Transfer Of Property में होने वाली लीज के बीच Lessor प्रॉपर्टी जिसे ट्रांसफर कर दे उस व्यक्ति के राइट्स
Shadab Salim
24 Feb 2025 4:25 AM

Transfer Of Property Act,1882 की धारा 109 के अंतर्गत Lessor के अन्तरिती के अधिकार भी स्पष्ट किए गए। कभी-कभी ऐसी परिस्थिति होती है कि किसी संपत्ति का Lessor संपत्ति में विधामान अपने अधिकार किसी अन्य व्यक्ति को अंतरित कर देता है। ऐसी स्थिति में जिस व्यक्ति को लीज़ संपत्ति के अधिकार अंतरित किए गए हैं उस व्यक्ति को Lessor का अन्तरिती कहा जाता है तथा इस धारा के अंतर्गत इसी प्रकार के अन्तरिती के अधिकारों का वर्णन किया गया है।
धारा 109
पट्टे के माध्यम से एक व्यक्ति अपनी अचल सम्पत्ति एक निर्धारित अवधि के लिए या एक ऐसी अवधि के लिए जिसका निर्धारण हो सकेगा, Lessee को केवल उपभोग का अधिकार अन्तरित करता है। उपभोग का अधिकार तभी प्रभावी होगा जब साथ में सम्पत्ति का कब्जा भी उसे प्राप्त हो । अतः पट्टे में सम्पत्ति का कब्जा एवं उपभोग का अधिकार दोनों ही साथ-साथ अन्तरित होते हैं। लीज़ सम्पत्ति में के अन्य हित (वे हित जो Lessee को अन्तरित नहीं किए गए हैं) वे सदैव Lessor के पास बने रहते हैं जिन्हें यदि वह (पट्टाकर्ता) चाहे तो किसी भी अन्य व्यक्ति के पक्ष में अन्तरित कर सकेगा। ऐसी स्थिति में Lessor में अन्तरिती के क्या अधिकार होंगे। इस सम्बन्ध में धारा 109 प्रावधान प्रस्तुत करता है।
इस धारा के प्रथम खण्ड उपबन्धित करता है कि यदि Lessor पट्टे पर दी हुई सम्पत्ति को या उसके किसी भाग को या उसमें के अपने हित के किसी भाग को अन्तरित कर देता है तो अन्तरिती तत्प्रतिकूल संविदा के अभाव में उस अन्तरित सम्पत्ति या भाग के बारे में Lessor के वे सब अधिकार तब तक रखेगा जब तक वह उसका स्वामी रहता है और यदि Lessee ऐसा निर्वाचन को तो वह तब तक Lessor के सभी दायित्वों के भी अध्यधीन रहेगा, जब तक वह उसका स्वामी रहता है। पर Lessor का पट्टे द्वारा अधिरोपित दायित्वों में से किसी के अध्यधीन रहना केवल ऐसे अन्तरण के कारण ही प्रविरत न हो जाएगा, जब तक कि Lessee अन्तरिती को अपने प्रति दायी व्यक्ति मानने का निर्वाचन न कर लें।
धारा 109 में वर्णित विधि तत्प्रतिकूल किसी संविदा के अध्यधीन है। अर्थात् यदि संविदा के पक्षकारों ने आपस में करार द्वारा ऐसी संविदा की है जो इसे प्रावधान के अनुरूप नहीं है तो ऐसी स्थिति में पक्षकारों के बीच का सम्बन्ध उनके बीच हुई संविदा से विनियमित होगा न कि धारा 109 में उल्लिखित विधि से। अर्थात् यदि Lessor सम्पूर्ण Lessor सम्पत्ति का विक्रय कर देता है तो Lessor का अन्तरिती Lessor के समस्त अधिकारों को भी प्राप्त करेगा जिसमें पट्टे के पर्यवसान का भी अधिकार सम्मिलित होगा।
लेकिन यदि संविदा के पक्षकार अर्थात् Lessor अन्तरण एवं अन्तरिती यदि चाहे, तो यह भी करार कर सकते हैं कि लीज़ सम्पत्ति में के सम्पूर्ण हित के अन्तरण के पश्चात् भी लीज़ को समाप्त कराने एवं उत्तर भोग अधिकार को प्रत्यावर्तित कराने का अधिकार Lessor में ही निहित रहेगा। ऐसा करार धारा 109 के अन्तर्गत अवैध होने के बावजूद भी वैध रहेगा, क्योंकि धारा 109 ही पक्षकारों को तत्प्रतिकूल संविदा करने की अनुमति भी प्रदान करती है। दूसरे शब्दों में धारा 109 में उल्लिखित प्रावधान तभी प्रभावी होगा जब अन्तरण एवं अन्तरिती के बीच कोई तत्प्रतिकूल संविदा न हो।
