अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC ST Act) भाग :1 अधिनियम का परिचय
Shadab Salim
10 Oct 2021 6:58 PM IST
भारत में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों पर अत्याचार स्वतंत्रता पूर्व से दिखाई पड़ते हैं। यह समाज भारतवर्ष का अत्यंत दीन हीन समाज है तथा अनेक सामाजिक परिस्थितियों में इस समाज को पीड़ित और प्रताड़ित भी अन्य समुदायों द्वारा किया जाता रहा है। इस समुदाय को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने के उद्देश्य से भारत के संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
संविधान में दिए गए आरक्षण के अधिकार अनुसूचित जनजाति के सिविल अधिकार हैं इसी प्रकार दांडिक विधि में अनुसूचित जनजाति तथा अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण के उद्देश्य से 1989 में एक आपराधिक अधिनियम पारित किया गया, जिसे अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 (Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989) के नाम से जाना जाता है।
यह अधिनियम का उद्देश समाज में अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजातियों के लोगों पर होने वाले अत्याचारों को रोकना जैसे कि उनका बहिष्कार करना उनसे अस्पृश्यता का स्वभाव रखना अनेक ऐसे कार्य है जो मानव गरिमा को कलंकित कर देते हैं। इन कार्यों को रोकने के उद्देश्य से ही भारत की पार्लियामेंट में अधिनियम को पारित किया है।
भारत के संविधान की उद्देशिका गरिमामय जीवन की अवधारणा प्रस्तुत करती है तथा उसका उल्लेख करती है। किसी भी व्यक्ति को गरिमामय जीवन तभी प्राप्त हो सकता है जब व्यक्ति के प्रति होने वाले बुरे आचरणों को रोका जा सके।
समाज में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रति अत्यंत घृणित दृष्टिकोण है। इन बेड़ियों को तोड़ने के उद्देश्य से ही इस अधिनियम को इस महान लक्ष्य तथा उद्देश्य के साथ पारित किया गया है।
इस आलेख के माध्यम से इस अधिनियम का परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है तथा यह समझाने का प्रयास किया जा रहा है कि इस अधिनियम को भारत की संसद में किन आधारों पर बनाया है तथा इस अधिनियम में किन बातों का समावेश किया गया है।
अधिनियम का उद्देश्य-
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों की सामाजिक-आर्थिक दशाओं को सुधारने के लिए उठाये गये अनेक कदमों के बावजूद वे आज भी समाज के दुर्बल वर्ग हैं। वे अनेकों सिविल अधिकारों से वंचित किये जाते हैं। वे अनेकों अपराधों, अपमानों, मानमर्दन और प्रताड़नाओं के आधीन किये जाते हैं।
अधिनियम को अधिनियमित करने का उद्देश्य गैर अनुसूचित जातियों और अनुसूचिज जनजातियों द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध अपराधों को रोकना है क्योंकि विद्यमान विधियाँ, जैसे- सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के सामान्य प्रावधान अत्याचार के अपराधों को रोकने में अपर्याप्त पाये गये हैं।
अधिनियम का उद्देश्य अत्याचार के अपराधों के पीड़ितों को त्वरित विचारण और उक्त प्रयोजन के लिए विशेष न्यायालय का गठन करने और अन्य आनुषंगिक अथवा प्रासंगिक विषयों का प्रावधान करना है।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 का उद्देश्य अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध अत्याचार के अपराधों के कारित करने को निवारित करना है।
दोनों अधिनियम अपने दृष्टिकोण में भिन्न हो सकते हैं, परन्तु अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के द्वारा वर्ष 1988 तक सहन किये गये अपमान को अब सहनीय न होना महसूस किया गया, इसके परिणामस्वरूप वर्तमान अधिनियम को अधिनियमित किया गया।
