Sales of Goods Act, 1930 की धारा 66 : बचत खंड और अनुप्रयोग की सीमाएं
Himanshu Mishra
16 July 2025 9:49 PM IST

माल विक्रय अधिनियम (Sales of Goods Act), 1930 का अध्याय VII विविध प्रावधानों (Miscellaneous Provisions) के साथ समाप्त होता है। धारा 66, जिसे बचत खंड (Savings Clause) के रूप में जाना जाता है, यह सुनिश्चित करती है कि अधिनियम का प्रवर्तन (enforcement) कुछ मौजूदा अधिकारों, दायित्वों, कानूनी कार्यवाही या अन्य कानूनों को प्रभावित न करे। यह अधिनियम के दायरे और सीमाओं को स्पष्ट करती है।
बचत प्रावधान (Savings Provisions)
धारा 66(1) उन पहलुओं को सूचीबद्ध करती है जिन्हें माल विक्रय अधिनियम प्रभावित नहीं करता है:
इस अधिनियम में या इसके द्वारा किए गए किसी भी निरसन (Repeal) में कुछ भी निम्नलिखित को प्रभावित नहीं करेगा या प्रभावित करने वाला नहीं माना जाएगा:
(a) कोई भी अधिकार, शीर्षक, हित, दायित्व या देयता जो इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले ही अधिग्रहित, उपार्जित या हुई थी (Any right, title, interest, obligation or liability already acquired, accrued or incurred before the commencement of this Act):
यह स्पष्ट करता है कि अधिनियम के लागू होने से पहले हुए लेनदेन और उनसे उत्पन्न होने वाले अधिकार और दायित्व सुरक्षित रहेंगे। अधिनियम पूर्वव्यापी (retrospective) नहीं है।
उदाहरण: यदि 1930 में अधिनियम के लागू होने से पहले दो पार्टियों के बीच माल की बिक्री का अनुबंध हुआ था, तो उस अनुबंध से उत्पन्न होने वाले अधिकार और दायित्व पहले से मौजूद कानून (जैसे भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872) द्वारा शासित होंगे, न कि माल विक्रय अधिनियम द्वारा।
(b) ऐसे किसी भी अधिकार, शीर्षक, हित, दायित्व या देयता के संबंध में कोई भी कानूनी कार्यवाही या उपाय (Any legal proceedings or remedy in respect of any such right, title, interest, obligation or liability):
यदि अधिनियम के लागू होने से पहले उत्पन्न हुए अधिकारों या दायित्वों के संबंध में कोई कानूनी कार्यवाही या उपाय (जैसे मुकदमा या दावा) पहले से ही चल रहा था या उसका अधिकार बन गया था, तो अधिनियम उन कार्यवाही या उपायों को प्रभावित नहीं करेगा।
उदाहरण: यदि 1929 में हुए एक अनुबंध के उल्लंघन के लिए 1930 में अधिनियम लागू होने से पहले ही मुकदमा दायर कर दिया गया था, तो वह मुकदमा पुराने कानून के तहत जारी रहेगा।
(c) इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले किया गया या सहा गया कोई भी कार्य (Anything done or suffered before the commencement of this Act):
अधिनियम के लागू होने से पहले किए गए या हुए किसी भी कार्य या घटना पर अधिनियम का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
उदाहरण: यदि अधिनियम लागू होने से पहले माल की सुपुर्दगी हुई थी, तो उस सुपुर्दगी को अधिनियम के प्रावधानों के बजाय पहले के कानून के तहत वैध माना जाएगा।
(d) माल की बिक्री से संबंधित कोई भी अधिनियमन जो इस अधिनियम द्वारा स्पष्ट रूप से निरसित नहीं किया गया है (Any enactment relating to the sale of goods which is not expressly repealed by this Act):
यह सुनिश्चित करता है कि माल की बिक्री से संबंधित कोई भी अन्य कानून, जिसे माल विक्रय अधिनियम में स्पष्ट रूप से रद्द नहीं किया गया है, लागू रहेगा। भारतीय कानून प्रणाली में, विभिन्न कानून एक ही विषय के विभिन्न पहलुओं को कवर कर सकते हैं। यह प्रावधान किसी भी अनपेक्षित निरसन (unintended repeal) से बचाता है।
उदाहरण: यद्यपि भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 के कुछ प्रावधानों को माल विक्रय अधिनियम में शामिल किया गया था, फिर भी अनुबंध अधिनियम के वे प्रावधान जो स्पष्ट रूप से निरसित नहीं हुए थे और माल की बिक्री से संबंधित थे, लागू रहेंगे।
(e) कानून का कोई भी नियम जो इस अधिनियम के साथ असंगत नहीं है (Any rule of law not inconsistent with this Act):
