हिन्दू विधि भाग 4 : जानिए दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन (Restitution of Conjugal Rights) क्या होती है

Shadab Salim

23 Aug 2020 5:53 AM GMT

  • हिन्दू विधि भाग 4 :  जानिए दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन (Restitution of Conjugal Rights) क्या होती है

    हिंदू विधि के अधीन विवाह एक संविदा तथा संस्कार दोनों का मिश्रित रूप है। यदि हिंदू लॉ के अधीन विवाह को संस्कार माना भी जाए तो वर्तमान हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (The Hindu Marriage Act, 1955) के अधीन यह एक पारिवारिक संविदा मालूम होता है। जब दो पक्षकार आपस में विवाह संपन्न करते हैं तो ऐसे विवाह के संपन्न होने के पश्चात उन दोनों के भीतर कुछ सामाजिक अधिकार तथा दायित्वों का जन्म होता है।

    विवाह के उपरांत विवाह के पक्षकार पति तथा पत्नी एक साथ रहते हैं तथा एक दूसरे के प्रति दोनों को साहचर्य का अधिकार होता है। साहचर्य के अधिकार के अंतर्गत दोनों का जीवन व्यतीत होता है। विवाह के दोनों पक्षकार विवाह के संपन्न होने के बाद संतान उत्पत्ति भी करते हैं।

    विवाह के दोनों पक्षकारों के साथ रहते हुए समय के साथ कुछ विवादों भी हो सकते हैं। कभी-कभी विवाद बढ़ जाते हैं और विवाह के विच्छेद की परिस्थिति सामने आकर खड़ी हो जाती है। जब विवाह का विच्छेद होता है तो यह एक बड़ा सामाजिक अपराध प्रतीत होता है, क्योंकि विवाह के उपरांत पक्षकारों द्वारा संतान की उत्पत्ति भी कर ली जाती है।

    ऐसी परिस्थितियों में संतान का पालन पोषण बहुत कष्ट कारक हो जाता है। विवाह से उत्पन्न होने वाली संतान का पालन पोषण विवाह के दोनों पक्षकार पति और पत्नी पर आता है। दोनों पक्षकारों का यह दायित्व होता है कि वह साथ रहते हुए अपनी संतान का पालन पोषण करें। कभी ऐसी स्थिति आती है जबकि दोनो को दांपत्य सूत्र से बंधित रखना कठिन हो जाता है।

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 विवाह के टूटने के पूर्व विवाह के पक्षकारों को साथ रहने के कुछ अवसर प्रदान करता है। इस अधिनियम के माध्यम से यह प्रयास किया गया है कि जहां तक हो सके विवाह का विच्छेद नहीं हो, विवाह के पक्षकार साथ रहें। विवाह के पक्षकारों को साथ रखने के उद्देश्य से ही इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 9 का समावेश किया गया है। अधिनियम की धारा 9 दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन (Restitution of Conjugal Rights) से संबंधित है।

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 9

    जब विवाह के पक्षकारों में से कोई पक्षकार बिना किसी युक्तियुक्त कारण (Reasonable excuse) के विवाह के दूसरे पक्षकार को छोड़कर चला गया है तो ऐसी परिस्थिति में जिस पक्षकार को छोड़ कर गया है वह पक्षकार न्यायालय की शरण ले सकता है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 9 विवाह को उस पक्षकार को यह अधिकार देती है कि वह न्यायालय के माध्यम से विवाह के उस पक्षकार को वापस अपने साथ रहने के लिए बुला सकता है जो उसे छोड़ कर गया है।

    अधिनियम की धारा के शब्दों के अनुसार

    'जबकि पति या पत्नी में से किसी ने युक्तियुक्त प्रतिहेतु के बिना दूसरे से अपना साहचर्य प्रत्याहृत कर लिया है तब परिवेदित पक्षकार दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिए याचिका द्वारा आवेदन जिला न्यायालय में कर सकेगा और न्यायालय ऐसी याचिका में किए गए कथनों की सत्यता के बारे में और बात के बारे में आवेदन मंजूर करने का कोई वैध आधार नहीं है अपना समाधान हो जाने पर तदनुसार दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिए आज्ञप्ति देगा।"

    स्पष्टीकरण- जहां यह प्रश्न उठता है कि क्या साहचर्य से प्रत्याहरण के लिए युक्तियुक्त प्रतिहेतु है वहां युक्तियुक्त प्रतिहेतु साबित करने का भार उस व्यक्ति पर जिसने साहचर्य से प्रत्याहरण किया है।

    अधिनियम की धारा इस उपचार के संबंध में व्यख्या करती है कि जिस व्यक्ति ने स्वयं को साहचर्य से दूर किया है वह दांपत्य अधिकारों के प्रति प्रत्यास्थापन हेतु याचिका प्रस्तुत नहीं कर सकता, अपितु याचिका वह पक्ष करता करता है जिसे साहचर्य से दूर किया गया है।