Sc st अधिनियम का उद्देश्य और कारण यह दर्शाता है कि इसे गैर-अनुसूचित जातियों और गैर-अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध अपराधों को नियंत्रित करने तथा रोकने के लिए अधिनियमित किया गया है, क्योंकि सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 जैसी विद्यमान विधियाँ तथा भारतीय दण्ड संहिता के सामान्य प्रावधान अनुसूचित जाति के सदस्य को मानव उत्सर्जन जैसे अखाद्य पदार्थ खिलाने और असहाय अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों के व्यक्तियों पर आक्रमणों तथा सामूहिक हत्याओं तथा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से सम्बन्धित महिलाओं के साथ बलात्कारों जैसे अत्याचारों को रोकने के लिए अपर्याप्त पाये गए।
अधिनियम के उद्देश्यों तथा कारणों और प्रावधानों और विशेष रूप में अधिनियम की धारा 3 से यह स्पष्ट है कि यह अधिनियम अन्य दाण्डिक संविधियों से अलग तथा भिन्न अपराध सृजित करता है, हालांकि अधिनियम के अधीन कुछ अपराध भारतीय दंड संहिता के अधीन भी दण्डनीय बनाये गये हैं, उदाहरणार्थ, अधिनियम की धारा 3 को उपधारा (xi) के अधीन अपराध धारा 354, भा० द. सं० के अधीन भी अपराध होगा।
अन्तर दण्ड की प्रकृति का है। वर्ष 1989 का अधिनियम संख्यांक 33 की धारा 3 की उपधारा (xi) के अधीन दोषसिद्ध व्यक्ति न्यूनतम 6 मास की अवधि के कारावास से, जो पांच वर्ष तक का हो सकेगा और जुमने से दण्डनीय होगा और जबकि यदि वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अधीन दोषसिद्ध किया गया हो, तब वह केवल जुर्माने से दोषसिद्ध तथा दण्डादेशित किया जा सकता है। अधिनियम की कठोरता जब अधिक होगी, तब उसका निर्वाचन कठोर होगा
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम, 1989 की उद्देशिका यह प्रतिपादित करती थी कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध अत्याचार कारित करने को निवारित करने के लिए अधिनियमित किया गया है।
इस प्रकार यह वह उद्देश्य है, जिस पर अधिनियम की विभिन्न धाराओं का निर्वाचन करते समय विचार किया जाना है। संसद ने यह पाया कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध अत्याचार कम होने के बावजूद बढ़ रहा है। उन्हें नियंत्रित करने के लिए तथा गारण्टीकृत सिविल अधिकारों के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचर निवारण) अधिनियम, 1989 पारित किया गया।
किसी विधायन की उद्देशिका तथा उसके साथ संलग्न उद्देश्यों और कारणों के कथन में कथित तथ्य विधायो निर्णय के साक्ष्य है। वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों की सोची-समझी प्रक्रिया तथा विधि अधिनियमित करने के लिए उन्हें प्रेरित करते हुए राज्य के विद्यमान क्रियाकलापों को उनकी जानकारी को इंगित करते है।
इसलिए ये ऐसे महत्वपूर्ण कारक गठित करते हैं, जिन पर अन्य कारकों में से व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों पर अधिरोपित किसी निर्बंधन की युक्तियुक्तता निर्धारित करने के लिए विचार किया जायेगा।
न्यायालय निर्बन्धन की युक्तियुक्तता से प्रारम्भ करेगा, इसके अतिरिक्त, जब उद्देश्यों और कारणों के कथन तथा उद्देशिका में कथित तथ्यों को सही होना माना जाता है, तब वे प्राप्त किये जाने के लिए इंप्सतः प्रयोजन हेतु विधि के अधिनियमन को न्यायसंगत ठहराते हैं।
जातिवाद पर टिप्पणी-
जाति ने सार्वजनिक आत्मा को मार डाला है। जाति ने सार्वजनिक पूर्तता के भाव को नष्ट कर दिया है। जाति ने सार्वजनिक राय को असम्भाव्य बना दिया है। सद्गुण जाति के घिरा हुआ हो गया तथा नैतिकता जाति से आबद्ध हो गयी है। जाति मस्तिष्क को अवस्था है। यह मस्तिष्क का रोग है। हिन्दू धर्म को शिक्षाएं इस रोग का मूलभूत कारण हैं।
