धारा 451 सीआरपीसी: जानिए कब जब्त की गयी संपत्ति को उसके मालिक/किसी अन्य को सौंप दिया जाना चाहिए
SPARSH UPADHYAY
13 Aug 2020 11:15 AM IST
उड़ीसा हाईकोर्ट ने बुधवार (5 अगस्त) को सुनाये एक आदेश में इस ओर इशारा किया कि जब्त वाहनों को थानों में लंबे समय तक धूप, बारिश और उचित रखरखाव के बिना नुकसान की स्थिति में रखने का कोई फायदा नहीं होता है।
न्यायमूर्ति एस. के. पाणिग्रही की पीठ ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किये गए मामले, सुंदरभाई अंबालाल देसाई बनाम गुजरात सरकार 2002 (10) SCC 283 एवं उड़ीसा हाईकोर्ट द्वारा तय किये गए मामले दिलीप दास बनाम उड़ीसा राज्य 2019 (III) ILR-CUT 386 की राय के मद्देनजर, मौजूदा मामले में याचिकाकर्ता को उनकी जब्त गाड़ी को प्राप्त करने की इजाजत दे दी थी।
इस लेख में हम इसी धारा के विषय में बात करेंगे। तो चलिए लेख की शुरुआत इस धारा को पढ़ते हुए करते हैं:-
सीआरपीसी की धारा 451 -
जब कोई सम्पत्ति, किसी दंड न्यायालय के समक्ष किसी जांच या विचारण के दौरान पेश की जाती है तब वह न्यायालय उस जांच या विचारण के समाप्त होने तक ऐसी सम्पत्ति की उचित अभिरक्षा के लिए ऐसा आदेश, जैसा वह ठीक समझे, कर सकता है और यदि वह सम्पत्ति शीघ्रतया या प्रकृत्या क्षयशील है या यदि ऐसा करना अन्यथा समीचीन है तो वह न्यायालय, ऐसा साक्ष्य अभिलिखित करने के पश्चात् जैसा वह आवश्यक समझे, उसके विक्रय या उसका अन्यथा व्ययन किए जाने के लिए आदेश कर सकता है।
स्पष्टीकरण-इस धारा के प्रयोजन के लिए "सम्पत्ति के अन्तर्गत निम्नलिखित है,
(क) किसी भी किस्म की सम्पत्ति या दस्तावेज जो न्यायालय के समक्ष पेश की जाती है या जो उसकी अभिरक्षा में है,
(ख) कोई भी सम्पत्ति जिसके बारे में कोई अपराध किया गया प्रतीत होता है या जो किसी अपराध के करने में प्रयुक्त की गई प्रतीत होती है।
धारा 451 का उद्देश्य
सीआरपीसी की धारा 451, कोर्ट को एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपती है कि वह मामले की जांच (inquiry) या सुनवाई/परिक्षण के दौरान, हिरासत में मौजूद संपत्ति के निपटान हेतु उचित आदेश पारित करे, यदि ऐसी आवश्यकता हो तो। वास्तव में, धारा 451 Cr.P.C के तहत शक्तियों का उपयोग शीघ्र और विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए।
यदि ऐसा किया जाता है तो यह विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति करेगा, अर्थात्:
1. संपत्ति के स्वामी को इसके अप्रयुक्त या इसके अप्राप्यता के कारण नुकसान नहीं होगा;
2. संपत्ति को सुरक्षित रखने के लिए न्यायालय या पुलिस की आवश्यकता नहीं होगी;
3. यदि संपत्ति के कब्जे को सौंपने से पहले उचित पंचनामा तैयार किया जाता है, तो इसका उपयोग परीक्षण के दौरान न्यायालय के समक्ष इसके उत्पादन के बजाय साक्ष्य में किया जा सकता है। यदि आवश्यक हो, तो संपत्ति की प्रकृति का विस्तार से वर्णन करते हुए साक्ष्य भी दर्ज किए जा सकते हैं; और
4. साक्ष्य रिकॉर्ड करने के लिए न्यायालय के इस क्षेत्राधिकार का तुरंत उपयोग किया जाना चाहिए ताकि संपत्ति के साथ छेड़छाड़ करने की अधिक संभावना न हो।
संक्षेप में धारा 451 सीआरपीसी
धारा 451 Cr.P.C को पढने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह धारा जब्त की गई संपत्ति के संबंध में न्यायालय को उचित आदेश पारित करने में सक्षम बनाता है, जैसे:
(i) पूछताछ या परीक्षण के लिए लंबित संपत्ति की उचित अभिरक्षा के लिए;
(ii) संपत्ति का विक्रय करने या अन्यथा निपटान करने का आदेश पारित करने के लिए, इस तरह के सबूतों को दर्ज करने के बाद जैसा कि आवश्यक लगता है; और
(iii) यदि वह सम्पत्ति शीघ्रतया या प्रकृत्या क्षयशील है या यदि ऐसा करना अन्यथा समचीन है तो संपत्ति का निपटान करने के लिए उचित आदेश पारित करने के लिए।
