अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :3 एकपक्षीय अभिकथन, अपराध का संज्ञान लेने की अधिकारिकता और अश्लील कृत्य (धारा-3)

Shadab Salim

18 Oct 2021 5:11 AM GMT

  • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :3 एकपक्षीय अभिकथन, अपराध का संज्ञान लेने की अधिकारिकता और अश्लील कृत्य (धारा-3)

    अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989) के अंतर्गत इससे पूर्व के भाग में धारा तीन से संबंधित कुछ विशेष बातों को उल्लेखित किया गया था तथा धारा 3 का मूल स्वरूप प्रस्तुत किया गया था। इस आलेख के अंतर्गत अन्य विशेष बातें को भी प्रस्तुत किया जा रहा है जो इस धारा से संबंधित है।

    न्यूनतम दण्डादेश पर विधि अधिनियम की धारा 3 (1) ऐसी अवधि के लिए दण्ड का प्रावधान करती है, जो 6 मास से कम की नहीं होगी, परन्तु जो 5 वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने के साथ हो सकेगी। इसलिए, केवल प्रश्न यह है कि क्या उच्च न्यायालय संविधि के द्वारा अनुचिन्तित न्यूनतम दण्ड से कम दण्डादेश प्रदान कर सकता है। जहाँ न्यूनतम दण्डादेश का प्रावधान किया गया हो, वहाँ न्यायालय न्यूनतम दण्डादेश से कम दण्डादेश अधिरोपित नहीं कर सकता है। यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 142 के प्रावधानों का आश्रय न्यूनतम दण्डादेश से कम दण्डादेश अधिरोपित करने के लिए नहीं लिया जा सकता है।

    दण्डादेश की कमी पर टिप्पणी:-

    अपीलार्थी उसे प्रदान किए गये तीन मास में से एक मास का जेल का दण्डादेश पहले ही भुगत चुका है, दूसरा यह तथ्य कि प्रश्नगत घटना बहुत पुरानी है और क्षण में घटित होने के लिए प्रतीत होती है, तोसरा अपीलार्थी का उसके अतीत के जीवन में कोई आपराधिक इतिहास नहीं है और अन्ततः वह प्रश्नगत घटना के सिवाय किसी अन्य दाण्डिक मामले में वांछित नहीं है, जिसे अपीलार्थी ने कारित करने के लिए स्पष्ट रूप में इन्कार नहीं किया था और सही तौर पर अपनी दोषसिद्धि को चुनौती नहीं दिया था, इसलिए अपीलार्थी को प्रदान किए गये जेल के दण्डादेश को तीन मास से एक मास की उस अवधि की सीमा तक, जिसे उसके द्वारा पहले ही भुगता गया है, परिवर्तित करना न्यायसंगत और उचित होगा तथा इसके बजाय विभिन्न धाराओं के अधीन उसे प्रदान की गए जुर्माने की कुल धनराशि को 800 रुपये से 15,000 रुपये तक बढ़ाया जाता है।

    अ० जा०/अ० जन० के पीड़ित सदस्य को बिना किसी विलम्ब के, चाहे जो कुछ भी हो, 2016 द्वारा संशोधित अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति नियम, 1995 का संलग्नक 1 के प्रावधानों के अनुसार मुआवजा अथवा अन्य तात्कालिक अनुतोष प्रदान करने पर कोई रोक नहीं है। दण्ड संहिता अथवा किसी अन्य विधि के किसी प्रावधान के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट के पंजीकरण पर भी कोई रोक नहीं है तथा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अपराध को, यदि आवश्यक हो, बाद में जोड़े जाने पर भी कोई रोक नहीं है। इस प्रकार मुआवजे, विचारण, दण्ड अथवा अन्यथा से सम्बन्धित अ० जा०/अ० जन० अधिनियम के किसी प्रावधान की कोई शिथिलता नहीं है। आदेश गिरफ्तारी की शक्ति के केवल दुरुपयोग को अथवा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के अधिकारों को किसी भी रीति में प्रभावित किए बिना निर्दोष व्यक्तियों के मिथ्या फंसाव को केवल संरक्षित करता है।

