एक्सप्लेनरः धारा 144 सीआरपीसी लगाने के आधार क्या हैं?
LiveLaw News Network
21 Dec 2019 1:00 PM IST
इन दिनों ' धारा 144 सीआरपीसी' की खासी चर्चा हो रही है। हाल ही में संसद से पास नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ बड़े पैमाने पर हो रहे विरोध पर लगाम लगाने के लिए देश् भर में पुलिस ने धारा 144 का इस्तेमाल किया है।
उत्तर प्रदेश की तकरीबन आबादी 20 करोड़ है और पुलिस ने बीते दिनों पूरे सूबे पर धारा 144 लगा दी थी। यूपी डीजीपी ने ये जानकारी ट्विटर पर दी थी। बेंगलुरु के पुलिस आयुक्त ने धारा 144 लगाने को सही ठहराते हुए कहा कि जब दूसरों को 'असुविधा' हो तो मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाया जा सकता है।
क्या है 'खूंखार' धारा 144
सीआरपीसी की धारा 144 डिस्टिक्ट मजिस्ट्रेट, सब-डीविजनल मजिस्ट्रेट या किसी अन्य कार्यकारी मजिस्ट्रेट को राज्य सरकार की ओर से किसी विशेष स्थान या क्षेत्र में एक व्यक्ति या आम जनता को "विशेष गतिविधि से दूर रहने " या "अपने कब्जे या प्रबंधन की किसी संपत्ति के संबंध में कोई आदेश लेने के लिए" आदेश जारी करती है।
धारा 144 लगाने का आदेश "मजिस्ट्रेट" निम्न स्थितियों पर रोक लगाने के लिए दे सकता है-
1-किसी भी व्यक्ति को कानूनी रूप से नियोजित करने में बाधा हो, परेशानी हो या चोट आने की आशंका हो
2-मानव जीवन को, स्वास्थ्य और सुरक्षा पर संकट हो
3- अशांति, दंगा या उत्पीड़न की आशंका हो।
यह आदेश एक विशेष व्यक्ति या आम जनता के खिलाफ पारित किया जा सकता है। एक पक्षीय आदेश भी पारित किया जा सकता है।
तो, क्या धारा 144 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग एक कार्यकारी अधिकारी किसी खतरे की अशंका के आधार पर महज व्यक्तिगत संतुष्टि के लिए कर सकता है?
उक्त प्रश्न का हल ढूंढ़ने से पहले यह ध्यान में रखना जरूरी है कि धारा 144 के तहत दिए गए आदेश संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए), (बी) और (सी) के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों मसलन अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता, एक जगह जुटने और प्रदर्शन के अधिकार का हनन करते हैं।
इसलिए धारा 144 के तहत दिए गए आदेशों को अनुच्छेद 19 के अनुसार "उचित प्रतिबंध" की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए।
यह पता लगाने के लिए कि प्रतिबंध अनुच्छेद 19 के तहत दी गई स्वतंत्रता की कसौटी पर उचित है या नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने "अनुपातिकता का परीक्षण" विकसित किया है। मॉडर्न डेंटल कॉलेज केस (2016) में संविधान पीठ के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रतिबंध लगाने वाले कानून को आनुपातिक माना जाएगा:
1-यह एक उचित उद्देश्य को पाने के लिए हो, और
2-यदि उद्देश्य का पाने के लिए किए गए उपाय तर्कसंगत रूप से उद्देश्य से जुड़े हों, और
3-यदि इस तरह के उपाय जरूरी हों।
पुट्टस्वामी मामले (2017) में, सुप्रीम कोर्ट ने आनुपातिकता निर्धारित करने के लिए 'फोर-फोल्ड टेस्ट' किया:
(a) एक अधिकार को सीमित करने वाले उपाय लक्ष्य वैध हों (वैध लक्ष्य चरण)।
(b) लक्ष्य को आगे बढ़ाने का उपयुक्त साधन होना चाहिए (उपयुक्तता या औचित्य संबंध चरण)।
(c)कोई कम प्रतिबंधात्मक लेकिन समान रूप से प्रभावी विकल्प नहीं होना चाहिए (आवश्यकता चरण)।
(d)उपाय का अधिकार उपभोक्ताओं पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं होना चाहिए (संतुलन चरण)।
इस प्रकार धारा 144 सीआरपीसी के तहत पारित आदेशों की वैधता का परीक्षण 'तर्कशीलता' और 'आनुपातिकता' के इन सिद्धांतों के आधार पर किया जाएगा।
वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी ने अपनी रिसर्च 'फ्रीडम टू असेंबली एंड फ्रीडम ऑफ एसोसिएशन' में लिखा है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1), (बी) और (सी) के विरोधाभासी दृष्टिकोण और सीआरपीसी की धारा 144 "औपनिवेशिक विरासत का एक प्रतिबिंब है और समकालीन भारतीय राज्य द्वारा 1872 की दंड प्रक्रिया संहिता के अधिकांश प्रावधानों को निर्विवाद रूप से अपना लिया गया है।
खतरे की संभावना मात्र धारा 144 लगाने की आधार नहीं
