धारा 39 राजस्थान कोर्ट फीस मूल्यांकन अधिनियम, 1961 : कुर्की रद्द करने के वादों में न्याय शुल्क की गणना
Himanshu Mishra
24 April 2025 5:43 PM IST

राजस्थान न्यायालय शुल्क और वाद मूल्यांकन अधिनियम, 1961 (Rajasthan Court Fees and Suits Valuation Act, 1961) का उद्देश्य यह निर्धारित करना है कि विभिन्न प्रकार के दीवानी वादों (Civil Suits) में न्यायालय शुल्क (Court Fee) किस प्रकार से लिया जाएगा। यह अधिनियम न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता (Transparency) बनाए रखने में सहायक होता है और सुनिश्चित करता है कि सभी वादी (Plaintiff) या प्रतिवादी (Defendant) समान न्यायिक प्रक्रिया का पालन करें।
इस अधिनियम की धारा 39 विशेष रूप से उन मामलों से संबंधित है जिनमें कोई व्यक्ति किसी सिविल या राजस्व न्यायालय (Civil or Revenue Court) द्वारा की गई कुर्की (Attachment) को रद्द (Set Aside) करवाना चाहता है। इस धारा में यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसे मामलों में न्यायालय शुल्क किस प्रकार से और कितनी राशि पर निर्धारित किया जाएगा। इससे पहले कि हम धारा 39 को विस्तार से समझें, यह आवश्यक है कि हम अधिनियम की उन धाराओं का भी संक्षिप्त उल्लेख करें जो समान प्रकृति के वादों में न्याय शुल्क की गणना की विधि से संबंधित हैं, ताकि हमें धारा 39 की भूमिका और महत्ता को पूरी तरह समझने में सहायता मिल सके।
धारा 38 का संदर्भ – डिक्री या दस्तावेज को निरस्त करने के वाद
धारा 38 यह निर्धारित करती है कि जब कोई वादी किसी डिक्री (Decree) या ऐसे दस्तावेज को रद्द करवाना चाहता है जो वर्तमान या भविष्य में धन, चल-अचल संपत्ति में किसी अधिकार, स्वामित्व (Title), हित (Interest) को उत्पन्न, सीमित या समाप्त करता है, तो न्याय शुल्क उस संपत्ति या दस्तावेज के मूल्य के आधार पर तय होगा। यदि पूरा दस्तावेज रद्द किया जा रहा है तो पूरी राशि पर और अगर केवल किसी हिस्से को रद्द किया जा रहा है तो उस हिस्से के मूल्य पर शुल्क लगाया जाएगा।
इसी तरह, जब कोई व्यक्ति न्यायालय द्वारा की गई कुर्की को रद्द करवाना चाहता है, तो उसका प्रभाव भी यही होता है — वह उस आदेश को समाप्त करवाना चाहता है जो उसकी संपत्ति पर अधिकार या नियंत्रण बनाता है। इस दृष्टिकोण से, धारा 39 को धारा 38 के साथ जोड़ा जा सकता है, और न्याय शुल्क की गणना की प्रक्रिया में एकरूपता सुनिश्चित होती है।
धारा 39(1) – संपत्ति की कुर्की को रद्द करने के वादों में शुल्क की गणना
धारा 39(1) में कहा गया है कि यदि किसी वादी ने उस कुर्की को रद्द करवाने के लिए वाद दायर किया है जो किसी सिविल या राजस्व न्यायालय द्वारा उसकी किसी संपत्ति (चल या अचल) या उस संपत्ति में हित के विरुद्ध की गई हो, तो न्याय शुल्क निम्न में से जो भी कम हो, उसके आधार पर लिया जाएगा:
पहला विकल्प है — वह राशि जिसके लिए संपत्ति कुर्क की गई थी।
दूसरा विकल्प है — कुर्क की गई संपत्ति का बाजार मूल्य (Market Value) का एक-चौथाई भाग।
इस प्रकार, न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि न्याय शुल्क अत्यधिक ना हो और वादी को अनावश्यक आर्थिक भार का सामना न करना पड़े।
उदाहरण
मान लीजिए कि किसी व्यक्ति की ₹10 लाख की संपत्ति को ₹6 लाख की देनदारी के तहत कुर्क किया गया है। अब यदि वादी उस कुर्की को रद्द करवाना चाहता है। उस संपत्ति का बाजार मूल्य ₹12 लाख है, तो दो विकल्प बनते हैं:
1. कुर्क की गई राशि ₹6 लाख
2. संपत्ति का एक-चौथाई बाजार मूल्य = ₹12 लाख ÷ 4 = ₹3 लाख
