सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 9 सूचना आयोगों की शक्तियां (धारा- 18)

Shadab Salim

10 Nov 2021 10:23 AM GMT

  • सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 9 सूचना आयोगों की शक्तियां (धारा- 18)

    सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) के अंतर्गत धारा 18 भी महत्वपूर्ण धाराओं में से एक है। इस धारा में सूचना आयोगों की शक्तियां और उनके कार्यों का उल्लेख किया गया है। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया गया है इस अधिनियम के अंतर्गत सूचना आयोगों का गठन किया गया है जो इस अधिनियम को नियंत्रण में रखते हैं तथा इस अधिनियम के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं इसलिए इस अधिनियम के अंतर्गत सूचना आयोग की शक्तियों का भी महत्वपूर्ण स्थान है और उनका उल्लेख किया जाना भी आवश्यक था।

    इस ही उद्देश्य से इस अधिनियम के अंतर्गत इस धारा को प्रवेश दिया गया है। इस आलेख के अंतर्गत सूचना आयोग की शक्तियां और उनके कार्यों का सारगर्भित उल्लेख किया जा रहा है तथा मूल धारा को प्रस्तुत किया जा रहा है।

    यह इस अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत की गई मूल धारा का स्वरूप है:-

    सूचना आयोगों की शक्तियां और कृत्य:-

    (1) इस अधिनियम के उपबंधों के अधीन रहते हुए, यथास्थिति केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह निम्मलिखित किसी ऐसे व्यक्ति से शिकायत प्राप्त करे और उसकी जांच करे

    (क) जो, यथास्थिति, किसी केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी को, इस कारण से अनुरोध प्रस्तुत करने में असमर्थ रहा है कि इस अधिनियम के अधीन ऐसे अधिकारी की नियुक्ति नहीं की गई है या, यथास्थिति, केन्द्रीय सहायक लोक सूचना अधिकारी या राज्य सहायक लोक सूचना अधिकारी ने इस अधिनियम के अधीन सूचना या अपील के लिए धारा 19 को उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी अथवा ज्येष्ठ अधिकारी या यथास्थिति, केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग को उसके आवेदन को भेजने के लिए स्वीकार करने से इंकार कर दिया है।

    (ख) जिसे इस अधिनियम के अधीन अनुरोध की गई कोई जानकारी तक पहुंच के लिए इंकार कर दिया गया है।

    (ग) जिसे इस अधिनियम के अधीन विनिर्दिष्ट समय सीमा के भीतर सूचना के लिए या सूचना तक पहुंच के लिए अनुरोध का उत्तर नहीं दिया गया है।

    (घ) जिससे ऐसी फीस की रकम का संदाय करने की अपेक्षा की गई है, जो वह अनुचित समझता है।

    (ङ) जो यह विश्वास करता है कि उसे इस अधिनियम के अधीन अपूर्ण भ्रम में डालने वाली या मिथ्या सूचना दी गई है और

    (च) इस अधिनियम के अधीन अभिलेखों के लिए अनुरोध करने या उन तक पहुँच प्राप्त करने से संबंधित किसी अन्य विषय के संबंध में।

    (2) जहाँ यथास्थिति केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग का यह समाधान हो जाता है कि उस विषय में जांच करने के लिए युक्तियुक्त आधार है वहाँ वह उसके संबंध में जांच आरम्भ कर सकेगा।

    (3) यथास्थिति, केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य आयोग को, इस धारा के अधीन किसी मामले में जाँच करते समय वही शक्तियाँ प्राप्त होंगो, जो निम्नलिखित मामलों के सम्बन्ध में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के अधीन किसी वाद का विचारण करते समय सिविल न्यायालय में निहित होती हैं, अर्थात्

    (क) किन्हीं व्यक्तियों को समन करना और उन्हें उपस्थित कराना मौखिक या लिखित साक्ष्य देने के लिए और दस्तावेज या चीजें पेश करने के लिए उनको विवश करना।

    (ख) दस्तावेजों के प्रकटीकरण और निरीक्षण की अपेक्षा करना।

    (ग) शपथ-पत्र पर साक्ष्य को अभिग्रहण करना।

    (घ) किसी न्यायालय या कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतियां मंगाना।

