राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 11 से 14– प्रश्नों के संदर्भ, हाईकोर्ट से मत, भिन्न मतों का एवं अभिलेखों का संधारण
Himanshu Mishra
23 April 2025 1:17 PM

प्रस्तावना
राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 राज्य के भीतर भूमि राजस्व प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था को नियंत्रित करने वाला एक प्रमुख अधिनियम है। इसकी प्रारंभिक धाराओं में राजस्व बोर्ड की स्थापना, उसकी शक्तियों और अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण की व्यवस्था की गई है। जैसे कि हमने पहले देखा, धारा 9 में अधीनस्थ न्यायालयों पर बोर्ड का सामान्य पर्यवेक्षण निर्धारित है, जबकि धारा 10 में बोर्ड द्वारा मामलों को एकल सदस्य या पीठ के माध्यम से कैसे सुना जाएगा, यह स्पष्ट किया गया है।
अब हम उन धाराओं को समझते हैं जो राजस्व बोर्ड के निर्णय लेने की विधियों से संबंधित हैं, विशेषकर जब कोई कानूनी प्रश्न उठता है, या जब सदस्यों के बीच मतभेद होता है, अथवा जब मामले की सार्वजनिक महत्वता हो और हाईकोर्ट की राय आवश्यक हो। इन प्रावधानों को धारा 11 से 14 में व्यवस्थित किया गया है।
धारा 11 – पीठ को प्रश्न भेजने की शक्ति
धारा 11 यह प्रावधान करती है कि यदि कोई एकल सदस्य, जो किसी मामले की सुनवाई कर रहा है, यह महसूस करता है कि उस मामले में कोई ऐसा प्रश्न उठ रहा है जो कानून से संबंधित है, या कोई ऐसा प्रचलित रीति-रिवाज़ (custom) जिससे कानून की शक्ति प्राप्त हो गई हो, अथवा कोई ऐसा दस्तावेज़ जिसकी व्याख्या (construction) आवश्यक हो, तो वह उस प्रश्न को पीठ (Bench) की राय के लिए भेज सकता है। लेकिन यह तभी किया जा सकता है जब वह सदस्य ऐसा करने के अपने कारणों को लिखित रूप में रिकॉर्ड करे।
यह प्रावधान न्यायिक विवेक के उचित प्रयोग को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, यदि एकल सदस्य के समक्ष एक वसीयत (Will) प्रस्तुत की जाती है, जिसकी व्याख्या अस्पष्ट है, और वह यह समझता है कि यह एक जटिल विधिक प्रश्न है, तो वह उस दस्तावेज़ की व्याख्या के लिए मामले को पीठ को भेज सकता है।
जब पीठ उस प्रश्न पर राय दे देती है, तो वह मामला उसी राय के अनुसार निपटाया जाएगा। इससे यह सुनिश्चित होता है कि विधिक प्रश्नों पर सामूहिक निर्णय लिया जाए, जिससे गलत व्याख्या की संभावना कम हो जाती है और न्याय की गुणवत्ता में वृद्धि होती है।
धारा 12 – हाईकोर्ट को प्रश्न भेजने की शक्ति
धारा 12 उन विशेष परिस्थितियों की बात करती है जब पीठ को यह लगता है कि धारा 11 में वर्णित कोई प्रश्न केवल एक तकनीकी कानूनी प्रश्न नहीं है, बल्कि वह सार्वजनिक महत्व का प्रश्न है। ऐसी स्थिति में पीठ यह आवश्यक समझ सकती है कि उस प्रश्न पर हाईकोर्ट (High Court) से राय ली जाए।
धारा 12 की उपधारा (1) के अनुसार, यदि कोई प्रश्न सार्वजनिक महत्व का है, और उस पर हाईकोर्ट की राय प्राप्त करना उपयुक्त प्रतीत होता है, तो वह पीठ उस प्रश्न को हाईकोर्ट को संदर्भित कर सकती है। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण व्यवस्था है क्योंकि यह न्याय प्रक्रिया को और भी पारदर्शी और विश्वसनीय बनाती है।
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि एक मामला आता है जिसमें यह प्रश्न उठता है कि किसी जाति विशेष का पारंपरिक भूमि उपयोग का अधिकार वैधानिक रूप से कितना मान्य है। चूंकि यह प्रश्न न केवल उस मामले को प्रभावित करता है, बल्कि समाज के एक बड़े वर्ग से संबंधित है, इसलिए पीठ यह प्रश्न हाईकोर्ट को भेज सकती है।
धारा 12 की उपधारा (2) के अनुसार, हाईकोर्ट उस प्रश्न पर उचित सुनवाई कर अपनी राय दर्ज करेगा, और फिर उस राय के अनुसार ही संबंधित मामला तय किया जाएगा। इससे यह सुनिश्चित होता है कि संवेदनशील एवं व्यापक प्रभाव वाले प्रश्नों पर अंतिम और विधिसम्मत राय हाईकोर्ट से प्राप्त हो।
धारा 13 – मतभेद की स्थिति में निर्णय