नूतन कुमार बनाम द्वितीय अतिरिक्त जिला जजों के वाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अभिप्रेक्षित किया है:-
यह सत्य है कि सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के प्रावधानों से शासित एक अन्तरण से भिन्न एक संविदा पर संविदा अधिनियम की धारा 23 लागू होती है, पर एक संविदात्मक पट्टेदारी संविदा के सिद्धान्तों पर आधारित होती है अतः संविदा अधिनियम के सुसम्बद्ध प्रावधान भी पट्टे से सम्बद्ध सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के सुसंगत प्रावधानों के अतिरिक्त पट्टे को विनियमित करेंगे। इसके अतिरिक्त सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 6 (ज) के कारण भी संविदा अधिनियम की धारा 23 पट्टे की वैधता को विनियमित करती रहेगी।"
Lessor का अन्तरिती Lessor के समस्त अधिकारों, जिनका इस धारा में उल्लेख का अधिकारी हैं अत: वह मासिक किरायेदार को जिसे मूल Lessor ने रखा था को भी बेदखल कर सकेगा। ऐसे मामलों में Lessee द्वारा अभिधार की आवश्यकता नहीं होती है।
विभाजन या बंटवारा संयुक्त सम्पत्ति का बंटवारा या विभाजन सम्पत्ति का अन्तरण होगा तथा यह कृत्य धारा 109 के उपबन्धों से विनियमित होगा या नहीं एक जटिल स्थिति उत्पन्न करता है। जहाँ तक बंटवारा का सम्बन्ध इसी अधिनियम की धारा 5 के अन्तर्गत उसे सम्पत्ति का अन्तरण नहीं माना जाता है। ऐसा मत सुप्रीम कोर्ट ने बॉ० एन० सरोन बनाम अजीत कुमार पोपलाई के वाद में व्यक्त किया था।
इसी निर्णय का अनुसरण करते हुए केरल हाईकोर्ट ने भी यह मत व्यक्त किया है कि विभाजन, सम्पत्ति का अन्तरण नहीं है क्योंकि उसमें केवल संयुक्त अधिकारों को सहभागीदारों के बीच पृथक्-पृथक किया जाता है। किसी भी भागीदार के पक्ष में सर्वप्रथम कोई अधिकार उक्त सम्पत्ति में सृजित नहीं किया जाता है तथा अधिकारों को पृथक कर प्रत्येक भागीदार को उस पर एकान्तिक अधिकार एवं सम्पत्ति के एक विशिष्ट माँग पर कब्जा प्रदान कर दिया जाता है।
इस मत को सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य वाद मोहन सिंह बनाम देवी चरणों के बाद में भी अभिव्यक्त किया है। किन्तु एस० के० सत्तर बनाम गुडप्पा अमवादास के वाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रतिपादित मत के आधार पर यह कहा जा सकेगा कि यह बिन्दु अन्तिम रूप से अभी तक निशाँत नहीं हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने इस सन्दर्भ में अपना मत व्यक्त करते हुए यह सुस्पष्ट किया कि 'अन्तरण' को सुप्रीम कोर्ट ने पृथक्-पृथक् सांविधिक प्रावधानों के सन्दर्भ में पृथक्-पृथक् रूप में विरचित किया है। सुप्रीम कोर्ट का अभिप्रेक्षण इस प्रकार है:-
"इस प्रश्न पर हमारा अपना सन्देह है। यदि एक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का विभाजन पक्षकारों के कृत्य से होता, तो यह जैसा कि पहले देखा गया अधिनियम की धारा 5 के अर्थ के अन्तर्गत अन्तरण नहीं माना जाएगा। किन्तु यदि विभाजन के लिए वाद दायर किया जाता है।
