SC/ST Act में अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां
Shadab Salim
29 April 2025 4:31 PM IST

संविधान का अनुच्छेद 341, 342 और 366 अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को परिभाषा का वर्णन करता है, जो निम्न प्रकार से पठित है-
अनुसूचित जातियाँ-
(1) राष्ट्रपति किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में और जहाँ तक वह राज्य है, वहाँ उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात लोक अधिसूचना द्वारा उन जातियों, मूलवंशों या जनजातियों अथवा जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भागों में या उनमें के समूहों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए यथास्थिति उस राज्य या उस संघ राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में अनुसूचित जातियाँ समझा जायेगा।
(2) संसद, विधि द्वारा किसी जाति, मूलवंश या जनजाति को अथवा जाति, मूलवंश या जनजाति के भाग या उसमें के समूह को खण्ड (1) के अधीन निकाली गयी अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची में सम्मिलित कर सकेगी, या उनमें से अपवर्जित कर सकेगी, किन्तु जैसा ऊपर कहा गया है, उसके सिवाय उस खण्ड के अधीन निकाली गयी अधिसूचना में किसी पश्चात्वर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जायेगा।"
अनुसूचित जनजातियाँ-
(1) राष्ट्रपति, किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में जहाँ वह राज्य है, वहाँ उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात लोक अधिसूचना द्वारा उन जनजातियों या जनजाति समुदायों अथवा जनजातियों या जनजाति समुदायों के भागों या उनमें के समूहों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए यथास्थिति, उस राज्य या उस संघ राज्यक्षेत्र सम्बन्ध में अनुसूचित जनजाति समझा जायेगा।
(2) संसद, विधि द्वारा किसी जनजाति या जनजाति समुदाय को अथवा किसी जनजाति या जनजाति समुदाय के भाग या उसमें के समूह को खण्ड (1) के अधीन निकाली गयी अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जनजातियों की सूची में सम्मिलित कर सकेगी, या उनमें से अपवर्जित कर सकेगी, किन्तु जैसा ऊपर कहा गया है, उसके सिवाय उक्त खण्ड के अधीन निकाली गयी धसूचना में किसी पश्चात्वर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जायेगा।"
संविधान के अनुच्छेद 366 का खण्ड (24) और (25) निम्न प्रकार से पंठित है: "(24) अनुसूचित जातियों से ऐसो जातियाँ, मूलवंश या जनजातियाँ अथवा ऐसी जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भाग या उनमें के समूह अभिप्रेत हैं, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुच्छेद 341 के अधीन अनुसूचित जातियाँ समझा जाता है।"
"(25) अनुसूचित जनजातियों" से ऐसी जनजातियाँ या जनजाति समुदाय अथवा ऐसी जनजातियों या जनजाति समुदायों के भाग या उनमें के समूह अभिप्रेत हैं, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुच्छेद 342 के अधीन अनुसूचित जातियाँ समझा जाता है।"
"अस्पृश्यता" - का निर्वचन- संविधान का अनुच्छेद 17 शब्द "अस्पृश्यता" को उल्टे कामा में रखता है, तदनुसार अनुच्छेद की विषय वस्तु अपने शाब्दिक अथवा व्याकरणिक अर्थ में अस्पृश्यता नहीं है, परन्तु व्यवहार में उस तरह से है, जैसे भारत में ऐतिहासिक रूप से विकसित हुई है।
अनुच्छेद 'अस्पृश्यता' को परिभाषित नहीं करता है। अस्पृश्यता अपराध अधिनियम (1955 का 22 ) अब सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम के रूप में कथित भी शब्द 'अस्पृश्यता' को परिभाषित करने का प्रयत्न नहीं करता है। इससे यह अप्रतिरोध्य निष्कर्ष निकलता है कि अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है और इसका चलन किसी भी रूप में वर्जित है।
"अपमान" का स्पष्टीकरण- धारा 3 की उपधारा (ii) के अधीन अनुचिंतित अपमान धारा 3 की उपधारा (x) के अधीन अनुचिंतित अपमान से भिन्न है, क्योंकि पूर्ववर्ती में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का सदस्य शारीरिक कृत्य के द्वारा अपमानित होता है, जबकि पश्चातयतों में वह दोषी व्यक्ति के द्वारा उच्चा शब्दों के द्वारा भी जनता को दृष्टिगोचर किसी स्थान में अपमानित होता है, जिसके लिए उसे उस स्थान पर उपस्थित होना चाहिए।
फायदाप्रद विधायन का निर्वाचन- राज्य के नीति निदेशक तत्वों को प्रभावी बनाने के लिए अधिनियमित फायदाप्रद विधायन, जो अन्यथा संवैधानिक रूप से वैध हो, का निर्वाचन करने में उन उद्देश्यों से कोर्ट के विचारण को अलग नहीं किया जा सकता है।
फायदाप्रद श्रम विधायन की भाषा में संदिग्धता की स्थिति में न्यायालयों को विवाद की विधायिका के द्वारा श्रमिक पर लाभ की इंकारी की अपेक्षा उसे प्रदत्त करने के पक्ष में सुलझाना है, परन्तु ऐसा अधिनियमिति के प्रावधानों को पुनः लिखे बिना और/ अथवा उसके साथ कोई हिंसा किये बिना किया जाना है।
