सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 11 अधिनियम के अंतर्गत शास्ति (दंड) (धारा- 20)

Shadab Salim

12 Nov 2021 5:45 AM GMT

  • सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) भाग: 11 अधिनियम के अंतर्गत शास्ति (दंड) (धारा- 20)

    सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) के अंतर्गत धारा 20 शास्ति का उल्लेख करती है। इसका अर्थ है दंड। यह अधिनियम सूचना के अधिकार को अत्यधिक समृद्ध करता है। इस अधिनियम के अंतर्गत वे सभी व्यवस्था कर दी गई है जो सूचना प्राप्त करने में सहायक हो। नागरिकों को सूचना प्राप्त करने हेतु स्थान बताया गया है, वहां सुनवाई नहीं होने पर उसकी शिकायत करने का स्थान बताया गया है, वहां भी सुनवाई नहीं होने पर अपील करने का निर्देश दिया गया है।

    इस अधिनियम के अंतर्गत लोक अधिकारियों को सूचना नहीं देने यह सूचना मांगने वाले व्यक्ति के विरुद्ध असदभावनापूर्वक व्यवहार करने तथा भ्रमक सूचना देने या सूचना को नष्ट कर देने हेतु दंड की व्यवस्था की गई है।

    हालांकि यह दंड कारावास का नहीं है केवल अर्थदंड है तथा अनुशासनहीनता की कार्यवाही का दंड है परंतु इस शक्ति को इस अधिनियम में प्रवेश देने का उद्देश्य लोक अधिकारियों के भीतर ऐसे भय को पैदा करना है जिससे वह कोई भी सूचना देने में आनाकानी न करें तथा हिले हवाले न दे। इस आलेख के अंतर्गत इस अधिनियम की धारा 20 पर सारगर्भित टीका प्रस्तुत किया जा रहा है तथा इस धारा से संबंधित अदालतों के लिए कुछ न्याय निर्णय भी प्रस्तुत किए जा रहा है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत किया गया धारा 20 का मूल स्वरूप है:-

    शास्ति:-

    (1) जहाँ किसी शिकायत या अपील का विनिश्चय करते समय, यथास्थिति, केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग की यह राय है कि, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी ने, किसी युक्तियुक्त कारण के बिना सूचना के लिए कोई आवेदन प्राप्त करने से इंकार किया है या धारा 7 की उपधारा (1) के अधीन सूचना के लिए विनिर्दिष्ट समय के भीतर सूचना नहीं दी है या असद्भावपूर्वक सुचना के लिए अनुरोध से इंकार किया है या जानबूझकर गलत, अपूर्ण भ्रामक सूचना दी है या उस सूचना को नष्ट कर दिया है, जो अनुरोध का विषय थी या किसी रीति से सूचना देने में बाधा डाली है, तो वह ऐसे प्रत्येक दिन के लिए, जब तक आवेदन प्राप्त किया जाता है या सूचना दी जाती है, दो सौ पचास रुपए की शास्ति अधिरोपित करेगा, हालांकि, ऐसी शास्ति की कुल रकम पच्चीस हजार रुपए से अधिक नहीं होगी:

    परन्तु यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी को, उस पर कोई शास्ति अधिरोपित किए जाने के पूर्व सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर दिया जाएगा:

    परन्तु यह और कि यह साबित करने का भार कि उसने युक्तियुक्त रूप से और तत्परतापूर्वक कार्य किया है, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी पर होगा।

    (2) जहाँ किसी शिकायत या अपील का विनिश्चय करते समय, यथास्थिति, केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग की यह राय है कि, यथास्थिति, केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी, किसी युक्तियुक्त कारण के बिना और लगातार सूचना के लिए कोई आवेदन प्राप्त करने में असफल रहा है या उसने धारा 7 की उपधारा (1) के अधीन विनिर्दिष्ट समय के भीतर सूचना नहीं दी है या असद्भावपूर्वक सूचना के लिए अनुरोध से इंकार किया है या जानबूझकर गलत, अपूर्ण या भ्रामक सूचना दी है या ऐसी सूचना को नष्ट कर दिया है, जो अनुरोध का विषय थी या किसी रीति से सूचना देने में बाधा डाली है वहां वह यथास्थिति, ऐसे केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी के विरुद्ध उसे लागू सेवा नियमों के अधीन अनुशासनिक कार्रवाई के लिए सिफारिश करेगा।