गौरतलब है कि संहिता की धारा 451 की अनिवार्य आवश्यकताओं में से एक यह है कि संबंधित संपत्ति न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिए या वह उसकी अभिरक्षा में होनी चाहिए।
उल्लेखनीय है कि हमारे पुलिस स्टेशन जब्त की गयी संपत्तियों से भरे हुए होते हैं और हमेशा ही उनके दुरूपयोग, प्रतिस्थापन, और जब्त की गयी संपत्ति की क्षति की संभावना होती है। ये वो संपत्तियां होती हैं जिन्हें एक जांच या परीक्षण के लंबित रहते हुए जब्त कर लिया जाता है और पुलिस हिरासत/अभिरक्षा में रखा जाता है ।
पुलिस थानों में जगह की कमी, जो जब्त की गयी संपत्तियों से भर गए हैं, और इन बहुमूल्य संपत्तियों की राशि के दुरुपयोग या बदलने/संपत्ति के नुकसान को कम करने या संपत्ति, सामान, खराब होने वाले उत्पाद/वस्तुओं को जब्त करने और पुलिस स्टेशन में रखने को लेकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सुंदरभाई अंबालाल देसाई बनाम गुजरात सरकार 2002 (10) SCC 283 के मामले में कुछ टिप्पणियां की थीं और कहा था कि ऐसी संपत्तियों को नुकसान से बचाने के लिए, धारा 451 Cr.P.C के तहत शक्ति का प्रयोग तुरंत और जल्द से जल्द किया जाना चाहिए।
इस मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यह देखा था कि,
"हमारे विचार में, जो भी स्थिति हो, इस तरह के जब्त वाहनों को पुलिस स्टेशनों पर लम्बी अवधि तक रखने का कोई फायदा नहीं है। यह मजिस्ट्रेट के लिए है कि वह उचित समय पर तुरंत उचित आदेश पारित करे और गारंटी के साथ-साथ किसी भी समय आवश्यक होने पर उक्त वाहन की वापसी के लिए सुरक्षा प्रदान करने को कहे।"
यदि हम गौर करें तो हम यह पाएंगे कि संहिता एवं इस धारा का उद्देश्य ऐसा प्रतीत होता है कि कोई भी संपत्ति जो न्यायालय के नियंत्रण में है (या तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से) उसका निपटान, न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए और इसके संबंध में न्यायालय द्वारा एक उचित आदेश पारित किया जाना चाहिए।
संपत्ति का कब उसके मालिक को सौंपा जाना चाहिये?
यदि हम दंड प्रक्रिया संहिता के विभिन्न प्रावधानों की वस्तु और योजना को देखें तो यह प्रतीत होता है कि इसका उद्देश्य यह है कि जहाँ एक संपत्ति किसी अपराध का विषय है या उससे सबंधित है और उसे पुलिस द्वारा जब्त कर लिया गया है, उसे न्यायालय या पुलिस की हिरासत में आवश्यकता से अधिक समय के लिए बनाए रखना नहीं चाहिए।
चूंकि पुलिस द्वारा संपत्ति की जब्ती, एक सरकारी कर्मचारी को संपत्ति को स्पष्ट रूप से सौंपने जैसा मामला होता है, इसलिए विचार यह है कि संपत्ति को मूल मालिक को तब लौटा किया जाना चाहिए, जब संपत्ति को अभिरक्षा में बनाए रखने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।
आखिर मालिक को कब संपत्ति वापस की जा सकती है इसके दो चरण हो सकते हैं। पहली बार में, इसे किसी भी पूछताछ या परीक्षण के लंबित रहते हुए वापस किया जा सकता है। यह विशेष रूप से उन मामलों में आवश्यक हो सकता है जहां संबंधित संपत्ति शीघ्रतया या प्रकृत्या क्षयशील है (speedy or natural decay)। इसके अलावा, अन्य ज़रूरी कारण भी हो सकते हैं जो संपत्ति के मालिक को या अन्यथा न्याय के हित में निपटान का औचित्य साबित कर सकते हों।
गौरतलब है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 'कमल जीत सिंह बनाम राज्य 1986 UP Cri. 50', 'मो. हनीफ बनाम स्टेट ऑफ यू. पी. 1983 U.P. Cr. 239' और 'जय प्रकाश शर्मा बनाम स्टेट ऑफ यू.पी. 1992 AWC 1744' के मामले में यही दोहराया गया है कि जब्ती कार्यवाही की मात्र शुरुआत होने से वाहन के मालिक को वाहन की डिलीवरी पर रोक नहीं लग जाती है, जहाँ पंजीकृत वाहन के मालिक को दोषी नहीं पाया गया है।