प्रयोजनमूलक अर्थान्वयन-किसी अधिनियमिति का प्रयोजनमूलक अर्थान्वयन वह है, जो अधिनियमिति के शाब्दिक अर्थ को अनुसरित करके, जहाँ वह अर्थ विधायी प्रयोजन के अनुरूप हो अथवा उसके विस्तारित अर्थ को लागू करके, जहाँ शाब्दिक अर्थ विधायी प्रयोजन के अनुरूप न हो, विधायी प्रयोजन को प्रभावी बनाता है। सांविधिक प्रावधानों का निर्वचन करते समय कोर्ट को उस उद्देश्य तथा प्रयोजन, जिसके लिए संविधि अधिनियमित की गयी है, को ध्यान में रखना चाहिए।
यह कि संविधि के निर्वचन के परोपकारी सिद्धान्तों में से एक ऐसा निर्वाचन स्वीकार करना है, जो ऐसे निर्वाचन, जो ऐसे उद्देश्य को विफल बनाता है, की प्राथमिकता में विधायन के द्वारा प्राप्त किये जाने के लिए ईप्सित उद्देश्य को प्रोन्नत अथवा प्रवर्धित करता है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्णयों की लम्बी श्रृंखला में सांविधिक प्रावधानों का निर्वाचन करते समय स्वीकार करने हेतु न्यायालयों के लिए स्वस्थ सिद्धांत के रूप में प्रयोजनमूलक निर्वाचन को मान्यता प्रदान किया।
प्रयोजनमूलक अर्थान्वयन को सांविधिक प्रावधानों को पूर्ण प्रभाव देने के प्रयोजन के लिए आश्रय लिया जा सकता है और न्यायालयों को किसी संविधि को अकृत बनाने की अपेक्षा यह बताना चाहिए कि संविधि का क्या अर्थ होना चाहिए, क्योंकि संविधि प्रवर्तित किये जाने के लिए न कि अयोग्य बनाने के लिए तात्पर्यिंत होती है। कोर्ट को किसी संविधि को न काम करने वाली घोषित नहीं करना चाहिए।
संहिता के साथ हो साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों का सामंजस्यपूर्ण अर्थान्वयन करते समय तथा अ० जा० और अ० जन० अधिनियम के उद्देश्यों तथा प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए यह है कि अ० जा०/ अ० जन० अधिनियम के अधीन अपराधों को अंतर्ग्रस्त करते हुए मामले अनन्य रूप से विशेष कोर्ट के द्वारा विचारणीय होते हैं।
यह अभिनिर्धारित किया गया कि Sc st अधिनियम के उद्देश्यों तथा प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए सामाजिक प्रतिकूल प्रभाव से पीड़ित व्यक्तियों को विचारण के पूर्ववर्ती प्रक्रम पर, अर्थात "जांच" के प्रक्रम पर सस्ते व्यय पर तथा नजदीक और सुविधाजनक स्थान पर त्वरित न्याय प्रदान करने के लिए ऐसे मामलों पर दोनों विशेष कोर्ट के साथ ही साथ उन पर विचार करने के लिए संहिता की धारा 190 के अधीन सशक्त मजिस्ट्रेट के न्यायालयों के द्वारा विचारण किया जा सकता है।
यह भी सुनिश्चित है कि विधायन के फायदाप्रद प्रावधान का अर्थान्वयन उदारतापूर्वक किया जाना चाहिए जिससे कि सांविधिक प्रयोजन को पूरा किया जा सके, न कि इसे विफल बनाया जा सके।
विशेष विधि सामान्य विधि पर अभिभावी विधि होगी- संविधि के निर्वाचन का यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि विशेष विधि या प्रावधान सदैव सामान्य विधि या प्रावधान पर अभिभावी होगा। इस प्रकार अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 18 स्पष्ट रूप से संहिता की धारा 438 के प्रवर्तन को अपवर्जित करती है और उस सीमा तक अत्याचार निवारण अधिनियम के अधीन अपराध कारित करने के सम्बन्ध में गिरफ्तार किये जाने की स्थिति में जमानत पर निर्मुक्त किये जाने के लिए व्यक्तियों पर प्रदत्त सांविधिक अधिकार को छोनती है।
यह तत्सम्बंधी प्रावधानों, अर्थात दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 तथा अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा 18 के सम्बन्ध में केवल संभाव्य निर्वाचन है। केवल ऐसा निर्वाचन ही उस उद्देश्य तथा प्रयोजन को जिसके लिए अधिनियम अधिनियमित किया गया है, को प्रोन्नत तथा अग्रसर करेगा। प्रत्येक प्रावधान अपने तत्सम्बन्धी क्षेत्र में प्रवर्तित होगा।
दाण्डिक संविधि का निर्वाचन ऐसी संविधि में भाषा के अनुसार कठोरतापूर्वक किया जाना चाहिए-दाण्डिक संविधि के अभिप्राय का निर्वाचन और अर्थान्वयन करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इसका निर्वाचन कठोरतापूर्वक ऐसी संविधि में प्रयुक्त भाषा, उस उद्देश्य तथा प्रयोजन, जिसके लिए संविधि अधिनियमित की गयी है, तथा ऐसी संविधि को बनाने के विधायो आशय के अनुसार किया जाना चाहिए। दाण्डिक संविधि का विस्तारपूर्वक उदारतापूर्वक और प्रगतिशील रूप में निर्वाचन करने की कोई गुंजाइश नहीं होती है।
अभिभावी सिद्धांत का उस आवश्यक विवरण को बनाये रखने के लिए, जिसे निर्मातागण वास्तविक रूप में रखते हैं, यदि वे आजकल की परिस्थितियों का सामना किये होते, ऐसे विधायन के द्वारा प्रस्तुत किये गये विनिर्दिष्ट उद्देश्य, जिसमें प्रत्येक वैयक्तिक प्रावधान को उपयुक्त होना चाहिए का कठोरतापूर्वक पालन करना चाहिए।