    यह धारा शास्ति के लिए प्रक्रिया को अधिकथित करती है। केन्द्रीय सूचना आयोग/राज्य सूचना आयोग केन्द्रीय और राज्य लोक सूचना अधिकारी या केन्द्रीय और राज्य सहायक लोक सूचना अधिकारी या ऐसे अन्य लोक सूचना अधिकारियों या व्यक्तियों पर, जिन्हें इस अधिनियम के प्रयोजन के लिए उक्त अधिकारियों के समान माना जा रहा है, पर उसके किये गये या न किये गये या कपटपूर्वक किये गये कार्य के लिए शास्ति उद्ग्रहीत करने के लिए प्राधिकृत है। शास्ति आवेदन प्राप्त करने में असफलता, समय के अन्तर्गत सूचना प्रदान करने से इन्कार करने और गलत या अपूर्ण या भ्रामक सूचना प्रदान करने के मामले में भी अधिरोपित की जा सकती है।

    विधि विहित समय के भीतर सूचना अधिकारी द्वारा सूचना देने को उपबंधित करती है। सूचना देने में असफलता शास्ति के लिए उत्तरदायी होगी।

    आयोग की शक्ति:- फारुक अहमद सरकार बनाम चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स के मामले में कहा गया है कि उत्तर के लिए अधिनियम में नियत अवधि के पश्चात् एक मास से अधिक के विलम्ब के पश्चात् के मामले में आयोग कारण बताओ नोटिस जारी करने के लिए सशक्त है, कि क्यों न इस विलम्ब के लिए शास्ति उदग्रहीत की जाये।

    इसे दण्ड अधिरोपित करने अथवा अनुशासनिक कार्यवाही करने की भी शक्ति प्राप्त है। आयोग की कार्यवाहियों को नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों के अनुरूप होना है।

    आयोग जुर्माना अधिरोपित कर सकता है, यदि सूचना प्रदान करने के लिये निर्देश का अनुपालन नहीं किया गया है।

    धारा 20 (2) शक्ति के प्रयोग के लिए नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों के अनुपालन को पूर्ववर्ती शर्त नहीं बनाती है, फिर भी धारा 20 (2) में नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों को पढ़ा जाना है। शास्ति अधिरोपित की जा सकती है, यदि समवर्ती निष्कर्ष है कि सम्बद्ध अधिकारी ने नियत समय के भीतर सूचना प्रदान करने में त्रुटि कारित की है। शास्ति अधिरोपित की जा सकती है, यदि समवर्ती निष्कर्ष है कि सम्बद्ध अधिकारी ने नियत समय के भीतर सूचना प्रदान करने में त्रुटि कारित की है।

    यदि मांगी गयी सूचना तीस दिनों की नियत अवधि के भीतर नहीं दी जाती, तो शास्ति उत्तरदायी प्राधिकारी पर अधिरोपित की जा सकती है।

    इस धारा के अधीन शास्ति अधिरोपित करने की शक्तियाँ प्रकृति में अर्द्ध-न्यायिक हैं। यह तथ्य कल्पनाथ चौबे बनाम सूचना आयुक्त, 2010 (3) के मामले में दिया गया है।

    रमेश शर्मा बनाम स्टेट इन्फार्मेशन कमीशन, हरियाणा, 2008 के प्रकरण में कहा गया है कि अपेक्षित सूचना प्रदान करने में असफल होने वाले लोक प्राधिकारियों को दण्डित किया जा सकता है।

    लोक प्राधिकारी अधिनियम के अनुसार कार्य करने में असफल रहा है और प्रभावी ढंग से किसी युक्तियुक्त कारण के बिना सूचना का प्रत्याख्यान किया है, जो धारा 20 (1) के दाण्डिक प्रावधानों को आकर्षित करता है।

    अजीत कुमार जैन बनाम हाईकोर्ट ऑफ डेलही के मामले में कहा गया है कि यदि भ्रामक या अपूर्ण सूचना प्रदान की जाती है, तो शास्ति अधिरोपित की जा सकती है।

    सूचना प्रदान करने में केवल चार मास से अधिक के विलम्ब के लिए लोक सूचना अधिकारों के विरुद्ध दाण्डिक कार्यवाही प्रारम्भ की जा सकती है।