हम जातिवाद का व्यवहार करते हैं और हम अस्पृश्यता का अनुपालन इस कारण से करते हैं, क्योंकि हमें हिन्दू धर्म के द्वारा ऐसा आदेशित किया गया है। एक कड़वी चीज को मीठा नहीं बनाया जा सकता है। किसी चीज के स्वाद को परिवर्तित किया जा सकता है, परन्तु विष अमृत में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की संवैधानिक वैधता अधिनियम सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों, अधिकांशत: समाज के दलित वर्ग को न्याय प्रदान करने के लिए आशयित है। इसमें सामाजिक रूप से दलित वर्ग के अमानवीय कष्टों, अपमानों और शोषण को कम करने के तरीके एवं साधन अंतर्विष्ट है।
अधिनियम की धारा 3 उच्च वर्ग के उन सदस्यों, उन व्यक्तियों, जो अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्य न हों, के द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अपराधों को प्रगणित करती है।
अधिनियम की धारा 3 के अधीन प्रगणित अपराधों के लिए प्रावधान वास्तविक रूप में पूर्वोक्त उद्देश्य को प्राप्त करने के प्रयोजन के लिए तात्पर्यिंत है और इसके कारण अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों की प्रगति के लिए है। विधायिका को भारत का संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के अधीन शक्तियों का प्रयोग करके ऐसा प्रावधान बनाने की अधिकारिता तथा शक्ति प्राप्त है। अधिनियम को भारत का संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के अधीन संरक्षित किया गया है।
संविधि अथवा उसके किसी प्रावधान की संवैधानिकता अथवा अन्यथा की जांच करने के लिए सर्वाधिक सुसंगत विचारणों में से एक संविधि के उद्देश्य और कारण के साथ ही साथ उसका विधायी इतिहास है।
यह न्यायालय को और अधिक वस्तुनिष्ठ तथा न्यायसंगत दृष्टिकोण पर पहुँचने में सहायता प्रदान करेगा। न्यायालय के लिए विशेष प्रावधान की अधिनियमिति के कारणों की जांच करना आवश्यक होगा, जिससे कि संवैधानिक प्रावधानों के मुकाबले में इसके अन्तिम प्रभाव को जाना जा सके।
भारत का संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की परिभाषा -
संविधान का अनुच्छेद 341, 342 और 366 अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को परिभाषा का वर्णन करता है, जो निम्न प्रकार से पठित है :-
341:- अनुसूचित जातियाँ-
(1) राष्ट्रपति किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में और जहाँ तक वह राज्य है, वहाँ उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात लोक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, मूलवंशों या जनजातियों अथवा जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भागों में या उनमें के समूहों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए यथास्थिति उस राज्य या उस संघ राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में अनुसूचित जातियाँ समझा जायेगा।
(2) संसद, विधि द्वारा किसी जाति, मूलवंश या जनजाति को अथवा जाति, मूलवंश या जनजाति के भाग या उसमें के समूह को खण्ड (1) के अधीन निकाली गयी अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची में सम्मिलित कर सकेगी, या उनमें से अपवर्जित कर सकेगी, किन्तु जैसा ऊपर कहा गया है, उसके सिवाय उस खण्ड के अधीन निकाली गयी अधिसूचना में किसी पश्चात्वर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जायेगा।"
342:- अनुसूचित जनजातियाँ-
(1) राष्ट्रपति, किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में जहाँ वह राज्य है, वहाँ उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात लोक अधिसूचना द्वारा उन जनजातियों या जनजाति समुदायों अथवा जनजातियों या जनजाति समुदायों के भागों या उनमें के समूहों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए यथास्थिति, उस राज्य या उस संघ राज्यक्षेत्र सम्बन्ध में अनुसूचित जनजाति समझा जायेगा।
