राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 163 से 165 : चाही होल्डिंग्स के किराया निर्धारण

Himanshu Mishra

9 Jun 2025 4:50 PM IST

  • राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 163 से 165 : चाही होल्डिंग्स के किराया निर्धारण

    राजस्थान की भूमि व्यवस्था में पारदर्शिता, न्याय और समानता बनाए रखने के उद्देश्य से राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 में कई महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए हैं। इस लेख में हम धारा 163 से 165 तक के प्रावधानों को विस्तार से, सरल हिंदी में समझेंगे। ये प्रावधान विशेष रूप से चाही भूमि (Well Irrigated Land) के किराया निर्धारण, परचा वितरण (Assessment Parcha) और परिस्थितियों में अंशतः किराया वसूली रोकने (Interim Stoppage of Kind Rent Recovery) से जुड़े हुए हैं।

    धारा 163 – चाही होल्डिंग्स के किराया निर्धारण के लिए विशेष प्रावधान (Additional provision for assessment of Chahi holdings)

    चाही होल्डिंग्स यानी ऐसी ज़मीनें जिन पर कुएं या ट्यूबवेल से सिंचाई होती है, उनके किराया निर्धारण में कुछ विशेष सावधानी बरती जाती है। सामान्यतः धारा 157 से 162 में किराया निर्धारण की सामान्य प्रक्रिया बताई गई है, परन्तु चाही ज़मीनों के लिए धारा 163 में अतिरिक्त व्यवस्था दी गई है।

    जब चाही ज़मीन का किराया निर्धारित किया जाता है तो अधिकारी केवल वर्तमान उत्पादन को नहीं देखता बल्कि पिछले पाँच वर्षों का औसत देखता है कि कितने क्षेत्र को चाही रूप में खेती की गई, कितना भाग सूखी खेती के रूप में और कितना हिस्सा परती (fallow) छोड़ा गया। फिर इन तीनों हिस्सों पर अलग-अलग स्वीकृत किराया दर (sanctioned rent-rate) लगाकर कुल किराया निर्धारित किया जाता है।

    इस प्रक्रिया का उद्देश्य यह है कि अस्थायी रूप से भूमि के उपयोग को बदलकर किसान कम किराया न देने लगे। यदि कोई किसान जानबूझकर अपनी ज़मीन को परती छोड़ देता है या सूखी खेती करता है, जबकि वह सिंचाई की व्यवस्था कर सकता है, तो ऐसी भूमि को भी चाही भूमि माना जाएगा और किराया उसी अनुसार लिया जाएगा।

    उदाहरण: अगर किसी किसान की 10 बीघा ज़मीन है और पिछले पाँच सालों में औसतन 6 बीघा में चाही खेती, 3 बीघा में सूखी खेती और 1 बीघा परती रही है, तो इन अनुपातों के आधार पर किराया तय होगा। यदि वह जानबूझकर सिंचाई योग्य ज़मीन को परती छोड़ देता है तो उसे पूरा चाही किराया देना होगा।

    धारा 164 – परचों की तैयारी और वितरण (Preparation and distribution of Parchas)

    जब किसी ज़िले या क्षेत्र में किराया निर्धारण का कार्य पूरा हो जाता है, तो उस क्षेत्र की प्रत्येक होल्डिंग के लिए एक परचा तैयार किया जाता है। यह परचा एक तरह से दस्तावेज़ होता है जो बताता है कि किसी भूमि धारक की ज़मीन पर कितना किराया निर्धारित हुआ है और किस आधार पर।

    प्रत्येक परचे में निम्न बातें स्पष्ट रूप से लिखी जाती हैं:

    1. भूमि का स्वामित्व प्रकार (tenure)

    2. खसरा नंबर और क्षेत्रफल

    3. हर खेत की मिट्टी की श्रेणी (soil class)

    4. उस श्रेणी के लिए स्वीकृत किराया दर

    5. प्रत्येक मिट्टी श्रेणी के अनुसार निर्धारित किराया

    6. यदि कोई सुधार (improvement) किया गया है तो उसकी जानकारी और छूट

    7. कुल निर्धारित किराया और धारा 161 तथा 162 के अनुसार किए गए कोई भी समायोजन (adjustment)

    प्रत्येक तैयार परचा उस होल्डिंग के किसान (tenant) को दिया जाता है और एक प्रति ज़मीन के मालिक (landholder) को भी दी जाती है यदि कोई है। यह वितरण एक तय प्रक्रिया के तहत किया जाता है।

