राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 166 से 173 : किराया निर्धारण से लेकर दस्तूर गणवाई Wajib-ul-arz तक

Himanshu Mishra

10 Jun 2025 5:11 PM IST

  • राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 166 से 173 : किराया निर्धारण से लेकर दस्तूर गणवाई Wajib-ul-arz तक

    राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 एक ऐसा विधिक ढांचा है जो भूमि बंदोबस्त, किराया निर्धारण और ग्रामीण भूमि प्रशासन को सुव्यवस्थित करने का प्रयास करता है। इस लेख में हम अधिनियम की धारा 166 से 173 तक के प्रावधानों को विस्तार से सरल हिंदी में समझेंगे। ये धाराएं मुख्यतः किराया निर्धारण के बाद की प्रक्रिया, आपत्तियों की सुनवाई, किराया लागू होने की तिथि, किराया अस्वीकृति की स्थिति, नए किरायेदार को अधिकार देने की प्रक्रिया, और गांव के दस्तूर (Customary Record) तैयार करने से संबंधित हैं।

    धारा 166 — आपत्तियों की सुनवाई और किराया निर्धारण (Hearing of objections and determination of rent)

    धारा 164(4) के अनुसार जब परचों का वितरण हो जाता है तो घोषणा जारी की जाती है जिसमें किसी को कोई आपत्ति हो तो उसे दर्ज कराने का अवसर दिया जाता है। धारा 166 में यह प्रावधान है कि यदि कोई कृषक या ज़मींदार तीस दिनों के भीतर अपनी आपत्ति प्रस्तुत करता है तो बंदोबस्त अधिकारी को वह आपत्ति सुननी होगी, उसे कानून के अनुसार निपटाना होगा और फिर किराया निर्धारण के संबंध में अंतिम आदेश पारित करना होगा।

    इसका उद्देश्य यह है कि किसी भी पक्षकार को अनुचित या त्रुटिपूर्ण किराया निर्धारण से हानि न हो। अधिकारी की जिम्मेदारी होती है कि वह हर आपत्ति को गंभीरता से सुने और उचित निर्णय ले।

    उदाहरण: यदि किसी किसान को उसके परचे में 800 रुपये किराया निर्धारित किया गया है, जबकि वह कहता है कि उस भूमि की उर्वरता कम है और पिछले पाँच सालों में उत्पादन नहीं हुआ, तो वह आपत्ति दर्ज करा सकता है। अधिकारी जांच कर यदि पाता है कि भूमि वास्तव में अनुपजाऊ है, तो वह किराया घटा सकता है।

    धारा 167 — किराया किस तिथि से देय होगा (Rent from what date payable)

    बंदोबस्त अधिकारी द्वारा जो अंतिम आदेश जारी होता है उसके अनुसार निर्धारित किया गया किराया, बंदोबस्त अवधि की आरंभ तिथि से देय होगा। लेकिन यदि किसी विशेष कारण से अधिकारी उचित समझे तो वह यह निर्देश दे सकता है कि किराया उससे पहले किसी तिथि से देय होगा।

    इस प्रावधान से प्रशासन को लचीलापन मिलता है कि वह न्यायसंगत परिस्थितियों में पिछली तिथि से भी किराया देय कर सके।

    उदाहरण: यदि बंदोबस्त 1 जुलाई 2025 से लागू हुआ लेकिन अधिकारी यह पाता है कि क्षेत्र में बंदोबस्त से पूर्व भी नई दरों पर खेती हो रही थी, तो वह 1 अप्रैल 2025 से किराया देय घोषित कर सकता है।

    धारा 168 — किराया अस्वीकार करने का विकल्प (Option to tenant to refuse rent determined)

    किसी कृषक के लिए यह अधिकार रखा गया है कि यदि उसे बंदोबस्त अधिकारी द्वारा निर्धारित किराया स्वीकार नहीं है, तो वह आदेश की तिथि से तीस दिनों के भीतर लिखित रूप में उसे अस्वीकार कर सकता है। यह प्रावधान कृषकों की स्वायत्तता और मर्जी को बनाए रखने के लिए है।

    धारा 169 — अस्वीकृति का प्रभाव (Effect of refusal)

    यदि कोई कृषक निर्धारित किराया अस्वीकार कर देता है, तो उसे तुरन्त अपनी भूमि खाली करनी होगी। यह स्पष्ट करता है कि कृषक को दोनों विकल्प दिए जाते हैं — या तो किराया स्वीकार कर भूमि रखें या अस्वीकार कर भूमि छोड़ दें।

    उदाहरण: अगर किसान रामलाल को 1500 रुपये वार्षिक किराया स्वीकार नहीं है और वह तीस दिनों के भीतर लिखकर अस्वीकार करता है, तो उसे ज़मीन तुरंत खाली करनी होगी और वह ज़मीन फिर से किसी अन्य को दी जा सकती है।

    धारा 170 — अन्य व्यक्ति को ज़मीन का प्रस्ताव (Offer of holding to other persons)