    अधिनियम की धारा 18 के अधीन रोक के बावजूद उच्च न्यायालय के द्वारा अग्रिम जमानत की मंजूरी-

    यह अभिनिर्धारित किया गया कि स्वयं परिवाद में इन विनिर्दिष्ट प्रकथनों:-

    (क) यह कि याची अभियुक्त अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से सम्बन्धित नहीं है;

    (ख) यह दर्शाने के लिए किसी सामग्री के अभाव में कि आशयित अपमान अथवा अभिवास केवल "अपमानित करने के आशय से किया गया था, और

    (ग) "अपमानित करने" के लिए ऐसा आशयित अपमान अथवा अभित्रास जनता को दृष्टिगोचर किसी स्थान में किया गया था, के अभाव में, इस प्रक्रम पर सुरक्षित रूप से यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि प्रथम दृष्टया यह अभिनिर्धारित करने के लिए कोई सामग्री नहीं है कि याचीगण अधिनियम की धारा 3 (1) (x) के अधीन अपराध कारित किये हैं, और इसके कारण उच्च न्यायालय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 18 के अधीन रोक के बावजूद याचीगण के द्वारा दंंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अधीन दाखिल किये गये आवेदन पर विचार कर सकता है।

    अनुसूचित जाति की महिला पर अत्याचार के दुष्प्रेरण के लिए सह-अभियुक्त का अपराध-साबित नहीं मामले में सह-अभियुक्त, अभियुक्त द्वारा दिये गये उपहार को अभियोक्त्री को दिया करता था और इस बात का कोई साक्ष्य नहीं था कि सह-अभियुक्त उसके अनुसूचित जाति के होने का और अभियोक्त्री एवं अभियुक्त के बीच चल रहे लैंगिक संभोग का ज्ञान रखता था। इन तथ्यों के आलोक में न्यायालय ने यह अवधारित किया कि सह-अभियुक्त ने बलात्संग का अपराध कारित करने का दुष्प्रेरण नहीं किया था और सह-अभियुक्त दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता था।

    अभियुक्त की दोषमुक्ति:-

    उत्तर प्रदेश राज्य बनाम आशीष उर्फ आशु 2015 (1) ACR 6711 के मामले में कहा गया है यदि अभियुक्तों का कथन अविश्वसनीय, अस्वाभाविक तथा विश्वास के अयोग्य पाया गया हो, तब अभियुक्त को विचारण न्यायालय के द्वारा सही तौर पर दोषमुक्त किया गया।

    सम्मतिजनक लैंगिक समागम:-

    धारा 3 की प्रयोज्यता जहाँ कि समागम अनुसूचित जाति की महिला के साथ उसकी सम्मति से किया गया था वहाँ यह नहीं कहा जा सकता था कि लैंगिक संभोग उसके साथ उसके अनुसूचित जाति की होने की दृष्टि से किया गया था।

    दोषसिद्धि अनुचित:-

    जहाँ कि लैंगिक समागम महिला की सम्मति से या और अभियुक्त को यह ज्ञात था कि अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति को भी वहाँ यह नहीं कहा जा सकता है कि अनुसूचित जाति की महिला के साथ संभोग बदला लेने की दृष्टि से किया गया था और इसलिए दोषसिद्धि अपास्त की गयी।

    कमियों का विचारण :

    वर्तमान मामले के तथ्यों पर बिना किसी हिचकिचाहट के यह कहा जा सकता है कि अभियोजन सशक्त और विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत करके अभिकथित अपराध को साबित करने में विपन्न रूप में विफल हुआ है। अन्य शब्दों में वर्तमान मामला मुख्य अभियोजन साक्षियों के साक्ष्य अनेक विरोधों के साथ अस्थिर तथा कमजोर चरण पर आधारित है। पुनः अधिकांश अभियोजन साक्षीगण विद्रोही हो गये हैं और अभियोजन मामले का कोई स्वतन्त्र साक्षी समर्थन नहीं किया है।

