Right to Information Act और सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया
Shadab Salim
13 Jun 2025 8:30 PM IST

दो दशकों के अधिक से सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया ने संवैधानिक रूप से संरक्षित मूल अधिकार के रूप में सूचना के अधिकार को मान्यता दी है, जो संविधान के अनुच्छेद 19 (वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (प्राण का अधिकार) के अधीन स्थापित है। न्यायालय ने मान्यता दी है कि सरकारी विभागों से सूचना प्राप्त करने का अधिकार लोकतन्त्र के लिये मूल है। सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया ने संगत रूप से नागरिकों के जानने के अधिकार के पक्ष में विनिश्चय किया है।
बेनेट कोलमैन बनाम भारत संघ, एआईआर 1973 में सूचना के अधिकार को अनुच्छेद 19 (1) (क) द्वारा प्रत्याभूत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार के अन्तर्गत शामिल किया जाना निर्णीत किया गया था।
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राज नारायण, एआईआर 1975 एस सी 865 : (1975) में न्यायमूर्ति के के मैथ्यू ने स्पष्ट रूप अधिकथित किया था कि सामान्य नैमित्तिक कारबार को गोपनीयता के आवरण से आच्छादित करना सामान्य जनता के हित में नहीं है। अधिकारियों का अपने कार्यों को स्पष्ट करने और न्यायोचित ठहराने का उत्तरदायित्व दमन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुख्य संरक्षण है।
यह और अवधारित किया गया था कि सरकार में जहां सामान्य जनता के सभी अभिकर्ताओं को उनके आचरण के लिये उत्तरदायी होना चाहिये, वहां कुछ गोपनीयता हो सकती है। लोगों को प्रत्येक सार्वजनिक कार्य, प्रत्येक चीज को जानने का अधिकार है, जिसे सार्वजनिक ढंग में उनके सार्वजनिक कर्मचारियों द्वारा किया जाता है।
पुन: सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया ने सचित, सूचना एवं प्रसारण मन्त्रालय, भारत सरकार बनाम बंगाल क्रिकेट संघ में अवधारित किया था कि इलेक्ट्रॉनिक समाचार माध्यम से सूचना प्रदान करने और प्राप्त करने के अधिकार को वाक की स्वतन्त्रता में शामिल किया गया है। एस पी गुप्ता बनाम भारत संप में प्रत्येक सार्वजनिक कार्य और सार्वजनिक कर्मचारियों द्वारा किये गये संव्यवहार के विवरण को जानने का अधिकार वर्णित किया गया था। पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टी बनाम भारत संप, एआईआर 2004 एससीसी 476 में सूचना के अधिकार को मानवीय अधिकार की प्रास्थिति पर पुनः विस्तारित किया गया था, जो शासन को पारदर्शी तथा उत्तरदायी बनाने के लिये आवश्यक है। इस पर भी बल दिया गया था कि शासन में भागीदारी होनी चाहिए।
सार्वजनिक सुनवायी भारत में सूचना अधिकार के आन्दोलन के लिये मूल बिन्दु है। सार्वजनिक सुनवायी का हथियार एम के एस एस द्वारा राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों के उस भागों में प्रारम्भ किया गया था। लोगों की संलग्नता के साथ भ्रष्टाचार को रोकने के लिये सार्वजनिक सुनवायी प्रारम्भ की गयी थी। सार्वजनिक सुनवायी सार्वजनिक विवादों के बारे में खुले और लोकतान्त्रिक विवाद के अतिरिक्त कुछ नहीं है। सार्वजनिक सुनवायी के इस प्रकार में निर्वाचित प्रतिनिधि, सरकारी अधिकारी, जनता, स्थानीय बुद्धिजीवी वर्ग तथा अभिवक्ता, संवाददाता, गैर सरकारी संगठन, समुदाय आधारित संगठन, बाह्य सम्परीक्षक इत्यादि भागीदारी करेंगे।