विभाजन की प्रक्रिया कोर्ट की डिक्री के माध्यम से पूर्ण की जाती है, तो यह अन्तरण के तुल्य होगा, यथा धारा 2 (घ) जो स्पष्टतः विधि के प्रवर्तन द्वारा या डिक्री के अधीन कोर्ट के आदेश के अन्तर्गत किए गये अन्तरण को वर्जित करता है। धारा 5 जो एक प्रकार से अन्तरण को परिभाषित करती है इस प्रकार धारा 2 (घ) द्वारा आच्छादित है। यह एक विचित्र स्थिति है तथा इस विचित्र स्थिति का एक दिन समाधान होना आवश्यक है विशेषकर, विभिन्न सांविधिक प्रावधानों के सन्दर्भ में अन्तरण को जिस प्रकार इस कोर्ट द्वारा निर्वाचन किया गया।"
धारा 2 (घ) सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम उपबन्धित करती है कि धारा 57 और अध्याय 4 द्वारा यथा उपवन्धित के सिवाय, विधि की क्रिया द्वारा या सक्षम अधिकारितायुक्त कोर्ट की डिक्री या आदेश के द्वारा या उसके निष्पादन में हुआ कोई अन्तरण सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के क्षेत्र विस्तार के अन्तर्गत नहीं आयेगी।
उपरोक्त के आधार पर यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि विभाजन सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 5 के अन्तर्गत 'अन्तरण' है तथा इस धारा अर्थात् धारा 109 के अन्तर्गत समर्पण एवं हस्तान्तरण का मिश्रण है। इसे अर्थात् विभाजन को धारा 109 के अर्थ के अन्तर्गत 'अन्तरण' माना गया है। अतः एक संयुक्त सम्पत्ति की टेनेन्सी का विभाजन के फलस्वरूप पर्यवसान हो सकेगा। इस बात को शंकर शाश्वत बनाम अनुकूल चन्द्र बोस के प्रकरण में स्वीकार किया गया है अर्थात् विभाजन को धारा 109 के प्रयोजन हेतु अन्तरण माना गया है।
अन्तरिती सम्पत्ति के एक भाग का अन्तरिती Lessor के समस्त अधिकारों से युक्त होगा जिस प्रकार Lessor के समस्त अधिकारों से युक्त होगा। जिस प्रकार Lessor लीज़ सम्पत्ति के एक भाग से Lessee को बेदखल नहीं कर सकता है उसी प्रकार धारा 109 सम्पत्ति के एक भाग के अन्तरिती को भी Lessee को बेदखल करने का अधिकार नहीं देता है। मूल Lessor द्वारा Lessee को उस समय नोटिस देने से जबकि यह अपने समस्त अधिकारों का अन्तरण कर चुका है कोई विधिक प्रभाव सृजित नहीं होगा और न ही किसी प्रकार Lessee पर आबद्धकारी होगा।
किसी तत्प्रतिकूल संविदा के अभाव में Lessor का अन्तरिती Lessor के सभी अधिकारों से युक्त होता है। यद्यपि एक नवीन अभिधार पर व्यवहार में बल दिया जाता है, परन्तु इसकी आवश्यकता नहीं होती है। अन्तरण का समनुदेशितो, Lessee के विरुद्ध Lessor के समस्त अधिकारों का प्रयोग कर सकेगा, जिसमें किराया प्राप्त करने का अधिकार पट्टे का पर्यवसान Lessee को बेदखल करने का अधिकार सम्मिलित होगा।
अन्तरण का प्रभाव Lessor का अन्तरिती Lessor के सभी अधिकारों से युक्त रहता है जब तक कि कोई तत्प्रतिकूल अभिव्यका प्रसंविदा न हो। ऐसा अन्तरित Lessee को बेदखल करने हेतु वाद संस्थित कर सकेगा भले ही टेनेन्ट ने उसे किराये का भुगतान न किया हो उसके लिए यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि किराये या भाटक का भुगतान वस्तुतः उसे किया गया था यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है कि उसके पक्ष में अभिधार हुआ है यदि वह यह साबित करने में समर्थ है कि वह Lessor का अन्तरिती है।