    (ङ) साक्षियों या दस्तावेजों की परीक्षा के लिए समन जारी करना। और

    (च) कोई अन्य विषय, जो विहित किया जाए।

    (4) यथास्थिति, संसद या राज्य विधान मंडल के किसी अन्य अधिनियम में अंतर्विष्ट किसी असंगत बात के होते हुए भी, यथास्थिति, केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग इस अधिनियम के अधीन किसी शिकायत की जांच करने के दौरान, ऐसे किसी अभिलेख की परीक्षा कर सकेगा, जिसे यह अधिनियम लागू होता है और जो लोक प्राधिकारी के नियंत्रण में है और उसके द्वारा ऐसे किसी अभिलेख को किन्हीं भी आधारों पर रोका नहीं जाएगा।

    यह धारा सामान्य जनता से परिवाद प्राप्त करने के लिए केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोग की शक्तियों और कृत्यों को अधिकथित करती है।

    केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग, यथास्थिति, जाँच प्रारम्भ करता है, यदि उसे समाधान है कि ऐसी जाँच के लिए आधार है। सूचना आयोग, केन्द्रीय और राज्य दोनों में सभी मामलों के सम्बन्ध में वे सभी शक्तियाँ निहित हैं, जो सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन सिविल न्यायालय में निहित हैं।

    यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि केन्द्रीय और राज्य सूचना आयोग सूचना के प्रसारण के लिए सीधे आवेदन प्राप्त नहीं करते। यदि आवेदन प्राप्त करने में कानूनी प्राधिकारियों के विरुद्ध कोई शिकायत है, तो केवल नागरिक सीधे केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग के समक्ष परिवाद करने का हकदार है।

    यह भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतन्त्र हैं। राज्य सूचना आयोग केन्द्रीय सूचना आयोग के अधीनस्थ नहीं है। इसलिए, केन्द्रीय सूचना आयोग राज्य सूचना आयोग को कोई निर्देश जारी नहीं कर सकता।

    उपधारा (3) के प्रवर्तन को किसी अन्य अधिनियम द्वारा प्रवारित नहीं किया जा सकता।

    अधिनियम यह विहित करता है कि जब एक बार अपील दाखिल कर दी गई हो, तब इसका उत्तर इस प्रकार नामित एफ ए ए द्वारा दिया जाना चाहिये।

    उपधारणा:- राज्य सूचना आयेग किसी अधिनियम के प्रावधान के उल्लंघन की उपधारणा कर सकता है।

    उत्तर पुस्तिका की सुगमता:-

    सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अधीन प्राधि से यह अपेक्षा की जाती है कि ये यह सुनिश्चित करें कि उक्त अधिनियम के अधीन आवेदक के अधिकार को संरक्षित किया गया है तथा सूचना/उत्तर पुस्तिका को जितना शीघ्र हो सके आवेदन को प्रस्तुत करने पर प्रदान किया जा सके। लाखों विद्यार्थी परीक्षा देते हैं तथा काफी संख्या में विद्यार्थी" अधिनियम, 2005" के अन्तर्गत अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए अपनी उत्तर पुस्तिका की सूचना/पहुंच को ईप्सा कर सकते हैं।

    तथ्य कि, विनियम यह अपेक्षा करते हैं कि ऐसी उत्तर पुस्तिकाओं को एक समयबद्ध सीमा के अन्दर नष्ट कर दिया गया है। इन परिस्थितियों में, याचीगण/प्राधिकारीगण से यह सुनिश्चित करने की अपेक्षा की जाती है कि यदि उत्तर पुस्तिका के सम्बन्ध में सूचना प्रदान करने के लिए आवेदन दिया जाता है तथा उसे जितना शीघ्र हो सके ग्रहण किया जाता है और नष्ट करने की तिथि पास आ रही है तो उत्तर पुस्तिकाओं को परिरक्षित किया जाता है जैसा कि आवेदक को "अधिनियम, 2005" के अधीन निहित है।

    हालांकि इस निर्देश का तात्पर्य यह नहीं होगा कि सूचना को परिरक्षित करने की अवधि को विस्तारित किया जा रहा है। इससे केवल यह ध्वनित होता है कि यदि जैसा कि विनियमों के अन्तर्गत प्रावधानित है, परिरक्षण की अवधि के भीतर परीक्षार्थी द्वारा सूचना/उत्तर पुस्तिका को प्रदान करने की ईप्सा की गयी है तो परीक्षार्थी के ऐसे अधिकारों का संरक्षण किया जाता है।

    इस निर्देश का जारी किया जाना चाहिए इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि विद्यार्थियों का भविष्य/कैरियर परिणाम पर केन्द्रित होता है। ऐसी परिस्थितियों में, "अधिनियम, 2005" के अधीन प्रत्येक लोक सेवक का यह कर्तव्य हो जाता है कि ऐसे आवेदक के अधिकार को प्रभावी बनाने के लिए यह अतिशीघ्रता से सूचना को प्रदान किये जाने को सुनिश्चित करे। अतः, "अधिनियम, 2005" को अर्थ प्रदान करने के लिए निर्देश जारी किये जा रहे हैं।