    सूचना प्रदान करने में कुछ विलम्ब के कारण, आयोग त्रुटि करने वाले अधिकारी के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही करने की सिफारिश करने के लिए सशक्त है। यह आदेश रमेश शर्मा बनाम स्टेट इन्फार्मेशन कमीशन, हरियाणा, ए आई आर 2008 पी एण्ड एच 1261 के मामले में दिया गया है।

    शास्ति जैसा कि सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 को धारा 5 के अधीन गठित सूचना अधिकारी पर " अधिनियम, 2005 की धारा 20 के अधीन शास्ति अधिरोपित की जाती है, तब वह व्यक्ति स्वयं ही शास्ति के लिए उत्तरदायी होता है, इस प्रकार, यदि सम्बन्धित अधिकारी शास्ति के अधिरोपण से क्षुध महसूस करता है तथा उच्चतर न्यायालय के समक्ष अपनी व्यथा को व्यक्त करना चाहता है तब यह ऐसा अपनी वैयक्तिक क्षमता में कर सकता है तथा उक्त प्रयोजन के लिये यह केवल प्राइवेट अधिवक्ता को संलग्न कर उसके माध्यम से रिट याचिका को दाखिल कर सकता है लेकिन वह जैसा कि एल आर मैनुअल में परिभाषित किया गया अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता अथवा मुख्य स्थाई अधिवक्ता के माध्यम से नहीं दाखिल कर सकता है।

    जैसा कि वैयक्तिक क्षमता में याची द्वारा दाखिल की गयी रिट याचिका को मुख्य स्थाई अधिवक्ता के कार्यालय के माध्यम से दाखिल नहीं किया जाना चाहिये था याची प्राइवेट अधिवक्ता को संलग्न करने तथा उसके माध्यम से रिट याचिका को दाखिल करने के लिए स्वतंत्र है। यदि यह इस प्रकार करने का चुनाव करता है, तो यह आशा की जाती है कि यदि किसी रिट याचिका को दाखिल किया जाता है, सम्बन्धित न्यायालय द्वारा रिट याचिका के काफी समय पूर्व से विचाराधीन रहने के प्रभाव पर विचार करेगा।

    शास्ति उचित:-

    लोक प्राधिकारी के विरुद्ध अधिरोपित शास्ति उचित है यदि अधिनियम के प्रावधानों के गलत निर्वचन पर सूचना का प्रत्याख्यान गम्भीर त्रुटि है।

    शास्ति का अभिषण उचित होगा यदि

    (1) लोक प्राधिकारी ने अपेक्षित सूचना प्रदान नहीं की है।

    (ii) लोक प्राधिकारी ने अन्तर्ग्रस्त मुद्रा विकाधक के सम्बन्ध में आवश्यक तथ्यों को छिपाया है।

    (iii) लोक प्राधिकारी ने सूचना प्रदान करने के लिए आयापक निर्देश का अनुपालन नहीं किया है।

    (IV) निर्धारित तारीख पर अनुपस्थित रहा है।

    नरेंद्र कुमार बनाम मुख्य सूचना अधिकारी, उत्तराखण्ड, ए आई आर 2014 उत्तराखंड 40 के वाद में अभिनिर्धारित किया गया है कि विलंब हेतु उचित आधार चाही गई सूचना के प्रदाय में विलंब हुआ था क्योंकि बोर्ड का संपूर्ण कर्मचारी दल कलेक्टर के आदेशानुसार आंकड़े और मतदाता पहचान पत्र बनाने में व्यस्त था और प्राकृतिक आपदा के उपरान्त राहत कार्य में भी व्यस्तता समयावधि में सूचना के अप्रदाय हेतु उचित आधार है।

    अनुशासनिक कार्यवाही की सिफारिश करने की शक्ति:-

    इसका प्रयोग धारा 20 (2) में विनिर्दिष्ट व्यतिक्रमों के आधार पर किया जा सकता है। आयोग द्वारा व्यतिक्रम का कोई नया आधार नहीं जोड़ा जा सकता है। उपेक्षा स्वयं अनुशासनिक कार्यवाही करने की सिफारिश करने का आधार नहीं है। धारा 20 (2) के अधीन कार्यवाही के लिये उपेक्षा को सतत् और बिना किसी युक्तियुक्त कारण से होना है। यह अभिनिश्चय मनोहर मानिकराव अंतुले बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए आई आर 2013 एस सी 6811 के मामले में किया गया है।