एक Lessee समनुदेशिती को एक युक्तियुक्त अवधि तक किराये का भुगतान करने के उपरान्त समनुदेशिती के स्वत्व या हित को चुनौती नहीं दे सकेंगा यदि एक व्यक्ति ने अपनी सम्पत्ति को पट्टे पर दिया था तथा बाद में उसी सम्पत्ति को भोग बन्धक के रूप में अन्तरित कर देता है तो भोग बन्धकी, बन्धकदार Lessor के उन समस्त अधिकारों से युक्त होगा जो बन्धककर्ता Lessor को Lessee के विरुद्ध प्राप्त थे। भोग बन्धकी, Lessee से किराया तथा अन्य लाभ प्राप्त करने का अधिकारी होगा।
धारा 109 में वर्णित मामलों में Lessor का अन्तरिती धारा 111(छ) के अन्तर्गत वर्णित जब्ती खण्ड का लाभ ले सकेगा। धारा 107 में प्रयुक्त शब्दों "Lessor के ये सब अधिकार.. उस सम्पत्ति " के अन्तर्गत प्रसंविदा के अधीन Lessor के सभी अधिकार सम्मिलित हैं जो सम्पत्ति को प्रभावित करते हैं, अर्थात् भूमि और कोई अधिकार अन्तरित नहीं होते हैं। दूसरे शब्दों में केवल भूमि के साथ चलने वाली प्रसंविदाएँ ही अन्तरित होती हैं और कोई अन्य अधिकार अन्तरित नहीं होता है।
मूल पद के विरुद्ध प्राप्त पूर्णतया वैयक्तिक अधिकार ऐसा अधिकार नहीं है जिसे Lessor अन्तरक समनुदाशती को अन्तरित कर सके क्योंकि Lessor का यह अधिकार यहाँ सम्पत्ति से सम्बद्ध नहीं होता है। Lessor को Lessee द्वारा किया गया कोई अग्रिम भुगतान जो पट्टे के पर्यवसान पर प्रतिदाय (वापस लिया जाने वाला) है Lessor के समनुदेशिती से वसूला नहीं जाए।
Lessor से सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त करने वाला अन्तरिती Lessor के समस्त दायियों से भी आबद्ध होता है। अतः पट्टे के नवीकरण हेतु प्रसंविदा समनुदेशितों के विरुद्ध प्रवर्तनीय होगी। धारा 109 में प्रयुक्त पदावलि यदि Lessee ऐसा निर्वाचन करे तो Lessor सब दायित्वों के अध्यधीन तब तक रहेगा से यह अभिप्रेत है भूमि के साथ चलने वाली सभी प्रसंविदाओं का भार जैसे शान्तिपूर्ण उपभोग की प्रसंविदा। यदि ऐसी प्रसंविदा के उल्लंघन पर वह यह निर्वाचन करता है कि अन्तरिती दायी है, तो उसका निर्वाचन अन्तिम होगा। यदि मूल पट्टे का पर्यवसान कोर्ट की डिक्री के फलस्वरूप होता है तो उपपट्टेदार, Lessor का साधे-सीधे Lessee नहीं बनेगा पर यदि Lessee यह वचन देता है कि वह भू-स्वामी के अन्तरिती को किराया का भुगतान करेगा तथा अन्तरण की सूचना के बाद भी वह सम्पत्ति को निरन्तर धारण किए रहता है तो ऐसा कृत्य अभिधार के तुल्य माना जाएगा एवं संव्यवहार वैध होगा।
गोपाल कृष्ण बनाम लक्ष्मी नारायणी के वाद में पट्टाजनित सम्पत्ति में एक आवासीय कक्ष, में खानागार एवं शौचालय सम्मिलित था Lessor ने स्रानागार एवं शौचालय को छोड़कर उक्त सम्पत्ति को बेच दिया। इस प्रकार मूल पट्टेदारी का दो हिस्सों में बंटवारा हो गया। क्रेता आवासीय कक्ष का स्वामी बन गया, जबकि Lessor विक्रेता स्नानागार एवं शौचालय का स्वामी बना रहा।