    रूचिकर रूप में, कोई पहचान परीक्षण परेड नहीं करायी गयी थी, यद्यपि अभियोजन साक्ष्य 1 यह कहता है कि यह अभियुक्त को चेहरे के द्वारा पहचान सकता है, प्रारम्भ में अभियुक्त के रूप में केवल पांच व्यक्ति नामित किए गये थे, परन्तु उत्पश्चात् कुल 11 व्यक्ति आरोपित किए गये थे और उनमें से अधिकांश को अवर न्यायालय के द्वारा पहले हो दोषमुक्त कर दिया गया है।

    अभिलेख पर सामग्रो यह दर्शाती है कि अभियुक्त के कब्जे से लाठी (डंडा) भी बरामद किया गया था, परन्तु यह दर्शाने के लिए कोई साक्ष्य नहीं था कि पीड़ित व्यक्ति के विरुद्ध हमले में लाठी से प्रहार कौन किया था। अभियोजन साक्ष्य 5 के अनुसार अभियुक्तों में से कोई लाठी से हमला नहीं किया था। अवर न्यायालय अभियोजन साक्ष्य 1 और 5 के साक्ष्य में विरोधों और कमियों पर विचार करने में विफल हुए हैं।

    उनके जो मुख्य साक्षीगण हैं, के कथनों में वर्तमान अभियुक्त के द्वारा निभायी गयो भूमिका के बारे में कोई सम्पुष्टि नहीं यो शव परीक्षा रिपोर्ट तथा अभियोजन साक्ष्य 7 (डॉक्टर निलय जैन) का साक्ष्य पीड़ित व्यक्ति के द्वारा ऐसी किसी उपगत क्षति को प्रकट नहीं करता है, जो घूंसों, तमाचों और पैरों के द्वारा पिटाई से परिणामित हुई हो, क्योंकि क्षति दृश्यमान नहीं है।

    अभियोजन पीड़ित व्यक्ति पर आक्रमण करने के लिए बड़ी संख्या में हमलावरों को अभियुक्त बनाया था, परन्तु साक्षीगण, यद्यपि उनके साक्ष्य कमियों से भरे हैं, फिर ये इसके बारे में बताने में समर्थ नहीं हो सके थे कि वर्तमान अपीलार्थीगण मृतक पर उसकी मृत्यु को अग्रसर करते हुए क्षतियां कैसे कारित की गई थी। ऐसे परिदृश्य में अपीलार्थीगण को दोषसिद्ध करना न्याय के हित में नहीं होगा, क्योंकि दाण्डिक विचारण में सबूत का मापदण्ड युक्तियुक्त संदेह से परे सबूत होता है और अभियोजन उन मापदण्डों में अभियुक्त के दोष को साबित नहीं कर सका था।

    रिक्तियों और कमियों का महत्व इस तथ्य के बारे में कोई विवाद नहीं है कि अभियोजन मामले को साबित करने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर विश्वास व्यक्त करता है। यह उल्लेख किया जा सकता है कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य का मूल्य उसके संचयी प्रभाव पर स्थित होता है, अर्थात् परिस्थितिजन्य साक्ष्य का एकल भाग हल्के से केवल इस सम्भावना को बढ़ा सकता है कि अभियुक्त दोषी है, जबकि अनेक ऐसे साक्ष्य को एक साथ लेने पर यह दोषसिद्धि का न्यायसंगत ठहराने के लिए पर्याप्त प्रमाणक बल ले जा सकता है, यदि ऐसा परिस्थितिजन्य साक्ष्य इस प्रकार संयाचित केवल एक परिकल्पना में परिणामित घटनाओं की अभंग श्रृंखला को बनाता है।