    जब सभी परचे वितरित हो जाते हैं, तब बंदोबस्त अधिकारी एक सार्वजनिक घोषणा करता है जिसमें आम जनता से आपत्तियाँ आमंत्रित की जाती हैं। यदि किसी व्यक्ति को परचे में दर्ज विवरण से आपत्ति है, तो वह अपनी आपत्ति नियमानुसार दर्ज करा सकता है।

    उदाहरण: किसी किसान को परचे में बताया गया कि उसकी ज़मीन की मिट्टी 'उपजाऊ' श्रेणी की है जबकि वह मानता है कि उसकी मिट्टी मध्यम श्रेणी की है, तो वह आपत्ति दर्ज कर सकता है और जांच के बाद सुधार कराया जा सकता है।

    धारा 165 – फसल के रूप में किराया वसूली को अस्थायी रूप से रोकना (Interim stoppage of recovery of kind rents)

    कई बार खेत मालिक (landholder) और किसानों (tenants) के बीच संबंध तनावपूर्ण हो जाते हैं, विशेषकर जब नई दरों पर किराया निर्धारण हो रहा हो। ऐसी स्थिति में यह ज़रूरी हो सकता है कि सरकार हस्तक्षेप करे और किसी तरह के विवाद या अन्याय से बचाव किया जाए।

    अगर किसी ज़िले में कृषि वर्ष शुरू हो चुका है और उसी दौरान धारा 164 के अनुसार परचे वितरित किए जा रहे हैं, और अधिकारी को लगता है कि ज़मींदार और किसान के बीच संबंध बिगड़े हुए हैं या कोई अन्य गंभीर कारण है, तो वह राज्य सरकार को सुझाव भेज सकता है कि फसल के रूप में किराया वसूली (rent in kind) को रोक दिया जाए।

    राज्य सरकार, बंदोबस्त आयुक्त (Settlement Commissioner) की सिफारिश के साथ इसपर विचार करती है और उपयुक्त आदेश पारित कर सकती है।

    यदि सरकार किराया वसूली रोकने का आदेश पारित करती है, तो दो बातों का पालन अनिवार्य होगा:

    1. उस वर्ष के लिए कोई ज़मींदार फसल के रूप में किराया नहीं वसूल सकता।

    2. जब तक नकद किराया (cash rent) का अंतिम निर्धारण नहीं होता, तब तक ज़मींदार परचे में लिखे गए कुल किराये के अनुसार नकद किराया वसूल सकता है। हालांकि, यह किराया अंतिम रूप से तय किए गए किराए के अनुसार समायोजित (adjusted) किया जाएगा।

    लेकिन सरकार तभी यह आदेश पारित करेगी जब उस वर्ष की खरीफ फसल के लिए फसल रूपी किराया (rent in kind) अभी तक वसूल नहीं किया गया हो।

    उदाहरण: यदि वर्ष 2025 के खरीफ फसल का किराया अभी तक किसी ज़मींदार ने नहीं वसूला है, और उसी समय परचे वितरित हो रहे हैं, तथा क्षेत्र में किसान और ज़मींदार के बीच विवाद की स्थिति है, तो राज्य सरकार आदेश देकर फसल के रूप में किराया वसूली को रोक सकती है और केवल नकद किराया की अनुमति दे सकती है।

    धारा 163 से 165 तक राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 में किराया निर्धारण की प्रक्रिया को और अधिक न्यायसंगत, पारदर्शी और व्यावहारिक बनाने के उद्देश्य से शामिल की गई हैं। धारा 163 यह सुनिश्चित करती है कि सिंचाई की सुविधा वाली भूमि का किराया सही तरीके से आंका जाए और जानबूझकर ज़मीन को बेकार छोड़ने पर छूट न दी जाए।

    धारा 164 में यह व्यवस्था की गई है कि हर किसान को स्पष्ट रूप से यह बताया जाए कि उसका किराया कैसे तय हुआ है। वहीं धारा 165 में किसानों के हितों की रक्षा करते हुए तनावपूर्ण स्थितियों में फसल के रूप में किराया वसूली पर रोक लगाने का प्रावधान किया गया है।

    इन धाराओं का एकमात्र उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भूमि बंदोबस्त की प्रक्रिया में किसान, ज़मींदार और प्रशासन के बीच संतुलन बना रहे और भूमि उपयोग से जुड़े आर्थिक अधिकारों और कर्तव्यों का निर्धारण निष्पक्षता से हो। ये प्रावधान राजस्थान की कृषि व्यवस्था को मजबूत आधार प्रदान करते हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाते हैं।

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