SC/ST Act का विस्तार क्षेत्र

Shadab Salim

5 May 2025 1:03 PM IST

  • SC/ST Act का विस्तार क्षेत्र

    एक मामले में यह तर्क किया गया था कि किसी व्यक्ति को उसकी उपस्थिति के बिना बोर्ड पर यह प्रदर्शित करके भी अपमानित किया जा सकता है कि अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति से सम्बन्धित लोगों को किसी स्थान में प्रवेश करने के लिए अनुज्ञात नहीं किया जायेगा, को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है, इसके कारण कोई कृत्य सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 7 (1) (घ) को आकर्षित करते हुए अस्पृश्यता के आधार पर अपमान, न कि वर्ष 1989 को अधिनियम संख्यांक 33 की धारा 3 (x) के अधीन यथा अनुचिंतित अपमान हो सकता है।

    अधिनियम की धारा 3 (1) (x) तब प्रयोज्य होती है, जब कोई व्यक्ति साशय जनता को दृष्टिगोचर किसी स्थान में अनुसूचित जातियों अथवा अनुसूचित जनजातियों के किसी सदस्य को अपमानित अथवा अभिप्रासित करता है। अधिनियम विशेष अधिनियमिति है, जो अनुसूचित जातियों अथवा अनुसूचित जनजातियों के सदस्य के विरुद्ध अत्याचारों को दण्डित करने के लिए आशयित है।

    रवीन्द्र कुमार मिश्रा बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश के प्रकरण में परिवादी के विरुद्ध आवेदक पर उपारोपित दुरुपयोग के शब्द केवल 'मूर्ख' और 'नासमझ' हैं, जिनका उस समाज से कोई सम्बन्ध नहीं है और इन शब्दों से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि अपमान अथवा अभित्रास उस समाज के संदर्भ में है, जिससे परिवादी सम्बन्धित है। इसलिए अधिनियम की धारा 3 (1) (x) के अधीन आरोप अपास्त किया गया।

    यह अभिनिर्धारित किया गया कि अधिनियम के अधीन दण्डनीय अपराध केवल उस व्यक्ति पर, जो अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के सदस्य से सम्बन्धित न हो, उपारोपित किया जा सकता है, चूंकि वर्तमान मामले में, याचीगण अनुसूचित जाति समुदाय से सम्बन्धित थे, इसलिए प्रावधान आकर्षित नहीं होगा अत्याचार निवारण अधिनियम के अधीन अपराध से सम्बन्धित प्रथम सूचना रिपोर्ट में परिवाद, जहाँ तक यह याचीगण से सम्बन्धित है, अभिखण्डित किये जाने के लिए दायी था।

    अपीलार्थीगण की विधिविरुद्ध जमाव बनाये जाने के कारण दोषसिद्धि विधि में अन्यायसंगत है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम, 1999 के अधीन भी कोई मामला नहीं बनता है, क्योंकि अपीलार्थीगण का कृत्य किसी जाति के आधार पर नहीं किया गया था और यह शुद्ध सिविल विवाद के कारण होना प्रतीत होता है। इसलिए अपीलार्थीगण दोषमुक्त किये जाने के हकदार हैं।

    शब्दों "और ऐसे मामले में, जहाँ अभियुक्त उस क्षेत्र के परे, जिसमें वह अपनी अधिकारिता का प्रयोग करता है, के स्थान में निवास कर रहा हो" को दिनांक 23.6.2006 से प्रभावी दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम (केन्द्रीय अधिनियम 25 वर्ष 2005) के द्वारा अन्तः स्थापित किया गया था। विधायिका की राय में उक्त संशोधन आवश्यक था, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों, जो दूर स्थानों पर निवास कर रहे थे, को उन्हें परेशान करने के लिए उनके विरुद्ध मिथ्या परिवाद दाखिल किए गये थे। मिथ्या परिवाद दूर स्थान पर निवास करने वाले व्यक्तियों को उन्हें मात्र परेशान करने के लिए उनके विरुद्ध दाखिल किए गये थे।

    यह देखने के लिए कि निर्दोष व्यक्तियों को अविवेकहीन व्यक्तियों के द्वारा परेशान न किया जाय, यह खण्ड मजिस्ट्रेट पर यह बाध्यकारी बनाते हुए धारा 202 की उपधारा (1) संशोधन की माँग करता है कि अपनी अधिकारिता के परे निवास करने वाले अभियुक्त को समन करने के पहले वह स्वयं यह जानने के लिए मामले की जाँच करेगा अथवा पुलिस अधिकारी के द्वारा अथवा ऐसे अन्य व्यक्ति के द्वारा, जैसे वह उपयुक्त समझे, अन्वेषण के लिए निर्देशित करेगा कि क्या अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार था अथवा नहीं।

    भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 (ख) आपराधिक षड़यंत्र के लिए दंड का वर्णन करती है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 109 दुष्प्रेरण के लिए दण्ड का वर्णन करती है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 (ख), जो आपराधिक षड़यंत्र के लिए दण्ड का वर्णन करती है, जो स्पष्ट रूप में यह दर्शाती है कि दोषसिद्धि और दण्डादेश ऐसे मामले में प्रदान किया जाना है, जिसमें अभियुक्त के विरुद्ध षड्यंत्र से सम्बन्धित आरोप अभियोजन के द्वारा सशक्त और विश्वसनीय साक्ष्य के माध्यम से साबित होता है। इसी प्रकार, भारतीय दण्ड संहिता को धारा 302 ऐसे दुष्प्रेरण का वर्णन करती है, जिसके लिए दुष्प्रेरण के आरोप को अभियुक्त के साबित करने पर दोषसिद्धि और दण्डादेश प्रदान किया जाना हो।

    इस अधिनियम की धारा 3 (1) (x) और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 509 के अधीन अपराध के मामले में, जहाँ अभियोजन अभियुक्त के द्वारा कथित कतिपय शब्दों पर स्थित था, जो वास्तव में, वे शब्द थे जो सर्वोपरि महत्व के होंगे। वे शब्द इसके बारे में सुझाव देंगे कि क्या अभियुक्त अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के उक्त सदस्य को अपमानित करने का आशय रखता था, अथवा, जैसी भी स्थिति हो, ऐसे सदस्य की लज्जा भंग करने का आशय रखता था।

    जब उन शब्दों से सम्बन्धित प्रकथन में गंभीर मतभेद हो, तब अभियोजन मामला अपेक्षाकृत संदेहास्पद हो जाता है। यह ऐसा नहीं है, मानो शब्द ऐसे हों, जिन्हें शब्दशः साबित किया गया जाना हो। तथापि, कम-से-कम अभियोजन को यह साबित करना चाहिए कि वास्तव में क्या कहा गया था और क्या जो वास्तव में कहा गया था, जाति के नाम से उसे अपमानित करने के विचार से किया गया था।

    राजेन्द्र सिंह बनाम स्टेट आफ उत्तराखण्ड, 2014 क्रि० लॉ ज० 1959 के मामले में यह तर्क किया गया कि हालांकि प्रथम सूचना रिपोर्ट की अंतर्वस्तुओं को सत्य होना स्वीकार किया गया था, फिर भी आवेदकगण के विरुद्ध अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3 (1) (x) का कोई आवश्यक तत्व प्रथम दृष्टया इस अर्थ में नहीं बनता था कि इत्तिलाकर्ता ने यह कहीं नहीं कहा कि अभियुक्तगण उन शब्दों का प्रयोग जानबूझ करके उसे अपमानित करने के आशय से किये थे कि वह अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के समुदाय से सम्बन्धित है। आवेदकगण के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323, 504, 506, 120 ख के अधीन अपराध का आधार प्रस्तुत किया गया था, परन्तु धारा 3 (1) (x) के अधीन कोई मामला नहीं बनता है। इसलिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन आवेदन को धारा 3 (1) (x) के अपवर्जन की सोमा तक आंशिक रूप से अनुज्ञात किया गया।

    अभियुक्त का आशय का विचारण:- जहाँ तक अधिनियम, 1989 की धारा 3 (1) (x) के अधीन अपराध का सम्बन्ध है, यह उस अपराधी, जो अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति का सदस्य न हो, के द्वारा अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के सदस्य को सार्वजनिक दृष्टि के भीतर किसी स्थान में उसे अपमानित करने के आशय ये साशय अपमान अथवा अभित्रास को अपेक्षा करता है। प्रथम सूचना रिपोर्ट १ व्यक्तियों को इंगित करती है और यदि एक व्यक्ति को प्रकीर्ण वाद संख्या 497 वर्ष 2017 दाखिल करने को दृष्टि में अपवर्जित किया जाता है, तब इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। न्यायिक अवेक्षा कार्यालयीय समय के दौरान जिला विद्यालय निरीक्षक के स्टॉफ को उपस्थिति के सम्बन्ध में ली जा सकती है। अन्वेषण के अनुक्रम के दौरान अभिलिखित किए गये साक्षियों के कथन प्रथम सूचना रिपोर्ट में प्रकथित तथ्यों को सम्पुष्ट करते हैं।

    सभी साक्षीगण उन्हें साशय अपमानित तथा अभित्रासित करने के सम्बन्ध में कथन किए हैं और वे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यगण हैं। याची के द्वारा 'कोली जाति' और 'बौरी' जैसे कुछ इत्तिलाकर्ताओं की विनिर्दिष्ट जाति के नामों का प्रयोग न करना थोड़ा अन्तर करता है। वह पाठ तथा संदर्भ, जिसमें भाषा का प्रयोग किए जाने का कथन किया गया है, प्रथम दृष्टया प्रयोग करने वाले व्यक्ति का इत्तिलाकर्तागण को अपमानित करने का आशय प्रदर्शित करता है। यदि कोई व्यक्ति भवन के भीतर अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के सदस्य को अपमानित करने के विचार से टिप्पणी अथवा प्रकथन करता है, तब वह अभियोजित किए जाने के लिए दायी होगा, परन्तु ऐसी टिप्पणियाँ अथवा प्रकथन या तो जनता को दृश्यमान हों या उन्हें श्रव्य हों।

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