    भास्करराव एवं अन्य दिलीप उत्तमराव मनकार एवं एक अन्य लक्ष्मण भाऊराव भगत, बाबाराव लक्ष्मणराव आधव, प्रभाकर मारूति महादेवराव कोसारे; रविन्द्र एवं एक अन्य विष्णु भाऊराव भगत एवं एक अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य, AIR 2018 SC 2222 के मामले में अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही गई है:-

    अभियुक्त वास्तव में अपराध का प्रतिनिधित रूप में दोषी होता है, यद्यपि वह अपराध कारित करने में प्रत्यक्ष रूप में लिप्त न हो, परन्तु वह अन्य अभियुक्त के द्वारा कारित किया गया हो, यदि उसे उसके सामान्य उद्देश्य में भाग लेते हुए विधि विरुद्ध जमाव का सदस्य होना साबित किया गया हो। यह स्पष्ट है कि अ० सा० 1 (मृतक की पत्नी) परिवादिनी के अनुसार प्रथम सूचना रिपोर्ट (प्रदर्श 55) में उसके द्वारा ऐसे अनेक व्यक्तियों का उल्लेख किया गया था, जो उसके घर में घुसे हैं, वे संख्या में चार थे, जबकि 20 से 25 व्यक्ति घर के बाहर एकत्र हुए थे और उनमें से सभी मृतक पर हमला किए थे। लेकिन मुख्य परीक्षा में उसने यह अभिसाक्ष्य दिया था कि कुल 15 हमलावर थे, जो उसके पति पर आक्रमण किए थे। यद्यपि वह अपने अभिसाक्ष्य में हमलावरों का नाम बताने में विफल हुई थी, फिर भी उसने यह बताया था कि वह सभी हमलावरों को जानती थी।

    अभियोजन साक्षियों के कथनों में सुधारों और विरोधों के साथ अभियोजन मामले में पूर्वगामी रिक्तियों तथा कमियों का उल्लेख करते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्तगण वास्तविक रूप में विधि विरुद्ध जमाव गठित किए थे और मृतक पर हमला किए थे, वह भी मार के आशय से हमला किए थे, जिससे कि दाण्डिक विधि के प्रावधानों को आकर्षित किया जा सके। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में यह पर्याप्त रूप में स्पष्ट है कि अभियुक्त का दोष युक्तियुक्त संदेह से परे साबित नहीं हुआ था।

    सर्वोच्च न्यायालय का यह विचारित विचार है कि विचारण न्यायालय ने मामले पर 11 महत्वपूर्ण परिस्थितियों पर विचार करते हुए शुद्ध रीति में विचार किया है और भलीभांति कारणयुक्त निर्णय प्रदान किया है, तद्द्द्वारा अभियुक्त को दोषमुक्त किया है, जिसमें उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था। हमारे विचार में उच्च न्यायालय के लिए विचारण न्यायालय के द्वारा पारित की गयी दोषमुक्ति के आदेश में हस्तक्षेप करने के लिए कोई विवशकारी कारण तथा सारवान आधार नहीं हैं।

    एकपक्षीय अभिकथन:-

    अज्ञानता- इस प्रतिपादना में कोई विवाद नहीं हो सकता है कि किसी जाति से सम्बन्धित किसी व्यक्ति के द्वारा मात्र उस समय एकपक्षीय अभिकथन, जब ऐसा अभिकथन स्पष्ट रूप में अभिप्रेरित तथा मिथ्या हो, किसी व्यक्ति को स्वतन्त्र सन्निरीक्षण के बिना उसकी स्वतन्त्रता से वंचित करने के लिए पर्याप्त नहीं समझा जा सकता है।

    इस प्रकार, अग्रिम जमानत के लिए प्रावधान के अपवर्जन को संभाव्यतः किसी युक्तियुक्त निर्वाचन के द्वारा उस समय प्रयोज्यनीय नहीं हो सकता है, जब कोई मामला नहीं बनता है अथवा अभिकथन अभिव्यक्त रूप में मिथ्या अथवा अभिप्रेरित हो। यदि ऐसा निर्वाचन नहीं किया जाता है, तब लोक सेवकों के लिए अपने सद्भावपूर्वक कार्यों को करना कठिन हो सकता है और दिए गये मामलों में उन्हें अत्याचार अधिनियम के अधीन पंजीकृत किए जाने वाले मिथ्या मामले की धमकी से विधि की किसो संरक्षण के बिना ब्लैकमेल किया जा सकता है।