राजस्व बोर्ड में कई बार ऐसे मामले सामने आते हैं जहाँ एक से अधिक सदस्य किसी मामले की सुनवाई करते हैं। ऐसे मामलों में जब सभी सदस्यों की राय समान होती है, तो निर्णय लेना आसान होता है। परंतु जब उनमें मतभेद हो जाता है, तब क्या प्रक्रिया अपनाई जाए, इसे धारा 13 में स्पष्ट किया गया है।
धारा 13 की उपधारा (1) में यह बताया गया है कि यदि कोई मामला एक पीठ के समक्ष सुना गया है, तो उस मामले का निर्णय उस बहुमत (majority) के अनुसार होगा, जो उस पीठ में मौजूद सदस्यों की राय में प्रकट हो। यानी अगर तीन सदस्यीय पीठ में दो सदस्य एक निर्णय पर सहमत हैं और एक असहमत, तो दो सदस्यों की राय ही निर्णय मानी जाएगी।
अब, यदि ऐसा हो कि सदस्य समान संख्या में बंट जाएँ – जैसे दो सदस्य एक मत में हों और दो सदस्य दूसरे मत में – तो ऐसी स्थिति में मामला एक अन्य सदस्य के पास भेजा जाएगा, जैसा कि धारा 13 की उपधारा (2) में प्रावधान है। तब जो नया सदस्य उस मामले की सुनवाई करेगा, वह अपने विचार व्यक्त करेगा, और फिर उस अतिरिक्त सदस्य को मिलाकर जो बहुमत होगा, उसके अनुसार मामला तय किया जाएगा।
इस प्रकार की प्रक्रिया का उद्देश्य यह है कि न्यायिक निर्णय अनिर्णीत न रह जाए और मतभेद की स्थिति में भी एक स्पष्ट निर्णय सामने आ सके।
धारा 14 – पंजी, अभिलेख एवं लेखों का संधारण
राजस्व बोर्ड की कार्यवाही न्यायिक प्रकृति की होती है, अतः उसका समुचित दस्तावेज़ीकरण और अभिलेख संधारण (Record Keeping) अत्यंत आवश्यक है। इसी उद्देश्य से धारा 14 बनाई गई है।
इस धारा के अनुसार, राजस्व बोर्ड को यह सुनिश्चित करना होता है कि वह अपने कार्यों के निष्पादन हेतु आवश्यक पंजी, पुस्तकें और लेखा-पत्रों को बनाए और संधारित करे। यह कार्य या तो नियमों द्वारा निर्धारित पद्धति के अनुसार किया जाएगा या बोर्ड की आवश्यकता अनुसार तय किया जाएगा।
इसका व्यावहारिक पक्ष यह है कि प्रत्येक मुकदमे की कार्यवाही, निर्णय, अपील, पुनर्विचार इत्यादि का लेखा, तारीख, दस्तावेज़ और रजिस्टर में विवरणित होना चाहिए। इससे न केवल पारदर्शिता बनी रहती है बल्कि भविष्य में किसी भी जांच, अपील या पुनः विचार की स्थिति में सटीक रिकॉर्ड प्राप्त किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि किसी किसान ने पांच वर्ष पहले कोई भूमि विवाद का मामला राजस्व बोर्ड में दायर किया था, और अब पुनर्विचार की अर्जी लगाई है। यदि बोर्ड ने उस समय की कार्यवाही और निर्णयों को विधिवत रिकॉर्ड किया है, तो अब यह आसानी से देखा जा सकता है कि क्या पहले किसी पक्षकार की बात सुनी गई थी या नहीं, और निर्णय किन तथ्यों पर आधारित था।
यह व्यवस्था न केवल न्यायालय की कार्यक्षमता बढ़ाती है, बल्कि कानून के शासन की नींव को भी मजबूत करती है।
राजस्थान भू-राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 11 से लेकर 14 तक की व्यवस्थाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि राज्य की राजस्व न्यायिक व्यवस्था न केवल व्यावहारिक है, बल्कि न्यायिक विवेक, पारदर्शिता, निर्णय की प्रक्रिया और अभिलेख प्रबंधन जैसे महत्वपूर्ण पहलुओं को भी समाहित करती है।
धारा 11 न्यायिक विवेक का विस्तार करती है, जिससे सदस्य जटिल विधिक प्रश्नों को पीठ के समक्ष भेज सकते हैं। धारा 12 न्यायिक प्रणाली को हाईकोर्ट से जोड़ती है जिससे सार्वजनिक महत्व के मामलों में न्यायिक परामर्श प्राप्त किया जा सके। धारा 13 सुनिश्चित करती है कि बहुमत से निर्णय लिया जाए और मतभेद की स्थिति में प्रक्रिया बाधित न हो। वहीं, धारा 14 न्यायिक प्रणाली की पारदर्शिता और स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए अभिलेख संधारण का आधार प्रस्तुत करती है।
इन प्रावधानों से यह सिद्ध होता है कि राजस्थान राज्य ने भू-राजस्व न्यायिक प्रणाली को न केवल विधिक दृष्टिकोण से सशक्त बनाया है, बल्कि व्यावहारिक संचालन की दृष्टि से भी उसे एक मजबूत आधार प्रदान किया है।