यह एक व्यापक प्रावधान है जो सामान्य कानून (Common Law) के उन नियमों को बचाता है जो माल विक्रय अधिनियम के साथ विरोधाभासी नहीं हैं। इसका अर्थ है कि यदि अधिनियम में किसी विशेष बिंदु पर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, तो उस विषय पर सामान्य कानूनी सिद्धांत लागू होते रहेंगे।
उदाहरण: धोखाधड़ी या गलत बयानी जैसे अनुबंध कानून के सामान्य सिद्धांत, जो माल विक्रय अधिनियम में विशेष रूप से विस्तृत नहीं हैं, माल की बिक्री के अनुबंधों पर लागू रहेंगे, बशर्ते वे अधिनियम के किसी भी प्रावधान के साथ असंगत न हों।
दिवालियेपन के नियमों का निरंतर अनुप्रयोग (Continued Application of Insolvency Rules)
धारा 66(2) दिवालियेपन के कानूनों के संबंध में एक विशिष्ट बचत प्रदान करती है:
माल की बिक्री के अनुबंधों से संबंधित दिवालियेपन के नियम (Rules of Insolvency) उन पर लागू होते रहेंगे, इस अधिनियम में किसी भी बात के बावजूद।
यह पुष्टि करता है कि दिवालियापन कानून (जैसे दिवाला और दिवालियापन संहिता, 2016) में निर्धारित नियम, विशेष रूप से दिवालियापन की कार्यवाही में खरीदार या विक्रेता के अधिकारों और कर्तव्यों के संबंध में, माल विक्रय अधिनियम के प्रावधानों पर हावी रहेंगे। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि दिवालियापन कार्यवाही अक्सर सामान्य वाणिज्यिक अनुबंध सिद्धांतों के अपवादों को जन्म देती है।
संदर्भ: धारा 46(1)(b) जो अदत्त विक्रेता के दिवालियेपन के मामले में पारगमन में माल को रोकने के अधिकार (Right of stopping the goods in transit) का उल्लेख करती है, दिवालियापन के नियमों के महत्व को रेखांकित करती है। यह धारा 66(2) पुष्टि करती है कि दिवालियापन कानून ही उन नियमों का मुख्य स्रोत है।
सुरक्षा लेनदेन पर अधिनियम का गैर-अनुप्रयोग (Non-Application of Act to Security Transactions)
धारा 66(3) माल विक्रय अधिनियम के अनुप्रयोग की एक महत्वपूर्ण सीमा बताती है:
बिक्री अनुबंधों से संबंधित इस अधिनियम के प्रावधान किसी भी ऐसे लेनदेन पर लागू नहीं होते हैं जो बिक्री अनुबंध के रूप में (In the Form of a Contract of Sale) है, जिसका उद्देश्य बंधक (Mortgage), गिरवी (Pledge), प्रभार (Charge) या अन्य सुरक्षा के माध्यम से संचालित होना है (Is Intended to Operate by Way of Mortgage, Pledge, Charge or Other Security)।
यह उपधारा स्पष्ट करती है कि अधिनियम केवल वास्तविक बिक्री लेनदेन पर लागू होता है जहाँ स्वामित्व को पूरी तरह से हस्तांतरित करने का इरादा होता है। यह उन लेनदेन पर लागू नहीं होता है जो बिक्री की आड़ में ऋण के लिए सुरक्षा के रूप में कार्य करते हैं। ऐसे लेनदेन को ऋण और सुरक्षा से संबंधित कानूनों (जैसे भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872, या संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882) द्वारा नियंत्रित किया जाएगा, न कि माल विक्रय अधिनियम द्वारा।
उदाहरण:
• यदि कोई व्यक्ति एक वस्तु को दूसरे व्यक्ति को 'बेचता' है, लेकिन यह स्पष्ट है कि इरादा केवल ऋण के लिए सुरक्षा प्रदान करना था और वस्तु को ऋण चुकाने पर वापस कर दिया जाएगा, तो यह माल विक्रय अधिनियम के बजाय गिरवी या बंधक के नियमों द्वारा शासित होगा।
• दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन बनाम दिल्ली ओमनीबस सर्विस लिमिटेड (Delhi Transport Corporation v. Delhi Omnibus Service Ltd.) (एक प्रासंगिक मामला, हालांकि सीधे धारा 66(3) पर नहीं, फिर भी यह अंतर करता है कि क्या कोई अनुबंध 'वास्तविक बिक्री' है या 'किराये-खरीद' समझौता है जिसका अंतर्निहित उद्देश्य सुरक्षा है। यह दर्शाता है कि अदालतें अनुबंध के 'रूप' के बजाय 'पदार्थ' को देखती हैं जब यह तय करती हैं कि कौन सा कानून लागू होगा।)
माल विक्रय अधिनियम की धारा 66 एक महत्वपूर्ण प्रावधान है जो अधिनियम की सीमाओं को परिभाषित करके कानूनी निरंतरता और स्पष्टता सुनिश्चित करती है। यह पिछले अधिकारों और मौजूदा कानूनों को बचाती है, दिवालियापन नियमों की प्रधानता को स्वीकार करती है, और स्पष्ट करती है कि अधिनियम केवल वास्तविक बिक्री पर लागू होता है, सुरक्षा उद्देश्यों के लिए भेस में किए गए लेनदेन पर नहीं। यह अधिनियम की व्यापकता के बावजूद, अन्य प्रासंगिक कानूनों के साथ उसके सामंजस्य को बनाए रखने में मदद करता है।