    यह सभ्य समाज में परिदृश्य नहीं हो सकता है। इसी प्रकार गैर-लोक सेवक को भी अपने सिविल अधिकारों को समर्पण करने के लिए ब्लैकमेल किया जा सकता है। यह विधि का आशय नहीं है। ऐसी विधि न्यायिक सन्निरीक्षण पर खरी नहीं उतर सकती है। यह अनुसरित को जाने वाली निष्पक्ष और युक्तियुक्त प्रक्रिया के गारण्टीकृत मौलिक अधिकारों के परे होगी, यदि व्यक्ति को उसके प्राण तथा स्वतन्त्रता से वंचित किया जाता है।

    अधिनियम के अधीन अपराध का संज्ञान लेने की अधिकारिता:-

    जहां कि एक मामले में परिवाद मजिस्ट्रेट के समक्ष उक्त अधिनियम के अधीन अपराध करने का अभिकथन करते हुए दाखिल किया जाता है लेकिन यह अधिनियम के अधीन सशक्त विशेष न्यायाधीश के समक्ष संस्थित नहीं किया जाता है वहाँ न्यायालय ने यह धारित किया है कि अधिनियम के अधीन सशक्त मजिस्ट्रेट से अन्यथा मजिस्ट्रेट अधिनियम के अधीन अपराध का संज्ञान लेने के लिए अधिकारिता नहीं रखता है।

    कार्यवाही आरम्भ करने के लिए हकदार व्यक्ति अधिनियम के अन्तर्गत कार्यवाही अनुसूचित जाति समुदाय के सदस्य द्वारा आरम्भ की जा सकती है। ईसाई समुदाय का व्यक्ति अधिनियम के अन्तर्गत कार्यवाही आरम्भ करने का हकदार नहीं है।

    मामले का अन्वेषण करने के लिए सक्षम प्राधिकारी अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) नियम, 1995 का नियम 7 यह उपबन्ध करता है कि सक्षम अन्वेषण प्राधिकारी पुलिस उपाधीक्षक से अनिम्न श्रेणी का पुलिस अधिकारी होगा जबकि इस मामले में मामला पुलिस क्षेत्र निरीक्षक द्वारा अन्वेषित किया गया था, इस तरह, अन्वेषण प्रावधान के अनुरूप नहीं था एवं अपास्त किये जाने योग्य है।

    अधिनियम के अन्तर्गत अपराध का किया जाना:-

    जहाँ कि एक व्यक्ति उसकी जाति से सम्बोधित किया जाता है लेकिन यथाकथित व्यक्ति के अपमान करने का कोई आशय नहीं है, तब ऐसी पुकार अधिनियम के अन्तर्गत किसी अपराध का गठन नहीं करेगी। अग्रेतर कि जहाँ भद्दे शब्दों का प्रयोग साक्ष्य में दर्शित नहीं किया जाता है उन शब्दों को यह नहीं कहा जायेगा कि कोई अपराध गठित करते हैं।

    अश्लील कृत्य और गाने के आवश्यक तत्व:-

    भारतीय दण्ड संहिता की धारा 294 के अधीन अपराध बनाने के लिए अभियोजन को साबित करना है कि (i) अपराधों ने किसी सार्वजनिक स्थान पर कोई अश्लील कृत्य किया है अथवा किसी सार्वजनिक स्थान में अथवा उसके नजदीक किसी अश्लील गाने को गाया है अथवा अभद्र शब्दों का प्रकथन किया है अथवा उच्चारित किया है, और (ii) तद्द्वारा एक अन्य व्यक्ति को क्षोभ कारित किया है।