    पन्नोम्बालाम बनाम सरस्वती एआईआर 1975 मद्रास 693 में इस धारा की व्याख्या करते हुए यह कहा गया है कि व्यथित पक्षकार के पास दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन का निर्देश देने वाले न्यायालय से डिग्री प्राप्त करने का अधिकार होता है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं होता कि आज्ञप्तिधारी अपनी पत्नी को उत्पीड़न द्वारा या बलपूर्वक ग्रहण कर सकता है और न ही इसका यह अभिप्राय होता है कि पत्नी को जोर देकर आज्ञप्तिधारी के रिश्तेदारों के सम्मुख आत्मसमर्पण करना पड़ता है। दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री प्राप्त करने के पश्चात यदि इसका अनुपालन 1 वर्ष तक नहीं किया जाता है तो बाद में आज्ञप्तिधारी को विवाह विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने हेतु एक अच्छा आधार हो सकता है।

    दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन का संक्षिप्त में आशय यह है कि टूट चुके वैवाहिक संबंधों को पुनर्स्थापित करना अर्थात पति पत्नी के जो वैवाहिक अधिकार किसी भी कारण लुप्त हो गए थे उन्हें पुनर्जीवित करना विवाह का आधारभूत उद्देश्य है।

    पति पत्नी एक साथ मिल कर रह रहे हैं उस सुखमय दांपत्य जीवन व्यतीत करते हुए एक दूसरे का साहचर्य प्राप्त करें जहां पति पत्नी में से कोई भी पक्षकार बिना किसी युक्तियुक्त कारण के दूसरे पक्षकार का सहचार्य छोड़ देता है अर्थात दूसरे के साहचर्य को प्रत्याहरण कर लेता है तो उस दशा में व्यथित पक्षकार न्यायालय से दांपत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापन की डिग्री प्राप्त कर सकता है।

    टी सरिथा बनाम वेंकटासुबैया एआईआर 1983 आंध्र प्रदेश 356 का एक प्रकरण है। इस प्रकरण में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 9 की संवैधानिकता को लेकर प्रश्न उठाए गए थे। इस हेतु याचिकाकर्ता ने कहा था की हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 महिलाओं के विरुद्ध है तथा यह महिलाओं के अधिकारों का अतिक्रमण करती है। यह धारा अनुच्छेद 14 भारत के संविधान में वर्णित समानता के अधिकार के विरुद्ध है एवं मूल अधिकारों के प्रतिकूल है।

    इस पर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया की धारा 9 प्रार्थी को प्रत्यर्थी का साहचर्य प्राप्त करने का उपचार देती है। साहचर्य में संभोग का भी अधिकार सम्मिलित है इसका अर्थ यह हुआ कि पति इस उपचार के द्वारा अपनी पत्नी को उसकी इच्छा के विपरीत भोग तथा एक जीव उत्पन्न करने का साधन बना सकता है।

    निर्णीत किया गया कि संभोग तथा प्रजनन दोनों स्वतंत्रता के क्षेत्र में आते हैं, यदि विधि किसी व्यक्ति को किसी के साथ साहचर्य संभोग के लिए विवश करती है तो यह मानव गरिमा का हनन है, वास्तव में इस सभ्य समाज के ही विरुद्ध है। यह उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का घोर उल्लंघन है।

    न्यायालय ने अभिमत प्रकट किया कि वर्तमान धारा महिला की स्वतंत्रता के उस अधिकार का हरण करती है जिसके अधीन उसे अधिकार है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति की हवस का शिकार बने या नहीं, किसी संतान को पैदा करे या नहीं। न्यायालय द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 9 को असंवैधानिक घोषित किया गया।

    परंतु आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए इस निर्णय के कुछ माह के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय ने श्रीमती हरमिंदर बनाम हरविंदर सिंह एआईआर 1986 दिल्ली 66 के मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय के विपरीत मत प्रकट किया और कहा कि पारिवारिक मामलों में संविधानिक प्रावधानों को लागू करना अत्यंत अनुपयुक्त होगा। यह विवाह की संस्था को निर्दयतापूर्वक नष्ट कर देगा।

    विवाहित जीवन तथा परिवार के अन्य मामलों में अनुच्छेद 21 और 14 भारतीय संविधान का कोई स्थान नहीं है। विधायिका ही अधिनियम के माध्यम इसे निष्प्रभावी कर सकती है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की टिप्पणी करते हुए कहा कि सेक्स पर अनावश्यक बल नहीं देना चाहिए। संभोग सहचार्य में सम्मिलित तो है परंतु अनिवार्य नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने वर्तमान धारा की सामाजिक उपादेयता पर जोर दिया। कभी-कभी पति-पत्नी आपसी मतभेद तथा संवाद का अभाव होने के कारण या संबंधियों के षड्यंत्र के कारण प्रथक हो जाते हैं ऐसी स्थिति में यह उपचार उपयोगिता लिए बैठा है।