    शास्ति का अधिरोपण:-

    शास्ति केवल परिवाद या अपील को निपटाते समय अधिरोपित की जा सकती है।

    अधिनियम के अन्तर्गत सूचना 30 दिनों के भीतर ही प्रदाय किये जाने की अपेक्षा की गयी थी यदि अभिलेख कार्यालय में उपलब्ध था। सूचना प्राप्त करने का अधिकार इस विस्तार तक विस्तारित नहीं किया जाना था कि हालांकि फाइल अच्छे कारणों से उपलब्ध नहीं थी फिर भी फाइल प्राप्त करने और सूचना देने के लिये कार्यालय द्वारा कदम उठाने की अपेक्षा की जाती थी। परिणामस्वरूप सूचना प्रदान करने को उसकी और मे चूक के लिये लोक सूचना अधिकारी पर दण्ड का अधिरोपण अनुचित था।

    यदि आवेदन का व्यावहारिक रूप से अधिनियम में विहित समयावधि के भीतर उत्तर दिया गया था और सूचना, जैसा कि अभिलेख पर उपलब्ध थी, प्रदान की गई थी, तब दण्ड के अधिरोपण के लिये कोई मामला नहीं बनता है।

    यदि आवेदक की ओर से सद्भावना की कमी या अनिश्चितता है तो उस पर शास्ति अधिरोपित की जा सकती है।

    यदि आयोग लोक सूचना अधिकारी के स्पष्टीकरण को संतोषजनक पाता है, तब दण्ड की कार्यवाही समाप्त की जा सकती है। यह अभिनिश्चय कलीमुद्दीन बनाम शिक्षा निदेशक के मामले में दिया गया है।

    मेरठ विकास प्राधिकरण एवं अन्य बनाम उत्तरप्रदेश सूचना आयोग एवं अन्य, 2017 (6) के मामले में कहा गया है कि सूचना को प्रदान करने में एक सौ दिनों का विलम्ब कारित किया गया था। राज्य सूचना आयोग ने याची सं० 3 को सूचना को प्रदान करते समय तत्परता से तथा युक्तियुक्त ढंग में कार्य किया था, सुनवाई का अवसर प्रदान किये बिना दण्ड का आदेश पारित किया था। यदि याची सं० 2 तथा 3 को युक्तियुक्त अवसर प्रदान किया जाता, तो वे आयुक्त के संज्ञान में सम्पूर्ण तथ्यों को ला सकते थे।

    शास्ति का आदेश जैसा कि पाया गया है, सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 20 के अतिक्रमण में है। आक्षेपित आदेश को विधि को दृष्टि समर्थनीय न होने के कारण, अपास्त किया जाता है।

    शास्ति के आदेश को अपास्त करना:-

    लुईस मैथ्यू बनाम राज्य सूचना आयुक्त, 2016 (160) ए आई सी 720 (केरल) के मामले में सूचना की ईप्सा की गयी थी कि किन परिस्थितियों के अन्तर्गत चतुर्थ प्रत्युत्तरदाता के स्वामित्याधीन भूमि को "धोदू" के रूप में परिवर्तित कर दिया गया था तथा यह सुनिश्चित किया जाये कि अभिकथित भूमि के क्षेत्र को "धोडू" के रूप में परिवर्तित किया गया था। अभिनिर्धारित किया गया कि, ईप्सित सूचना अधिनियम के अधीन परिभाषित "सूचना के अन्तर्गत नहीं आती है। संविधि के निबन्धनों के अनुसार आवेदन राजसाक्षी (अप्रूवर) आवेदन की कोटि में नहीं आता है। जैसा कि धारा 20 के अन्तर्गत अनुध्यात किया गया है मामले में सम्भावित परिस्थिति उत्पन्न नहीं होती है। शास्ति के आक्षेपित आदेश को अपास्त किया गया।

    शमशाद अहमद एवं अन्य बनाम सूचना आयोग, इन्दिरा भवन, अशोक मार्ग, लखनऊ एवं अन्य 2010 (129) ए एल आर 596 (इलाहाबाद) सूचना का अप्रदाय"अधिनियम, 2005" की धारा 20 (1) के अधीन वसूली के साथ 25000 रुपये की शास्ति का अधिरोपण किया गया था।