श्रीमती बसवा कोम दयमंगौड़ा पाटिल बनाम मैसूर राज्य एवं अन्य (1977) 4 एससीसी 358 के मामले में उच्चतम न्यायलय ने धारा 451 के सम्बन्ध में कहा था कि इस धारा का उद्देश्य यह प्रतीत होता है कि कोई भी संपत्ति जो न्यायालय के नियंत्रण में है या तो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, उसे न्यायालय द्वारा निपटाया जाना चाहिए और इसके निपटान के बारे में न्यायालय द्वारा एक उचित आदेश पारित किया जाना चाहिए।
अदालत ने यह भी कहा था कि एक आपराधिक मामले में, पुलिस हमेशा न्यायालय के सीधे नियंत्रण में काम करती है और किसी भी जांच या परीक्षण के प्रत्येक चरण में उसे अदालत से आदेश लेना पड़ता है। इस व्यापक अर्थ में, न्यायालय द्वारा हर मामले में पुलिस अधिकारियों की कार्रवाइयों पर एक समग्र नियंत्रण स्थापित किया जाता है, जहां उसने मामले का संज्ञान ले लिया है।
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने यहाँ तक कहा था कि जहां संपत्ति चोरी, गुम या नष्ट हो गई है और प्रथम दृष्टया यह लगता है कि राज्य या उसके अधिकारियों ने संपत्ति की सुरक्षा के लिए उचित देखभाल और सावधानी नहीं बरती है, ऐसे एक उपयुक्त मामले में मजिस्ट्रेट, जहां न्याय के लिए ऐसा करना आवश्यक है, संपत्ति के मूल्य का भुगतान का आदेश दे सकता है।
संपत्ति की सुरक्षा है प्राथमिकता
धारा 451 में मौजूद वाक्यांश "यदि ऐसा करना अन्यथा समीचीन है" (if it is otherwise expedient so to do), विचरण के लंबित रहते हुए प्रॉपर्टी की रक्षा के लिए मजिस्ट्रेट को पर्याप्त शक्ति प्रदान करता है। इसलिए, जब मजिस्ट्रेट के समक्ष संपत्ति का उत्पादन किया जाता है और वह यह मानता है संपत्ति को जांच या परीक्षण के निष्कर्ष के आने तक सुरक्षित हिरासत के लिए सौंप दिया जाना चाहिए तो वह धारा 451 सीआरपीसी के तहत अपनी शक्ति का उपयोग एक अंतरिम उपाय के रूप में कर सकता है।
शब्द "समीचीन" (expedient) से यह पता चलता है कि यदि अदालत की अवधारण में जब्त की गयी संपत्ति महंगी/बहुमूल्य है और धीरे-धीरे उसका क्षय हो रहा है, तो उस संपत्ति को मुकदमा या जांच के लंबित रहते यदि कोई उसकी अभिरक्षा लेने के लिए आगे आता है तो धारा 451 का उपयोग अंतरिम राहत के लिए मजिस्ट्रेट को कुछ आदेश पारित करना होता है।
गौरतलब है कि धारा 451 Cr.P.C का दायरा व्यापक बनाया गया है, जिसमें सभी तरह की सामग्री और दस्तावेज शामिल हैं जो न्यायालय के समक्ष पेश किए गए हैं या इसकी अभिरक्षा में हैं और उसी का उपयोग किसी अपराध के संबंध में किया गया है या जिसके संबंध में कोई अपराध हुआ हो।
अंत में, जैसा कि उच्चतम न्यायलय ने सुंदरभाई अंबालाल देसाई बनाम गुजरात सरकार 2002 (10) SCC 283 के मामले में देखा था, उसे दोहराया जाना आवश्यक है। इस मामले में अदालत ने कहा था कि जहां अभियुक्त, मालिक या बीमा कंपनी या किसी तीसरे व्यक्ति द्वारा वाहन का दावा नहीं किया जाता है, तो ऐसे वाहन को न्यायालय द्वारा नीलाम करने का आदेश दिया जा सकता है।
यदि उक्त वाहन का बीमा, कंपनी के साथ किया गया है तो बीमा कंपनी को न्यायालय द्वारा उस वाहन को कब्जे में लेने के लिए सूचित किया जाए, जिस वाहन पर उसका मालिक या किसी तीसरे व्यक्ति द्वारा दावा नहीं किया जाता है। यदि बीमा कंपनी कब्ज़ा करने में विफल रहती है, तो वाहन, न्यायालय के निर्देशानुसार बेचे जा सकते हैं।
न्यायालय, उक्त वाहन के अपने सामने प्रस्तुति की तारीख से छह महीने के भीतर इस तरह का आदेश पारित करेगा। किसी भी मामले में, ऐसे वाहनों को कब्जे में लेने से पहले, उक्त वाहन की उचित तस्वीरें ली जानी चाहिए और विस्तृत पंचनामा तैयार किया जाना चाहिए।