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि मात्र खतरे की आशंका के आधार पर धारा 144 सीआरपीसी लागू करके नागरिकों के अधिकारों पर रोक नहीं लगाई जा सकती है। 'संभावना' या 'प्रवृत्ति' नहीं 'आसन्न' खतरे की स्पष्ट आशंका होनी चाहिए।
बाबूलाल परते बनाम महाराष्ट्र राज्य (1961) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि धारा 144 का उपयोग खतरे की प्रत्याशा में भी किया जा सकता है, हालांकि ये पर्याप्त सामग्रियों पर आधारित होना चाहिए, सार्वजनिक सुरक्षा के लिए किसी गतिविधि पर तत्काल रोक लगाने की आवश्यकता को जरूरी बताते हों।
"धारा में निर्धारित परीक्षण केवल 'संभावना' या 'प्रवृत्ति' नहीं है। धारा कहती है कि मजिस्ट्रेट को संतुष्ट होना चाहिए कि सार्वजनिक सुरक्षा पर आसन्न खतरे को रोकने के लिए विशेष कृत्यों पर तत्काल रोकथाम आवश्यक है। धारा के तहत प्रदत्त शक्तियां खतरा मौजूद होने की स्थिति में भी प्रयोग होंगी और खतरे की आशंका होने पर भी।"
मधु लिमये बनाम एसडीएम (1970) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 144 की संवैधानिकता को ये कारण देते हुए बरकरार रखा कि उसने 'सार्वजनिक व्यवस्था के हित में' उचित प्रतिबंध की व्यवस्था की। हालांकि, अदालत ने कहा कि इस शक्ति का प्रयोग केवल आकस्मिक और जरूरी स्थितियों में ही किया जाना चाहिए:
"धारा 144 के तहत कार्रवाई का आधार स्थिति की तात्कालिकता है और कुछ हानिकारक घटनाओं को रोकने में सक्षम होने की प्रभावकारिता है।"
रे-रामलीला मैदान मामले (2012) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
"केवल आशंका के मामले में, बिना किसी भौतिक तथ्यों के, जो ये बता सके कि कि आशंका आसन्न और वास्तविक है, अधिकारियों के लिए ये उचित नहीं है कि वो नागरिक के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाए।"
जैसा कि रे रामलीला हादसा प्रकरण में बताया गया है, धारा 144 के तहत आदेश की आवश्यक शर्तें हैं:
(1) यह एक कार्यकारी शक्ति है जो अधिकारी में निहित होती है;
(2) कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार मौजूद होना चाहिए;
(3) तत्काल रोकथाम या शीघ्र उपाय वांछनीय है; तथा
(4) एक आदेश, लिखित रूप में, भौतिक तथ्यों को बताते हुए पारित किया जाना चाहिए और संबंधित व्यक्ति पर उसी तरह से कार्य किया जाना चाहिए।
इस मामले में, अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर लगाए गए प्रतिबंधों के समर्थन में कारण और भौतिक तथ्य मौजूद नहीं है। न्यायालय ने प्रदर्शनकारियों पर पुलिस कार्रवाई को अवैध बताते हुए कहा कि:
"पुलिस यह स्थापित करने में विफल रही है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि जहां हस्तक्षेप करने की आवश्यकता थी"।
अदालत ने पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने आदेश दिया और उन लोगों को मुआवजा देने का आदेश दिया जो पुलिस कृत्यों के कारण पीड़ित हुए थे।
इसलिए, उपरोक्त निर्णय, जब आनुपातिकता के सिद्धांत के साथ पढ़े जाते हैं, इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि धारा 144 के तहत आदेश केवल तभी दिया जा सकता है, जब साबित करने के लिए निम्न कारण हों:
1-यह खतरा तत्काल है।
2-तत्काल खतरे को रोकने के लिए प्रतिबंध आवश्यक हैं।
इसके अलावा, प्रतिबंध बिल्कुल आवश्यक होना चाहिए, और जितना संभव हो उतना कम आक्रामक होना चाहिए, खतरे के अनुपात में होना चाहिए। इसका मतलब है कि अगर खतरे से बचने के लिए कम प्रतिबंधात्मक साधन हैं, तो उन्हें अपनाया जाना चाहिए।
इसका अर्थ यह भी है कि केवल सार्वजनिक विरोध को दबाने के इरादे से पारित किए गए प्रतिबंध के व्यापक आदेश कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने शायरा बानो बनाम भारत संघ और अधीक्षक, केंद्रीय कारागार बनाम राम मनोहर लोहिया के मामलों में कहा है कि एक राजकीय कार्रवाई जो तर्कहीन रूप है या पर्याप्त निर्धारण सिद्धांत के बिना की गई है, प्रकट रूप से मनमानी है और राज्य केवल भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तभी प्रतिबंध लगा सकता है यदि वह भाषण और सार्वजनिक व्यवस्था के बीच एक करीबी संबंध देख रहा हो।