इन तथ्यों के आधार पर यह अभिनित हुआ है कि Lessee स्नानागार एवं शौचालय के उपभोग को पुनः स्थापित करने का दावा प्रस्तुत कर सकेंगे। मूल स्वामी के विरुद्ध जो विभाजन के उपरान्त भी इन दोनों का स्वामी बना हुआ है धारा 109 के प्रवर्तन के फलस्वरूप पट्टाधृति सम्पत्ति का अन्तरिती उस सम्पत्ति से जो उसे अन्तरित की गयी है, Lessee को बेदखल कर सकेगा। पक्षकारों के बीच का सम्बन्ध विधि के फलस्वरूप होता है न कि Lessee को सम्मति पर आधारित है।
Lessor एवं Lessee के विरुद्ध पट्टेदारों का विखण्डन नहीं हो सकता है। यहाँ तक कि कोर्ट या रेन्ट फन्ट्रोलिंग अथारिटी भी अपनी डिक्री या अन्यथा द्वारा पट्टेदारी का विखण्डन कर सकेंगे जब तक कि पट्टेदारों के विखण्डन हेतु संविधि में विशिष्ट प्रावधान न हों। अतः Lessor एकपक्षीय निर्णय लेकर पट्टेदारी का विखण्डन कर पट्टे पर दी गयी सम्पत्ति के सम्बन्ध में निष्कासन का दावा प्रस्तुत कर सके।
परन्तु जब सम्पत्ति का विभाजन किया जाता है तो इसके फलस्वरूप धारा 109 के अन्तर्गत विखण्डन होता है तथा एक सह-स्वामी Lessee को उस सम्पत्ति से बेदखल कर सकेगा जो उसे आवंटित हुई है। विखण्डन के फलस्वरूप यह भी अभिनिर्णत हुआ है कि यदि पट्टाधृति में केवल एक हित ही अन्तरित किया जाता है, तो एक सह-Lessor अकेले ही पट्टे का पर्यवसान नहीं कर सकेगा या बिना सह-Lessor को साथ लिए जब तक कि वह विभाजन को प्रभावी नहीं करा लेता।
धारा 109 उस साधारण सिद्धान्त का एक अपवाद प्रस्तुत करती है जिसके अनुसार एक Lessor के एकपक्षीय कृत्य से पट्टेदारी का विखण्डन नहीं हो सकेगा। यह उपबन्ध सांविधिक अभिधार का सृजन करता है तो संविदात्मक अभिधार को प्रतिस्थापित करता है तथा उसी प्रभाव से युक्त होता है जिस प्रभाव से संविदात्मक अभिधारयुक्त होता है तथा अन्तरिती स्वयमेव उन सभी अधिकारों से युक्त हो जाता है जिनसे Lessor युक्त था तथा अन्तरिती एवं Lessee के बीच नया सम्बन्ध स्थापित होता है। यह Lessee की सम्मति पर निर्भर नहीं होता है अतः अभिधार को आवश्यकता नहीं होती है। अन्तरिती धारा 111 में उल्लिखित परिस्थितियों में से किसी में भी अपने पक्ष में अन्तरित सम्पत्ति से सम्बन्धित पट्टे का पर्यवसान कर सकेगा।
धारा 109 प्रत्यावर्तन के एक भाग के समनुदेशिती को समर्थ बनाती है जिससे वह भूस्वामी के समस्त अधिकारों का उस भाग के सम्बन्ध में प्रयोग कर सके जिस भाग के सम्बन्ध में अधिकार अन्तरित किए गये हैं, उन प्रसंविदाओं के अध्यधीन जो भूमि के साथ-साथ चलने वाली है। इस प्रयोजन हेतु Lessee की सम्मति की आवश्यकता नहीं होगी। इसके लिए सम्मतीय अभिधार को आवश्यकता नहीं होगी। अभिधार विधि द्वारा प्रभावी होता है।
Lessor के हित का अन्तरण क्या केवल Lessee द्वारा अभिधार के उपरान्त ही प्रभावी होगा:-
अभिधार संविदा के फलस्वरूप अस्तित्व में आता है। धारा 109 सुस्पष्ट करती है कि Lessor का अधिकार जब अन्तरिती के पक्ष में अन्तरित होता है तो अन्तरिती, विद्यमान पट्टेदारों के सम्बन्ध में Lessor के समस्त अधिकार एवं दायित्व प्राप्त करता है। विद्यमान पट्टेदारों को जारी रखने के लिए Lessee द्वारा अन्तरिती के पक्ष में अभिधार की आवश्यकता नहीं होती है। अन्तरिती Lessor का स्थान अन्तरण के फलस्वरूप ही ग्रहण लेता है तथा उन सभी अधिकारों से युक्त हो जाता है जिनसे Lessor युक्त था। संव्यवहार को वैधता प्रदान करने हेतु Lessee द्वारा अभिधार व्यक्त करना आवश्यक नहीं होता है।" जहाँ Lessee के पास यह विश्वास करने के लिए कारण नहीं है कि Lessor ने अपना हित अन्य व्यक्ति को अन्तरित कर दिया है तथा वह Lessor को किराया का भुगतान करना जारी रखता।