    यदि शिकायत किया गया कृत्य अश्लोल न हो, अथवा किसी सार्वजनिक स्थान पर न किया गया हो अथवा किसी सार्वजनिक स्थान में अथवा उसके नजदीक ऐसा गाना पवाड़ों, अथवा शब्दों का प्रयोग अथवा प्रकथन किया हो, जो अश्लील न हो अथवा इस प्रकार गाया, प्रकथन अथवा उच्चारित न किया हो अथवा यह कि यह अन्य व्यक्ति को कोई क्षोभ कारित नहीं करता है, तब यह अपराध नहीं होता है।

    अश्लील का अर्थ- ब्लैक की लॉ डिक्शनरी ऑक्सफोर्ड एडवांस्ड लरनर्स डिक्शनरी कालिस्न कोबूल इंग्लिस डिक्शनरी, आदि में शब्द 'अश्लील' का अर्थ इसमें कोई संदेह नहीं छोड़ता है कि शब्द 'अश्लील' सेक्स से सम्बन्धित होता है और यह नैतिकता और मर्यादा से समकालीन समाज के मापदण्डों के लिए अत्यधिक उल्लंघनकारी होता है, यह उसकी, जो उपयुक्त हो, की सामान्यतः स्वीकार्य विचारधाराओं के घोर रूप में प्रतिकूल होता है। 'अश्लीलता' की अवधारणा नैतिकता और समकालीन समाज के मापदण्डों पर निर्भर रहते हुए देश प्रति देश, राज्य प्रति राज्य प्रान्त प्रति प्रान्त परिवर्तित होगी।

    धारा 3 की अपेक्षाएं :

    बाम्बे हाईकोर्ट ने यह निर्धारित किया है कि अधिनियम की धारा 3 के अन्तर्गत यह अपेक्षा नहीं है कि परिवादी को परिवाद में अभियुक्त की जाति का उल्लेख करना चाहिए। दूसरे शब्दों में यदि एफआईआर में अभियुक्त की जाति का उल्लेख नहीं है तो यह अधिनियम की धारा 3 के अन्तर्गत अपराध पंजीकृत न करने या ऐसे परिवाद को अपास्त करने का आधार नहीं हो सकता है।

    अन्वेषण पर विधि :

    वर्तमान मामले में केस डायरी का परिशीलन स्पष्ट रूप में यह दर्शाता है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 के साथ ही साथ अन्य अपराधों के अधीन पंजीकृत की गयी थी, परन्तु इसके बावजूद के अन्वेषण को तीन पुलिस उप निरीक्षकों के द्वारा एक के पश्चात् एक किया गया था, जो सम्बद्ध पुलिस थाना में भारसाधक अधिकारी के रूप में कार्य कर रहे थे और अन्त में इसे दिनांक 15.05.2012 को पुलिस उपाधीक्षक, अधागढ़ के द्वारा, यद्यपि पुलिस उपाधीक्षक, कटक के आदेश के अनुसार अन्वेषण का प्रभार ले लिया गया था और वह उन पूर्ववर्ती अधिकारियों के द्वारा किए गये अन्वेषण के आधार पर औपचारित रूप में आरोप पत्र प्रस्तुत किया था।

    अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 के अधीन अपराध के लिए आरोप-पत्र प्रस्तुत करना सांविधिक प्रावधानों, अर्थात् अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) नियम के नियम 7 के अनुसार नहीं था, जो यह प्रतिपादित करती है कि ऐसे अपराध का अन्वेषण पुलिस उपाधीक्षक की श्रेणी से अन्यून अधिकारी के द्वारा अनुज्ञेय नहीं होता है।

    बिना साक्ष्य के दोषसिद्धि पुनरीक्षण में अपास्त किये जाने योग्य:-

    जहाँ कि अपराध के समर्थन में कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया जाता है, अभियुक्त अभिकथित अपराध के लिए दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता है और यदि दोषसिद्धि का कोई आदेश पारित किया जाता है तो उक्त आदेश पुनरीक्षण में अपास्त किया जा सकता है। दोषसिद्धि के लिए तात्विक सामग्री का होना आवश्यक है।