    यदि कोई ज़मीन अस्वीकृति या बेदखली के कारण खाली होती है, तो वह ज़मीन किसी अन्य व्यक्ति को किरायेदार के रूप में दी जा सकती है। यह प्रक्रिया कानून के अनुसार की जाती है और उसका उद्देश्य भूमि का उपयोग सुनिश्चित करना होता है।

    धारा 171 — अस्वीकृति न करने की स्थिति में प्रक्रिया (Procedure upon non-refusal)

    यदि कृषक धारा 168 के अनुसार निर्धारित अवधि में किराया अस्वीकार नहीं करता है, तो यह माना जाएगा कि उसने किराया स्वीकार कर लिया है और अब उसे धारा 167 के अनुसार किराया देना होगा। इससे सुनिश्चित होता है कि चुप्पी या निष्क्रियता को स्वीकृति माना जाए और व्यवस्था में अनावश्यक देरी न हो।

    उदाहरण: यदि किसान सीमा देवी को आदेश 1 अगस्त को मिला और वह 30 अगस्त तक अस्वीकार नहीं करती, तो यह मान लिया जाएगा कि उन्होंने किराया स्वीकार कर लिया है।

    धारा 172 — बंदोबस्त अवधि में किराया परिवर्तनीय नहीं होगा (Rent not liable to variation during currency of settlement)

    एक बार जब बंदोबस्त अधिकारी द्वारा धारा 166 के अंतर्गत किराया तय कर दिया गया, तो वह बंदोबस्त की पूरी अवधि के लिए स्थायी रहेगा। उसे बदला नहीं जा सकता जब तक कि अधिनियम या राजस्थान किरायेदारी अधिनियम, 1955 के किसी विशेष प्रावधान के तहत संशोधन की आवश्यकता न हो।

    इससे किरायेदार और ज़मींदार दोनों को यह सुरक्षा मिलती है कि तय किराया किसी कारणवश मनमाने तरीके से बढ़ाया या घटाया नहीं जा सकता।

    धारा 173 — दस्तूर गणवाई या वाजिब-उल-अर्ज की तैयारी (Preparation of Dastoor Ganwai)

    बंदोबस्त अधिकारी प्रत्येक गांव के लिए एक वाजिब-उल-अर्ज या दस्तूर गणवाई तैयार करता है। यह एक ऐसा अभिलेख होता है जिसमें गांव की परंपराओं, करों, और विशेष अधिकारों का रिकॉर्ड होता है।

    इसमें निम्न बातें दर्ज की जाती हैं:

    किसी ज़मीन के उपयोग के लिए किराया के अलावा दिए जाने वाले शुल्क (cesses) जिनका आज भी पालन होता है, जैसे 'सेवा कर', 'बंदोबस्त कर' आदि। गांव की सार्वजनिक ज़मीन पर बसे लोगों के क्या अधिकार हैं, जैसे गोचर भूमि, नलकूपों से पानी लेने का अधिकार, रास्ता निकलने का अधिकार आदि। किसी गांव की परंपरागत प्रशासनिक व्यवस्थाएं, जैसे कि पंचायत अधिकार, उत्सव आयोजन आदि जिनका कानूनी महत्व हो।

    जब यह रिकॉर्ड तैयार हो जाता है तो गांववासियों को पहले से सूचना देकर एक तय दिन और समय पर एकत्र किया जाता है। अधिकारी उस दिन यह दस्तावेज़ सार्वजनिक रूप से पढ़कर सुनाता है ताकि यदि किसी को कोई आपत्ति हो तो वह उसी समय दर्ज करा सके।

    यदि कोई व्यक्ति कोई आपत्ति उठाता है तो अधिकारी उसे रिकॉर्ड करता है और उसपर निर्णय लेता है। उसका निर्णय अंतिम माना जाता है।

    उदाहरण: गांव के एक किसान ने आपत्ति की कि दस्तूर गणवाई में लिखा है कि तालाब से सिर्फ ऊपरी पट्टी वाले किसान पानी ले सकते हैं, जबकि यह सुविधा सभी के लिए समान रूप से होनी चाहिए। अधिकारी उसकी आपत्ति पर विचार करेगा और यदि उचित समझेगा तो दस्तावेज़ में संशोधन करेगा।

    धारा 166 से 173 तक के प्रावधान राजस्थान की भूमि व्यवस्था में पारदर्शिता, न्याय और लोकसम्मत प्रशासन लाने का प्रयास करते हैं। आपत्तियों की निष्पक्ष सुनवाई, किराया निर्धारण की स्पष्टता, कृषकों की स्वतंत्रता, तथा गांव की परंपराओं का अभिलेखीकरण — ये सभी पहलू ग्रामीण भारत के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।

    इन धाराओं का पालन सुनिश्चित करता है कि ज़मीन पर अधिकार, उसका मूल्यांकन और ग्रामीण व्यवस्थाएं केवल शासकीय आदेश पर नहीं, बल्कि स्थानीय वास्तविकताओं, परंपराओं और लोगों की सहमति के साथ निर्धारित होती हैं। यह लोकतांत्रिक प्रशासन और सामाजिक न्याय की दिशा में एक ठोस कदम है।

    Next Story