(2) संसद, विधि द्वारा किसी जनजाति या जनजाति समुदाय को अथवा किसी जनजाति या जनजाति समुदाय के भाग या उसमें के समूह को खण्ड (1) के अधीन निकाली गयी अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जनजातियों की सूची में सम्मिलित कर सकेगी, या उनमें से अपवर्जित कर सकेगी, किन्तु जैसा ऊपर कहा गया है, उसके सिवाय उक्त खण्ड के अधीन निकाली गयी धसूचना में किसी पश्चात्वर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जायेगा।"
संविधान के अनुच्छेद 366 का खण्ड (24) और (25) निम्न प्रकार से पंठित है: "(24) अनुसूचित जातियों से ऐसो जातियाँ, मूलवंश या जनजातियाँ अथवा ऐसी जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भाग या उनमें के समूह अभिप्रेत हैं, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुच्छेद 341 के अधीन अनुसूचित जातियाँ समझा जाता है।"
"(25) अनुसूचित जनजातियों" से ऐसी जनजातियाँ या जनजाति समुदाय अथवा ऐसी जनजातियों या जनजाति समुदायों के भाग या उनमें के समूह अभिप्रेत हैं, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुच्छेद 342 के अधीन अनुसूचित जातियाँ समझा जाता है।"
"अस्पृश्यता" - का निर्वचन- संविधान का अनुच्छेद 17 शब्द "अस्पृश्यता" को उल्टे कामा में रखता है, तदनुसार अनुच्छेद की विषय वस्तु अपने शाब्दिक अथवा व्याकरणिक अर्थ में अस्पृश्यता नहीं है, परन्तु व्यवहार में उस तरह से है, जैसे भारत में ऐतिहासिक रूप से विकसित हुई है। अनुच्छेद 'अस्पृश्यता' को परिभाषित नहीं करता है। अस्पृश्यता अपराध अधिनियम (1955 का 22) अब सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम के रूप में कथित भी शब्द 'अस्पृश्यता' को परिभाषित करने का प्रयत्न नहीं करता है। इससे यह अप्रतिरोध्य निष्कर्ष निकलता है कि अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है और इसका चलन किसी भी रूप में वर्जित है।
"अपमान" का स्पष्टीकरण- धारा 3 की उपधारा (ii) के अधीन अनुचिंतित अपमान धारा 3 की उपधारा (x) के अधीन अनुचिंतित अपमान से भिन्न है, क्योंकि पूर्ववर्ती में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का सदस्य शारीरिक कृत्य के द्वारा अपमानित होता है, जबकि पश्चातयतों में वह दोषी व्यक्ति के द्वारा उच्चा शब्दों के द्वारा भी जनता को दृष्टिगोचर किसी स्थान में अपमानित होता है, जिसके लिए उसे उस स्थान पर उपस्थित होना चाहिए।
फायदाप्रद विधायन का निर्वाचन- राज्य के नीति निदेशक तत्वों को प्रभावी बनाने के लिए अधिनियमित फायदाप्रद विधायन, जो अन्यथा संवैधानिक रूप से वैध हो, का निर्वाचन करने में उन उद्देश्यों से न्यायालय के विचारण को अलग नहीं किया जा सकता है।
फायदाप्रद श्रम विधायन की भाषा में संदिग्धता की स्थिति में न्यायालयों को विवाद की विधायिका के द्वारा श्रमिक पर लाभ की इंकारी की अपेक्षा उसे प्रदत्त करने के पक्ष में सुलझाना है, परन्तु ऐसा अधिनियमिति के प्रावधानों को पुनः लिखे बिना और/ अथवा उसके साथ कोई हिंसा किये बिना किया जाना है।
प्रयोजनमूलक अर्थान्वयन-किसी अधिनियमिति का प्रयोजनमूलक अर्थान्वयन वह है, जो अधिनियमिति के शाब्दिक अर्थ को अनुसरित करके, जहाँ वह अर्थ विधायी प्रयोजन के अनुरूप हो अथवा उसके विस्तारित अर्थ को लागू करके, जहाँ शाब्दिक अर्थ विधायी प्रयोजन के अनुरूप न हो, विधायी प्रयोजन को प्रभावी बनाता है।
सांविधिक प्रावधानों का निर्वचन करते समय न्यायालय को उस उद्देश्य तथा प्रयोजन, जिसके लिए संविधि अधिनियमित की गयी है, को ध्यान में रखना चाहिए।
यह कि संविधि के निर्वचन के परोपकारी सिद्धान्तों में से एक ऐसा निर्वाचन स्वीकार करना है, जो ऐसे निर्वाचन, जो ऐसे उद्देश्य को विफल बनाता है, की प्राथमिकता में विधायन के द्वारा प्राप्त किये जाने के लिए ईप्सित उद्देश्य को प्रोन्नत अथवा प्रवर्धित करता है।