इन दोनों में से जो कम है — यानी ₹3 लाख — उस पर न्याय शुल्क निर्धारित किया जाएगा। इस प्रकार वादी ₹3 लाख की गणना के अनुसार शुल्क देकर वाद दायर कर सकता है।
धारा 39(2) – अन्य संक्षिप्त आदेशों को रद्द करने के वादों में न्याय शुल्क
धारा 39(2) उन मामलों को कवर करती है जहाँ कोई वादी किसी सिविल या राजस्व न्यायालय के द्वारा पारित किसी अन्य संक्षिप्त आदेश या निर्णय को रद्द करवाना चाहता है।
यदि ऐसे वाद का विषय वस्तु (Subject Matter) बाजार मूल्य रखता है, तो न्याय शुल्क उस मूल्य के एक-चौथाई भाग पर लिया जाएगा।
और यदि वाद का विषय वस्तु ऐसा नहीं है जिसे बाजार मूल्य में मापा जा सके, तब न्याय शुल्क धारा 45 में निर्दिष्ट सामान्य दरों के अनुसार तय किया जाएगा।
धारा 45 का उल्लेख – सामान्य वादों में न्याय शुल्क की दरें
धारा 45 यह बताती है कि जब वाद का मूल्यांकन सामान्य रूप से बाजार मूल्य के अनुसार संभव नहीं है, तो ऐसे मामलों में न्याय शुल्क किस तरह से तय किया जाएगा। उदाहरण के तौर पर, जब वादी कोई घोषणात्मक राहत (Declaratory Relief) चाहता है या जब अधिकार स्थापित करने के लिए वाद किया गया है, तब धारा 45 की दरें लागू होती हैं। इन दरों का उद्देश्य है कि वादी को न्यूनतम शुल्क देकर अपने अधिकारों की रक्षा का अवसर मिले।
स्पष्टीकरण – सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार का दर्जा
धारा 39 के अंत में एक महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण जोड़ा गया है जिसमें कहा गया है कि इस धारा के प्रयोजन के लिए सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार (Registrar of Co-operative Societies) को भी सिविल न्यायालय के समान माना जाएगा। इसका अर्थ है कि यदि किसी सहकारी समिति के रजिस्ट्रार द्वारा कोई आदेश पारित किया गया हो जिसमें संपत्ति की कुर्की शामिल हो, तो उस आदेश को भी इस धारा के अंतर्गत चुनौती दी जा सकती है और उस पर वही न्याय शुल्क लागू होगा जैसा किसी सिविल न्यायालय के आदेश पर लागू होता।
अंतिम निष्कर्ष
धारा 39, वादियों को एक सुस्पष्ट मार्गदर्शन प्रदान करती है कि उन्हें किन परिस्थितियों में और किस आधार पर न्याय शुल्क देना होगा जब वे किसी कुर्की या संक्षिप्त आदेश को रद्द करवाना चाहते हैं। यह धारा न्याय व्यवस्था की पारदर्शिता और न्यायिक पहुंच (Access to Justice) सुनिश्चित करती है। साथ ही, यह सुनिश्चित करती है कि वादी को न तो अत्यधिक शुल्क देना पड़े और न ही वह अपने अधिकारों से वंचित रहे।
इस धारा का संबंध धारा 38 और धारा 45 से भी जुड़ता है, जो डिक्री निरस्तीकरण और अन्य प्रकार के वादों में शुल्क निर्धारण से संबंधित हैं। इन धाराओं का आपसी तालमेल यह स्पष्ट करता है कि अधिनियम का ढांचा एक सुनियोजित और न्यायपूर्ण प्रणाली की स्थापना करता है।
न्यायिक उदाहरण
मान लीजिए कि किसी किसान की ज़मीन ₹20 लाख मूल्य की है, और किसी विवाद के चलते राजस्व न्यायालय द्वारा ₹5 लाख की देनदारी के तहत उसकी ज़मीन की कुर्की कर दी गई। यदि किसान उस कुर्की को रद्द करवाने के लिए वाद करता है, तो न्याय शुल्क ₹5 लाख या ₹5 लाख (₹20 लाख का एक-चौथाई) — इन दोनों में जो कम है, यानी ₹5 लाख पर लगेगा। यदि देनदारी ₹3 लाख होती, तो शुल्क ₹3 लाख पर लगता।
इस प्रकार धारा 39 के माध्यम से न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि किसी व्यक्ति की संपत्ति पर लगे किसी अवरोध (Obstruction) को हटवाने का कानूनी रास्ता उपलब्ध हो और इसके लिए न्याय शुल्क न्यायसंगत और व्यावहारिक रूप से निर्धारित हो। यह धारा वादियों को उनकी संपत्ति पर अधिकार वापस दिलाने की दिशा में एक आवश्यक कानूनी साधन प्रदान करती है।