    युक्तियुक्त कारण

    हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 9 के अंतर्गत विवाह के किसी पक्षकार को एक पक्षकार द्वारा जब छोड़कर जाया जाता है तो इस छोड़कर जाने के पीछे कोई युक्तियुक्त कारण होना चाहिए। इस अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत युक्तियुक्त कारण पर बल दिया गया है। युक्तियुक्त कारण क्या होगा यह हर एक मामले की परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है तथा इस कारण को किसी भी शब्द में बांधा नहीं जा सकता है।

    न्यायालय यह प्रश्न करता है कि क्या वाद की स्थिति विशेष में एक विवेकशील व्यक्ति का अपने दांपत्य का साहचर्य छोड़ना उचित है या नहीं! कोई पक्षकार किस कारण से दूसरे पक्षकार को छोड़ कर गया है, इस पर विशेष बल दिया जाता है। समय समय पर आने वाले कुछ प्रकरणों के माध्यम से क्या कारण युक्तियुक्त होंगे इसे न्यायालय द्वारा तय किया गया है।

    पत्नी के विरुद्ध क्रूरता और निर्दयतापूर्वक व्यवहार करना एक युक्तियुक्त कारण है। राजकुमार बनाम हरिश्चंद्र 1985 (1) एच एल आर 74 के मामले में यह कहा गया है कि यदि पति द्वारा पत्नी के विरुद्ध क्रूरता का व्यवहार किया जाता है तो यह साहचर्य छोड़ने का युक्तियुक्त कारण होगा।

    अन्ना साहब बनाम ताराबाई एआईआर 1970 मध्य प्रदेश 36 के मामले में यह कहा गया है कि युक्तियुक्त कारण सहचार्य छोड़ने वाले व्यक्ति को ही सिद्ध करना होगा।

    प्रीतम कौर बनाम जसवंत सिंह 1985 एच एल आर 455 के प्रकरण में कहा गया है कि पत्नी पर झूठे आरोप लगाना उसको व्यभिचारिणी कहना पत्नी द्वारा घर छोड़ने का युक्तियुक्त कारण होगा।

    स्वराज गर्ग बनाम केएम गर्ग एआईआर 1978 दिल्ली 296 के प्रकरण में कहा गया है। पति के काम करने के स्थान से एक भिन्न स्थान पर नौकरी करने वाली पत्नी के मामले में यह कारण भी साहचर्य छोड़ने का एक युक्तियुक्त कारण है।

    चंद्र बनाम सरोज एआईआर 1975 राजस्थान 88 के मामले में कहा गया है कि यदि पत्नी नशा नहीं करती है और मांस नहीं खाती है और फिर भी पत्नी को शराब पीने दी जा रही है और उसे नशा करने को कहा जा रहा है तो या घर छोड़ने का युक्तियुक्त कारण होगा।

    दीपा सयाल बनाम दिनेश सयाल एआईआर 1993 इलाहाबाद 224 के मामले में यह कहा गया है कि न्यायिक पृथक्करण तथा विवाह विच्छेद के जितने भी आधार हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन दिए गए हैं वह सभी आधार साहचर्य छोड़ने के युक्तियुक्त कारण माने जाएंगे। इस प्रकरण के बाद युक्तियुक्त कारण शब्द भ्रम को जन्म देने वाला नहीं रहा है तथा आज यह शब्द समृद्ध हो चुका है। युक्तियुक्त कारण को सिद्ध करने का भार उस पक्षकार पर होता है जो ऐसे कारण से साहचर्य छोड़ कर गया है।

    उदाहरण के लिए जैसे कोई पत्नी किसी पति का घर छोड़कर जाती है तो ऐसी परिस्थिति में वह न्यायालय में अभिकथन देती है कि उसने क्रूरतापूर्वक व्यवहार किए जाने के कारण अपने पति का घर छोड़ दिया है तथा वह अब उसके घर नहीं जाएगी। पत्नी को इस 'क्रूरतापूर्वक' व्यवहार को सिद्ध करना होगा।

    अधिनियम की धारा 9 का आवेदन कौन से जिला न्यायालय में दिया जा सकता है-

    धारा 9 के अंतर्गत आवेदन उस जिला न्यायालय में दिया जा सकता है जिस जिला न्यायालय की स्थानीय अधिकारिकता में के अंतर्गत व्यथित पक्षकार रह रहा है परंतु पत्नी की सुविधा को ध्यान में रखते हुए ऐसा आवेदन उस जिला न्यायालय में हस्तांतरित किया जा सकता है जिस जिला न्यायालय के क्षेत्र अधिकार के भीतर पत्नी निवास कर रही है।

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