सार्वजनिक सुनवायी में साधारणतया विवादों की शिनाख्त करने के पश्चात् उदाहरण के लिये विकास क्रियाकलापों में भ्रष्टाचार की शिनाख्त करने के बाद पुनः विचार-विमर्श होता है। मजदूर किसान शक्ति संगठन में सूखा राहत कार्यों में, जो ग्रामीण निर्धन के लिये स्वीकृत किये गये थे, भ्रष्टाचार, दुरूपयोग और भाई-भतीजावाद की शिनाख्त की थी। इसलिये एम के एस एस ने समाज के वर्ग को शामिल करके अकिड़ा और दस्तावेजों के सारभूत साक्ष्य के साथ ग्रामीण विकास क्रियाकलापों पर जन सुनवायी की श्रृंखला को प्रारम्भ किया था।
जन सुनवायी का संचालन पंचायत राज संस्थानों, सरकारी कार्यालयों और गैर-सरकारी संगठनों में संचालित किया गया था, जो लोक प्राधिकारियों से सारभूत वित्तीय सहायता प्राप्त कर रहे हैं। सामान्य जनता के समक्ष इन सार्वजनिक सुनवाइयों में यह साबित किया जाता है कि अत्यधिक भ्रष्टाचार और दुरूपयोग हो रहा है। यह अभिलेखों और रजिस्टरों के रखरखाव की गोपनीयता और नागरिकों के लिये सार्वजनिक सूचना में पहुंच की कमी के कारण हुआ था। इसलिये, राज्य सरकार या केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रारम्भ किये गये विकास क्रियाकलापों में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिये सार्वजनिक सूचना तक पहुँच होने के लिये अधिनियम को धारण करने की आवश्यकता है।
सार्वजनिक सुनवाई के साथ एम के एस एस ने राजस्थान के विभिन्न भागों में सूचना के अधिकार के लिये प्रत्यक्ष कार्यवाही जैसे धरना को भी प्रारम्भ किया। मांग स्थानीय विकास व्यय से सम्बन्धित सामान्य नागरिकों के सूचना के अधिकार को प्रवर्तित करने के लिये प्रशासनिक आदेशों को जारी करने के लिये बल देना था।
लेकिन सरकार से कोई आश्वासन नहीं दिया गया था और यह जयपुर तक फैल गया था। जयपुर में 70 से अधिक जनसंगठन और कई सम्मानित नागरिक एम के एस एस की मांग का समर्थन करने के लिये आये थे। परिणामस्वरूप राज्य में सूचना का अधिकार अधिनियम को अधिनियमित किया गया था।
राज्य सरकारों में से कुछ ने जैसे गोवा (1997), तमिलनाडु, (1997), राजस्थान (2000), कर्नाटक (2000), दिल्ली (2001), असम (2002), महाराष्ट्र (2003), मध्य प्रदेश (2003) और जम्मू तथा कश्मीर (2003) सूचना का अधिकार अधिनियम को अधिनियमित किया था।
राष्ट्रीय सूचना का अधिकार के पुरःस्थापन के लिये वर्ष 1996 के बाद से प्रारम्भ किया गया है। लोगों के सूचना के अधिकार के लिये राष्ट्रीय आन्दोलन की स्थापना वर्ष 1996 में की गयी थी। इसके संस्थापक सदस्यों में सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, अधिवक्ता, व्यावसायिक, सेवानिवृत्त सिविल सेवक और शिक्षाशास्त्री शामिल थे और इसके प्रारम्भिक उद्देश्य में से एक सूचना के मूल अधिकार के प्रयोग को सुकर बनाने के लिये राष्ट्रीय विधि के अधीन आन्दोलन था
साधारण जन आन्दोलन, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों को दबाव के उत्तर में भारतीय प्रेस कौन्सिल ने मॉडल विधेयक प्ररूपित किया था, जिसे बाद में राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान द्वारा आयोजित कार्यशाला में अद्यतन किया गया था और भारत सरकार को भेजा गया था, जो भारत सरकार द्वारा तैयार किये गये प्रथम प्रारूप विधेयक के लिये निर्देश कागजात में से एक के रूप में था। कुछ राजनैतिक और अन्य कारणों से विधेयक को संसद द्वारा ग्रहण नहीं किया गया था। लेकिन बाद में संसद ने स्वातन्त्र्य सूचना अधिनियम, 2002 अधिनियमित किया था, जिसे सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था।