    प्रथम सूचना रिपोर्ट में जाति का उल्लेख नहीं परिवाद अपास्त करने का आधार नहीं :- उच्चतम न्यायालय के आशाबाई मचीन्द्र अधगले, (2009) 3 AIR बाम्बे R 119 : 2009 AIR SCW 1605 के वाद के निर्णय का अनुशीलन करते हुए बाम्बे हाईकोर्ट ने यह अवधारित किया कि मात्र यह कारण कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में अभियुक्त की जाति का यह कथन करते हुए कि क्या वह अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का है, का उल्लेख नहीं है, यह परिवाद अपास्त करने का आधार नहीं हो सकता है।

    अन्वेषण के अनुक्रम के दौरान तथ्यों को अभिनिश्चित करने के पश्चात् अन्वेषण अधिकारी को यह अभिलिखित करने के लिए हमेशा खुला रहता है कि अभियुक्त अनुसूचित जाति का है या अनुसूचित जनजाति का नहीं है। अन्तिम राय बनाने के पश्चात् यह न्यायालय के लिए खुला रहता है कि या तो उसे स्वीकार करे या संज्ञान से यहाँ तक कि यदि आरोप पर विचार के समय आरोप-पत्र दाखिल किया जाता है तो न्यायालय की जानकारी में लाने के लिए अभियुक्त के लिए यह खुला होता है कि सामग्री यह दर्शित नहीं करती है कि अभियुक्त अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का नहीं है। यदि आरोप विरचित भी कर दिया जाता है तो भी विचारण के समय, यह दर्शित करने के लिए सामग्री प्रस्तुत की जा सकती है कि अभियुक्त या तो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का नहीं है।

    प्रथम सूचना रिपोर्ट में जाति का उल्लेख करना आवश्यक नहीं:-

    यह अन्वेषण के दौरान अन्वेषण अधिकारी द्वारा अभिनिश्चित करने योग्य है- सुप्रीम कोर्ट ने यह धारित किया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट का विश्वकोश होना प्रत्यासित नहीं है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) नियम, 1995 के नियम-7 के अन्तर्गत अन्वेषण पुलिस उपाधीक्षक से अनिम्न श्रेणी के अधिकारी द्वारा किया जाना होता है और अन्वेषण के दौरान, अन्वेषण अधिकारी को यह अभिलिखित करने के लिए खुला होता है कि अभियुका या तो अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का है या नहीं है।

    अन्तिम राय बनाने के पश्चात् न्यायालय के लिए यह खुला होता है कि या तो उसे स्वीकार करे अथवा संज्ञान ले। यहाँ तक कि यदि आरोप विरचित कर लिया जाता है तो भी यह दर्शित करने के लिए सामग्री प्रस्तुत की जा सकती है कि अभियुक्त अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का है या नहीं है।

    प्रथम सूचना रिपोर्ट/परिवाद में जाति का उल्लेख किया जाना आवश्यक नहीं:-

    अधिनियम के अन्तर्गत किसी भी प्रावधान में यह अधिदिष्ट नहीं है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट या परिवाद में, जैसी भी स्थिति हो, अभियुक्त या परिवादी की जाति का उल्लेख करना आज्ञापक है और परिणामस्वरूप वर्तमान मामले में न्यायालय ने आवेदक अभियुक्त का यह प्रतिवाद नामंजूर कर दिया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में जाति का कोई उल्लेख नहीं और परिणामतः उक्त प्रथम सूचना रिपोर्ट के आधार पर संचालित अन्वेषण ग्रहण नहीं किया जा सकता है। हरिदास किसनराव खरबादकर एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य, 2010 क्रि० लॉ ज० 3298।

    सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है। दण्डाधिकारी जमानत आवेदन पर विचार करने के लिए सशक्त नहीं है।

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