"तथा Lessor ऐसे भुगतान को स्वीकार भी करता रहता है एवं Lessor Lessee को अन्तरण के पय में कुछ भी नहीं बताता है, ऐसी स्थिति में Lessee किराये के अवशेष का भुगतान करने के लिए दायित्वाधीन नहीं होगा। इसी प्रकार अन्तरिती अन्तरण के दिनांक से पहले देय किराये के लिए दावा नहीं प्रस्तुत कर सकेगा। जहाँ Lessor के कथित सम्पत्ति के सह स्वामी के पक्ष में लीज़ सम्पत्ति में अपने समस्त अधिकारों, स्वत्वों तथा हितों का उन्मोचन समनुदेशन या अन्तरण किया था. अन्तरिती (सहस्वामी) अन्तरण की तिथि से पूर्व देय किरायों के अवशेष के लिए अधिकारी नहीं होगा।"
यदि Lessor के अधिकार, हित एवं स्वत्व विधि के प्रवर्तन से अन्तरित हुआ हो, तो धारा 109 की स्थिति
इस सन्दर्भ में मद्रास हाईकोर्ट ने इंग्लिश विधि का अनुकरण करते हुए यह अभिनित किया था कि यदि अन्तरक द्वारा अन्तरिती को नोटिस दी गयी थी तो उस नोटिस का लाभ भूस्वामी के उत्तराधिकारी अथवा सूचना देने वाले Lessee को प्राप्त होगा। परन्तु कालान्तर में मैसूर हाईकोर्ट ने तत्प्रतिकूल मत अभिव्यक्त किया था। इस मत को सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी सहमति दी थी। पर सुप्रीम कोर्ट ने पुनः उस प्रश्न पर बसन्तकुमार बनाम बोर्ड आफ ट्रस्टोज आफ दि पोर्ट ट्रस्ट आफ बाम्बे में विचार किया तथा पुराने सभी निर्णयों पर विवेचना करने के उपरान्त कोर्ट ने गुरुमुरु थप्पा के वाद में अभिव्यक्त किए गये मत को अस्वीकार दिया तथा एन० पी० के० रमन मेनन के वाद में अभिव्यक्त विचार से अपनी सहमति जताई।
बसन्त कुमार के वाद में बम्बई पोर्ट ट्रस्ट ने पट्टे के पर्यवसान हेतु नोटिस दिया क्योंकि Lessor का हित विधि के प्रवर्तन द्वारा बम्बई पोर्ट ट्रस्ट में निहित हो गया था। नोटिस की निरन्तरता के दौरान उत्तराधिकारी ने अपने से पूर्व हित धारक द्वारा दी गयी नोटिस के आधार पर Lessee को बेदखल करने के लिए वाद संस्थित किया। सुप्रीम कोर्ट ने एन० पी० के० रमन कुमार के वाद में मद्रास हाईकोर्ट द्वारा अभिव्यक्त किए गए मत से सहमति जताते हुए निर्णय सुनाया तथा त्रिम्बक एवं हितकारिणी वादों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये निर्णयों को गुरुमुरु थप्पा के निर्णय से भी भिन्न बताया।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि निःसन्देह यह सत्य है कि सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम की धारा 109 स्वयं इस मामले के तथ्यों पर प्रभावी नहीं होती है। यह धारा एक जीवित व्यक्ति के पक्ष में Lessor के हित का अन्तरण परिकल्पित करती है, परन्तु जब अचल सम्पत्ति में Lessor का हित, अधिकार एवं स्वत्व विधि के प्रवर्तन द्वारा अन्तरित हो जाता है तो धारा 109 की आत्मा बलात् प्रवर्तित होगी तथा उत्तराधिकारी अपने पूर्ववर्ती हित धारक के हितों को पाने के लिए प्राधिकृत होगा। बसन्त कुमार की पट्टेदारी इस आधार पर बेदखली हेतु वाद संस्थित कर सकेगा।