    अभिनिर्धारित किया गया कि कोई स्पष्टीकरण नहीं था कि किस प्रकार की सूचना का प्रदाय आवेदक को नहीं किया गया था। किसी संसाधन को समनुदेशित किये बिना राज्य सूचना आयोग द्वारा वरिष्ठ न्यायिक अधिकारी (अपर जिला न्यायाधीश) को जो कि संवैधानिक प्राधिकारी भी था, को समन किया गया था। ऐसे अधिकारी को राज्य सूचना आयोग के अधीनस्थ नहीं माना जा सकता है।

    उक्त के दृष्टिगत इस मामले में राज्य सूचना आयोग का दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से पूर्वाग्रह तथा विचार एवं कारणों से प्रभावित था तथा सद्भावपूर्ण के अन्यथा था। चांडीगण 50,000/- रुपये मात्रीकृत धनराशि को प्राप्त करने के हकदार हैं जिसे सम्बन्धित राज्य सूचना आयोग द्वारा याची को संदाय किया जायेगा।

    कारण बताओ नोटिस:-

    धारा 20 (1) के अधीन, कारण बताओ नोटिस लोक प्राधिकारी को जारी की जा सकती है, यदि उसने लम्बा समय व्यतीत होने के बावजूद अपीलार्थी को पर्याप्त रूप से सूचना नहीं दी है। यह निर्णय दिनेश कुमार बनाम डिप्टी कमिश्नर एण्ड पी आई आर के मामले में दिया गया है।

    सबूत का भार:-

    नीरज कुमार बनाम डिपार्टमेंट ऑफ फूड एण्ड सप्लाइज, एन सी टी डेलही के मामले में कहा गया है कि सबूत का भार कि लोक सूचना अधिकारी ने युक्तियुक्त रूप से और तत्परता से कार्य किया है लोक सूचना अधिकारी पर है।

    यथा उपबंधित के सिवाय दण्ड की कोई कमी अथवा वृद्धि नहीं:-

    संजय हिण्डवान बनाम राज्य सूचना आयोग, ए आई आर 2013 एच पी 30 के मामले में कहा गया है कि अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो आयोग को यथा उपबंधित के सिवाय दण्ड को या तो कम करने के लिये या बढ़ाने के लिये सशक्त करता है। यदि आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि विलम्ब के लिये युक्तियुक्त आधार है अथवा यह कि संबद्ध लोक सूचना अधिकारी (पी आई ओ) ने विलम्ब को संतोषजनक रूप से स्पष्ट कर दिया है, तब कोई दण्ड अधिरोपित नहीं किया जा सकता है। हालांकि जब एक बार आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि दण्ड अधिरोपित किया जाना है, तब इसे 250 रुपये प्रतिदिन की दर से न कि आयोग की सनक और इच्छा पर किसी अन्य दर पर होना चाहिए।

    आदेश की वापसी:-

    उत्तरप्रदेश सूचना का अधिकार नियमावली, 2015 के नियम 12 के अधीन आदेश की वापसी के आवेदन को नामंजूर कर दिया गया था। सूचना प्राप्त करने वाले व्यक्ति द्वारा दाखिल परिवाद पर उसके प्रस्तुतिकरण की अनुपस्थिति के लिए याची के विरुद्ध शास्ति के आदेश को पारित किया गया था।

    डॉ० नूतन ठाकुर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 2018 के मामले में कहा गया है कि अनुपस्थिति चूंकि आयोग की कार्यवाहियों में वैयक्तिक कोई त्रुटि नहीं थी आयोग को अपने आदेश का पुनर्विलोकन करने का आधार उपलब्ध है।

    विधि तथा आदेश में याची का प्रभावी ढंग में उपयोग करना आयोग के समक्ष उसकी अनुपस्थिति का कर्तव्य था आदेश की वापसी के लिए आवेदन में याची द्वारा दिया गया कारण आदेश को वापस मंगाने के लिए आयोग को शक्ति का प्रयोग करने के लिए क्षेत्राधिकार प्रदान किया गया है जैसा कि नियमों में आधार के रूप में प्रगणित किया गया है।

    ऐसे आवेदन में दिये गये कारण की सत्यता की सत्यवादिता का सत्यापन आयोग द्वारा किये जाने की आवश्यकता है। आदेश की वापसी को ईप्सा करने वाले आवेदन का विनिश्चय आयोग द्वारा सूचना प्राप्त करने वाले व्यक्ति को नोटिस जारी करने के पश्चात् नये सिरे से करना चाहिए।

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