उच्चतम न्यायालय ने निर्णयों की लम्बी श्रृंखला में सांविधिक प्रावधानों का निर्वाचन करते समय स्वीकार करने हेतु न्यायालयों के लिए स्वस्थ सिद्धांत के रूप में प्रयोजनमूलक निर्वाचन को मान्यता प्रदान किया।
प्रयोजनमूलक अर्थान्वयन को सांविधिक प्रावधानों को पूर्ण प्रभाव देने के प्रयोजन के लिए आश्रय लिया जा सकता है और न्यायालयों को किसी संविधि को अकृत बनाने की अपेक्षा यह बताना चाहिए कि संविधि का क्या अर्थ होना चाहिए, क्योंकि संविधि प्रवर्तित किये जाने के लिए न कि अयोग्य बनाने के लिए तात्पर्यिंत होती है। न्यायालय को किसी संविधि को न काम करने वाली घोषित नहीं करना चाहिए।
सामंजस्यपूर्ण अर्थान्ययन-
संहिता के साथ हो साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों का सामंजस्यपूर्ण अर्थान्वयन करते समय तथा अ० जा० और अ० जन० अधिनियम के उद्देश्यों तथा प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए यह है कि अ० जा०/ अ० जन० अधिनियम के अधीन अपराधों को अंतर्ग्रस्त करते हुए मामले अनन्य रूप से विशेष न्यायालय के द्वारा विचारणीय होते हैं।
यह अभिनिर्धारित किया गया कि Sc st अधिनियम के उद्देश्यों तथा प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए सामाजिक प्रतिकूल प्रभाव से पीड़ित व्यक्तियों को विचारण के पूर्ववर्ती प्रक्रम पर, अर्थात "जांच" के प्रक्रम पर सस्ते व्यय पर तथा नजदीक और सुविधाजनक स्थान पर त्वरित न्याय प्रदान करने के लिए ऐसे मामलों पर दोनों विशेष न्यायालय के साथ ही साथ उन पर विचार करने के लिए संहिता की धारा 190 के अधीन सशक्त मजिस्ट्रेट के न्यायालयों के द्वारा विचारण किया जा सकता है।
यह भी सुनिश्चित है कि विधायन के फायदाप्रद प्रावधान का अर्थान्वयन उदारतापूर्वक किया जाना चाहिए जिससे कि सांविधिक प्रयोजन को पूरा किया जा सके, न कि इसे विफल बनाया जा सके।
विशेष विधि सामान्य विधि पर अभिभावी विधि होगी- संविधि के निर्वाचन का यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि विशेष विधि या प्रावधान सदैव सामान्य विधि या प्रावधान पर अभिभावी होगा। इस प्रकार अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 18 स्पष्ट रूप से संहिता की धारा 438 के प्रवर्तन को अपवर्जित करती है और उस सीमा तक अत्याचार निवारण अधिनियम के अधीन अपराध कारित करने के सम्बन्ध में गिरफ्तार किये जाने की स्थिति में जमानत पर निर्मुक्त किये जाने के लिए व्यक्तियों पर प्रदत्त सांविधिक अधिकार को छोनती है।
यह तत्सम्बंधी प्रावधानों, अर्थात दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 तथा अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 18 के सम्बन्ध में केवल संभाव्य निर्वाचन है। केवल ऐसा निर्वाचन ही उस उद्देश्य तथा प्रयोजन को जिसके लिए अधिनियम अधिनियमित किया गया है, को प्रोन्नत तथा अग्रसर करेगा। प्रत्येक प्रावधान अपने तत्सम्बन्धी क्षेत्र में प्रवर्तित होगा।
दाण्डिक संविधि का निर्वाचन ऐसी संविधि में भाषा के अनुसार कठोरतापूर्वक किया जाना चाहिए-दाण्डिक संविधि के अभिप्राय का निर्वाचन और अर्थान्वयन करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इसका निर्वाचन कठोरतापूर्वक ऐसी संविधि में प्रयुक्त भाषा, उस उद्देश्य तथा प्रयोजन, जिसके लिए संविधि अधिनियमित की गयी है, तथा ऐसी संविधि को बनाने के विधायो आशय के अनुसार किया जाना चाहिए। दाण्डिक संविधि का विस्तारपूर्वक उदारतापूर्वक और प्रगतिशील रूप में निर्वाचन करने की कोई गुंजाइश नहीं होती है।
अभिभावी सिद्धांत का उस आवश्यक विवरण को बनाये रखने के लिए, जिसे निर्मातागण वास्तविक रूप में रखते हैं, यदि वे आजकल की परिस्थितियों का सामना किये होते, ऐसे विधायन के द्वारा प्रस्तुत किये गये विनिर्दिष्ट उद्देश्य, जिसमें प्रत्येक वैयक्तिक प्रावधान को उपयुक्त होना चाहिए का कठोरतापूर्वक पालन करना चाहिए।