    आयोग न्यायालय की डिक्री के निष्पादन के लिए फोरम नहीं- आयोग उच्च न्यायालय द्वारा पारित डिक्री के निष्पादन के लिए इस धारा के अधीन परिवाद को सुनवायी करने के लिए समुचित फोरम नहीं है।

    फीस के प्रतिदाय के लिए आदेश देने की अधिकारिता राज्य मुख्य सूचना आयुक्त को फीस के प्रतिदाय के लिए आदेश देने की अधिकारिता नहीं है।

    राज्य सूचना आयोग को फीस के प्रतिदाय के लिए आदेश पारित करने के लिए कोई अधिकारिता नहीं है।

    शब्द "परीक्षा" का नियंचन:-

    शब्द "परीक्षा" यह सुनिश्चित करने के लिए परीक्षा तक सीमित होगा कि क्या दस्तावेज प्रकटन से मुक्त है या नहीं और यह विशेषज्ञ द्वारा दस्तावेज की परीक्षा को शामिल नहीं करेगा।

    मुख्य सूचना आयुक्त की शक्तियाँ:-

    मुख्य सूचना आयुक्त को सूचना की आपूर्ति के लिए निर्देश देने की शक्ति है और वह, कुछ मामलों में, यदि सूचना सही ढंग से प्रदान नहीं की जाती, ऐसी सूचना को शुद्ध करने तथा उसे प्रदान करने के लिए निर्देश देने की कार्यवाही कर सकता है। यह विचार स्टेट ऑफ गुजरात चनाम पाड्या विपुल कुमार दिनेशचन्द्र, ए आई आर 2009 गुजरात 12 के प्रकरण में प्रस्तुत किया गया है।

    रजिस्ट्रार, कर्नाटक लोक आयुक्त, बंगलौर का कार्यालय बनाम कर्नाटक सूचना आयोग, बंगलौर, ए आई आर 2014 कर्नाटक 681 के वाद में कहा गया है कि सूचना आयोग या तो आवेदक द्वारा अभिलेख का निरीक्षण अनुज्ञात करने के लिये या सूचना प्रदान करने/ अभिलेख की प्रतिलिपियों को प्रदान करने के लिये निर्देश जारी नहीं कर सकता है।

    कोई परिसीमा नहीं:-

    इस धारा के अधीन शक्तियों का प्रयोग करने और कृत्यों का निर्वहन करने के लिये उपबन्धित कोई परिसीमा नहीं है।

    प्रथम अपील:-

    प्रथम अपील तब दाखिल की जानी चाहिए, जब ईप्सित सूचना का प्रत्याख्यान किया जाता है।

    द्वितीय अपील:-

    द्वितीय अपील की स्वीकार नहीं किया जा सकता है, जब तक, प्रथम अपील के अस्वीकार करने को दर्शाते हुए दस्तावेज आयोग के समक्ष प्रस्तुत न किया गया हो। यह आदेश बापूराम तिमंग बनाम अपर मुख्य अभियन्ता के मामले में दिया गया है।

    हरपाल सिंह बनाम उत्तरप्रदेश राज्य 2017 (4) ए डब्ल्यू सी 4277 (एल बी) याची द्वारा पुनरावृत्त प्रतिवाद के बावजूद सूचना को प्रदान करने की ईप्सा के लिए द्वितीय अपील का निस्तारण करने के लिये 103 की कुल संख्या की द्वितीय अपीलों को एक साथ समेकित कर आक्षेपित आदेश को पारित किया गया था। याची ने सिचाई विभाग, जहां वह नियुक्त था, से सम्बन्धित 103 परिवादों को दाखिल किया था। सेवानिवृत्ति लाभों का संदाय उसे नहीं किया गया था।

    इस प्रकार से, यह अपने तत्कालीन विभाग से नियमित सूचनाओं को प्राप्त करने की ईप्सा कर रहा था। उसे सभी सूचनाओं का प्रदान किया गया था तथा कोई भी मामला विचाराधीन नहीं था। रिट याचिका को दो वर्ष आठ माह तथा बारह दिन के विलम्ब के साथ दाखिल किया गया था। इस तथ्य के बावजूद कि आक्षेपित आदेश के पारित करने का याची को व्यक्तिगत ज्ञान था। रिट याचिका, लोपों तथा त्रुटिपूर्ण होने के कारण, समर्थनीय न होने के रूप में खारिज कर दिया गया।

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