Right to Information का क़ानून
Shadab Salim
13 Jun 2025 8:26 PM IST

किसी भी लोकतान्त्रिक देश में सरकार जानता चुनती है ऐसी स्थिति में जनता का यह अधिकार होता है कि वह अपनी सरकार से जुड़ी जानकारी को प्राप्त कर सकें। पहले यह क़ानून नहीं था तब सभी जानकारी मिल नहीं पाती लेकिन भारत की पार्लियामेंट ने एक क्रन्तिकारी कदम उठाया और सूचना का अधिकार अधिनियम पारित किया। कंस्टीटूशन ऑफ़ इंडिया में उल्लेखित किए गए मौलिक अधिकारों में एक मौलिक अधिकार जानने का अधिकार भी है जिसे अनुच्छेद 19 का हिस्सा बनाया गया है।
यह अधिकार केवल एक मौलिक अधिकार बन कर न रह जाए तथा एक स्वर्णिम उद्घोषणा मात्र बनकर न रह जाए इस उद्देश्य से इस विचार को तथा इस अधिकार को व्यवहार में लाने के उद्देश्य से सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 भारत की संसद द्वारा गढ़ा गया है। भ्रष्टाचार भारत की एक प्रमुख समस्या रही है सर्वजनिक विभागों में भ्रष्टाचार से संबंधित मामले आए दिन देखने को मिलते हैं। अनेक विधान भ्रष्टाचार रोधी भारत में बनाए गए। यह अधिनियम उन विधानों की ही एक कड़ी है। इस अधिनियम के माध्यम से भ्रष्टाचार की समस्या पर विजय पाने का एक प्रयास किया गया है।
यह अधिनियम भारत के प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह कोई भी सार्वजनिक जानकारी जो उसके हितार्थ हो या न हो भारत सरकार के अधिकारियों से प्राप्त कर सकता है। इस अधिनियम को व्यवहार में लाने के लिए इसके अंतर्गत संपूर्ण व्यवस्था की गई है।
एक प्राधिकरण का निर्माण किया गया है जो इस अधिनियम के अंतर्गत सूचना प्रदान करता है। सूचना नहीं दिए जाने पर अपील की व्यवस्था की गई है तथा वहां सूचना नहीं देने के परिणामस्वरूप दोषियों को शास्ति (सज़ा) दिए जाने का भी प्रावधान किया गया है। इस अधिनियम के अंतर्गत कुछ ऐसी बातें जिन्हें सार्वजनिक किया जाना किसी मामले या देश हित में नहीं है उन्हें छूट दी गई है तथा जनता उन मामलों की जानकारी प्राप्त नहीं कर सकती है।
सूचना के अधिकार के लिये समुचित विधायन के लिये संघर्ष दो मुख्य आधारों पर किया गया। प्रथम कठोर उपनिवेशी शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 के लिये संशोधन की मांग और दूसरा सूचना के अधिकार पर प्रभावी विधि के लिये आन्दोलन है। शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 पूर्व ब्रिटिश शासकीय गुप्त बात अधिनियम की प्रतिकृति है और जासूसी के सम्बन्ध में प्रावधान करती है।
पिछले दशक के दौरान, नागरिकों के समूह द्वारा केन्द्र शासकीय गुप्त बात अधिनियम में केवल संशोधन की मांग उसके पूर्ण निरसन और व्यापक विधायन द्वारा उसके प्रतिस्थापन के लिये मांग में परिवर्तित हो गया था, जो कर्तव्य और अपराध की गोपनीयता को प्रकट करे। इसने नागरिक समूहों को प्रतीत कराया था कि कितना महत्वपूर्ण यह है कि सूचना के लोगों के अधिकार को विधि द्वारा और सूचना का अधिकार प्रवर्तित किया जाना चाहिए।
भारत में स्वतन्त्रता की प्राप्ति के पश्चात्, लिखित संविधान के साथ उदार लोकतान्त्रिक राजनैतिक प्रणाली विधि का शासन, सामाजिक न्याय विकास, वयस्क मतदान समय से निर्वाचन, बहुदलीय प्रणाली, अस्तित्व में आया है। लोकतांत्रिक राजनैतिक प्रणाली के पारदर्शी कार्य के लिये, संविधान के निर्माताओं ने संविधान के भाग-3 में मूल अधिकार में अभिव्यक्ति के अधिकार के प्रावधान को शामिल किया था।
भारतीय संविधान में सूचना का कोई विनिर्दिष्ट अधिकार या प्रेस की स्वतन्त्रता का कोई अधिकार नहीं है जबकि सूचना के अधिकार को संवैधानिक प्रत्याभूति के रूप में पढ़ा गया है, जो मूल अधिकार पर अध्याय का भाग है। भारतीय संविधान में मूल और असंक्रमणीय अधिकारों की प्रभावी श्रृंखला है, जो संविधान के अध्याय-3 में अन्तर्विष्ट है। इनमें विधियों के समान संरक्षण का अधिकार और विधि के समक्ष समता का अधिकार (अनुच्छेद 14) वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार [अनुच्छेद 19 (1) (क)] और प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता का अधिकार (अनुच्छेद 21) शामिल है।
अनुच्छेद 32 में संवैधनिक उपचारों का अधिकार इन्हें आधार प्रदान करता है अर्थात् इन अधिकारों में से किसी के उल्लंघन के मामले में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आवेदन करने का अधिकार है। इन अधिकारों का सुप्रीम कोर्ट द्वारा विगत वर्षों में गतिशील निवंचन किया गया है और इसे वास्तव में भारत में विधि के शासन के विकास के लिये अधिकार होना कहा जा सकता है।
सूचना के अधिकार के सम्बन्ध में विधिक स्थिति का विकास उक्त सभी अधिकारों के सन्दर्भ में दिये गये सुप्रीम कोर्ट के कई विनिधयों के माध्यम से किया गया है किन्तु अधिक विनिर्दिष्ट रूप से वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के संबंध में, जिसे जानने के अधिकार का प्रतिकूल पहलू होना कहा गया है और एक का अन्य के बिना प्रयोग नहीं किया जा सकता। इन न्यायिक घोषणाओं का रुचिकर पहलू यह है कि अधिकार के क्षेत्र का धीरे-धीरे राजव्यवस्था में और समाज में सांस्कृतिक परिवर्तन को ध्यान में रखकर व्यापक बनाया गया है।
देश की संवैधानिक विधि के भाग के रूप में सूचना के अधिकार का विकास या एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार के कतिपय तार्किक विवक्षा के प्रवर्तन के लिये जैसे समाचार पत्रों के वितरण पर प्रतिबन्ध के नियन्त्रण के लिये सरकारी आदेशों को चुनौती देने के साथ प्रारम्भ हुआ था। इन्हीं मामलों के माध्यम से लोगों की जानने के अधिकार की अवधारणा का विकास किया गया था।

