कीमत बदल जाती है, तो किराया उस परिवर्तन के अनुसार संशोधित किया जाएगा।
चौथे उप-खंड में कहा गया है कि उपरोक्त संशोधन तब तक अंतिम नहीं माने जाएंगे जब तक बंदोबस्त आयुक्त (Settlement Commissioner) द्वारा उन्हें अनुमोदन (sanction) न मिल जाए।
उदाहरण: यदि किसी कृषक की भूमि के पास नदी बहने लगी और उससे उसकी भूमि का कुछ हिस्सा कट गया, तो उसका किराया कम किया जा सकता है। इसके विपरीत, अगर उस भूमि पर अब शहरी कॉलोनी बन गई है तो उसका किराया बढ़ाया जा सकता है।
धारा 180 — नगरीय दर (Power of Government to levy additional urban rates)
राज्य सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी भी विकसित हो चुके नगरीय क्षेत्र (urban area) पर अधिनियम के अंतर्गत अतिरिक्त नगरीय दर (urban rate) लगाने की अधिसूचना जारी कर सकती है। यह दर किराया के अतिरिक्त वसूली जा सकती है और यह अधिनियम के नियमों के अनुसार निर्धारित की जाएगी।
उदाहरण: किसी गांव में यदि अब नगर पंचायत बन चुकी है और बाजार, सड़कें, तथा सार्वजनिक सुविधाएं बढ़ गई हैं, तो राज्य सरकार उस पर अतिरिक्त नगरीय दर लगा सकती है।
धारा 181 — बंदोबस्त अधिकारी के समक्ष लंबित प्रकरणों का स्थानांतरण (Applications and proceedings pending before Settlement Officer when operations are closed)
जब किसी क्षेत्र में बंदोबस्त कार्यवाही समाप्त हो जाती है और उसके संबंध में धारा 142 के तहत अधिसूचना जारी हो जाती है, तब उस समय बंदोबस्त अधिकारी के समक्ष लंबित सभी प्रकरण, यदि उस क्षेत्र के लिए कोई स्थायी बंदोबस्त अधिकारी नियुक्त नहीं है, तो कलेक्टर को स्थानांतरित कर दिए जाते हैं। कलेक्टर को इन प्रकरणों को निपटाने के लिए बंदोबस्त अधिकारी के समान अधिकार प्राप्त होते हैं।
उदाहरण: किसी कृषक द्वारा किराया संशोधन के लिए की गई याचिका यदि बंदोबस्त कार्य समाप्ति के समय लंबित है, तो अब वह प्रकरण कलेक्टर द्वारा सुना जाएगा।
धारा 182 — त्रुटियों और चूकों का संशोधन (Correction of errors and omissions)
बंदोबस्त अधिकारी को यह अधिकार है कि वह अपने स्वयं के संज्ञान से या किसी अन्य माध्यम से निम्नलिखित त्रुटियों को सुधार सकता है:
(क) मूल्यांकन वृत्तों (assessment circles), समूहों, मृदा वर्गीकरण (classification of soils), किराया दर निर्धारण (rent-rates) आदि की प्रक्रिया में जब तक कि धारा 156(5) के तहत राज्य सरकार द्वारा उन्हें स्वीकृति नहीं मिली हो।
(ख) भू-खण्डों के किराया निर्धारण में जब तक कि धारा 166 के तहत किराया निर्धारित नहीं किया गया हो।
उदाहरण: यदि किसी भूमि को गलती से उच्च उत्पादक मृदा मान लिया गया हो जबकि वह असल में औसत मृदा हो, तो अधिकारी उस त्रुटि को किराया निर्धारण से पहले ठीक कर सकता है।
धारा 183 — स्वीकृत किराया दरों की समीक्षा (Review of sanctioned rent-rates)
यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि राज्य सरकार द्वारा स्वीकृत किराया दरों में यदि कोई त्रुटि या चूक सामने आए तो उसे सुधारा जा सके। यह त्रुटियाँ मूल्यांकन वृत्त, मृदा वर्गीकरण या किराया निर्धारण प्रक्रिया में हो सकती हैं।
राज्य सरकार को यह अधिकार है कि वह धारा 142(2) के तहत बंदोबस्त कार्य समाप्ति से पहले ऐसी त्रुटियों की खोज होने पर, संशोधित प्रस्ताव तैयार करवाने के लिए बंदोबस्त अधिकारी को निर्देश दे। इसके लिए वही प्रक्रिया लागू होगी जो धारा 155 और 156 में दी गई है।
उदाहरण: यदि किसी पूरे क्षेत्र की भूमि को ग़लती से उच्च गुणवत्ता की भूमि मानकर किराया निर्धारित कर दिया गया हो, जबकि उसमें अधिकतर भूमि मध्यम या निम्न श्रेणी की हो, तो राज्य सरकार किराया दरों की समीक्षा करवा सकती है।
धारा 184 — हिस्सेदारी की परिभाषा (Definition of Partition)
इस धारा के अनुसार, 'हिस्सेदारी' का अर्थ है किसी साझे संपत्ति (partible estate) को दो या अधिक भागों में विभाजित करना, जिनमें प्रत्येक भाग में एक या एक से अधिक हिस्से हो सकते हैं।
उदाहरण: यदि चार भाइयों की खेती संयुक्त रूप से दर्ज है, और वे अपनी जमीन अलग-अलग नाम से दर्ज कराना चाहते हैं, तो यह प्रक्रिया 'हिस्सेदारी' कहलाएगी।
धारा 185 — हिस्सेदारी योग्य संपत्ति की मान्यता (Presumption of partible estates)
यह धारा मानती है कि सभी संपत्तियाँ स्वभावतः हिस्सेदारी योग्य (partible) हैं, जब तक कि कोई प्रथा या अन्य सबूत यह सिद्ध न कर दे कि वह संपत्ति हिस्सेदारी योग्य नहीं है।
इससे सह-स्वामित्व में रहने वाले व्यक्तियों को अपनी ज़मीन का विभाजन करवाने का कानूनी अधिकार प्राप्त होता है, जब तक कि उसकी मनाही विशेष रूप से सिद्ध न हो।
धारा 186 — हिस्सेदारी का अधिकार (Persons entitled to claim partition)
इस धारा के अनुसार, किसी भी साझेदार को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपने हिस्से की हिस्सेदारी की मांग कर सकता है। यह अधिकार व्यक्तिगत रूप से भी लागू होता है और यदि अनेक साझेदार हों तो वे मिलकर भी इस मांग को कर सकते हैं।
उदाहरण: यदि कोई सह-स्वामी यह महसूस करता है कि उसे अपने हिस्से का स्वतंत्र अधिकार चाहिए, तो वह सरकार के समक्ष हिस्सेदारी की मांग कर सकता है। यदि तीन में से दो साझेदार भी यह मांग करें, तो वे सामूहिक रूप से आवेदन दे सकते हैं।
धारा 178 से 186 तक के प्रावधान राजस्थान की भू-प्रशासनिक संरचना में अत्यंत उपयोगी और व्यावहारिक भूमिका निभाते हैं। यह प्रावधान न केवल बंदोबस्त अवधि और किराया निर्धारण की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हैं, बल्कि भू-स्वामित्व, सह-स्वामित्व और भूमि के स्वरूप में परिवर्तन के संबंध में कानूनी स्पष्टता भी प्रदान करते हैं। चाहे वह अल्पकालिक बंदोबस्त हो, नगरीय कर हो, त्रुटियों का सुधार हो या साझी भूमि का विभाजन — ये सभी प्रावधान ग्रामीण और शहरी दोनों ही संदर्भों में न्यायपूर्ण प्रशासन की नींव रखते हैं।