अर्ध-संविदा क्या होती है एवं अनुचित सम्पन्नता के सिद्धांत का इससे क्या है संबंध?

SPARSH UPADHYAY

22 Nov 2019 11:02 AM GMT

  • अर्ध-संविदा क्या होती है एवं अनुचित सम्पन्नता के सिद्धांत का इससे क्या है संबंध?

    एक 'अर्ध/कल्प अनुबंध' (Quasi Contract) का अर्थ उस कानूनी रूप से वैध समझौते (Agreement) से है, जहाँ दो या अधिक पक्षों के बीच पहले से कोई संविदात्मक दायित्व (Contractual Liability) तय नहीं होता है। यह एक ऐसी संविदा है जो अदालत द्वारा मान्यता प्राप्त है और इसका कानूनी प्रावधानों में भी उल्लेख मिलता है। यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार की संविदा, अदालत के आदेश द्वारा बनायी/घोषित की जाती है, न कि पक्षों के द्वारा (हालाँकि अदालत की घोषणा पक्षों के कृत्यों पर आधारित होती है)।

    'Quasi' शब्द का अर्थ आभासी है। इसलिए, एक 'अर्ध-संविदा' एक आभासी संविदा है। जब हम एक वैध समझौते के बारे में बात करते हैं तो हम यह उम्मीद करते हैं कि इसमें कुछ तत्व, जैसे प्रस्थापना (Proposal) और उसकी स्वीकृति, प्रतिफल (Consideration), अनुबंध करने की क्षमता (Capacity to Contract), और स्वतंत्र सम्मति ) Free consent) मौजूद होंगे। लेकिन इससे अलग प्रकार की संविदाएं भी हो सकती हैं, जिन्हें भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अंतर्गत मान्यता प्राप्त है।

    हालांकि भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 एक 'अर्ध-संविदा' को परिभाषित नहीं करता है, परन्तु यह इसे मूल संविदाओं से मिलता-जुलता (OF CERTAIN RELATIONS RESEMBLING THOSE CREATED BY CONTRACT) हुआ घोषित करता है। अपनी सुविधा के लिए हम 'अर्ध-संविदा' को इस प्रकार से समझ सकते हैं कि यह एक ऐसा लेनदेन है, जिसमें पक्षों के बीच कोई संविदा मौजूद नहीं है; हालाँकि कानून उनके बीच कुछ अधिकार और दायित्व का निर्माण करता है, जो एक साधारण संविदा द्वारा बनाए गए अधिकार और दायित्व के सामान होते हैं।

    दूसरे शब्दों में, सहमति के बयान के बिना इक्विटी के कारणों के लिए कानून द्वारा निर्मित संविदा, एक 'अर्ध-संविदा' है। 'अर्ध-संविदा' एक ऐसी स्थिति है, जो पक्षों पर कानून के अनुसार दायित्वों या अधिकारों को लागू करती है, न कि पक्षों द्वारा तय संविदा की शर्तों के अनुसार - पंजाब राज्य बनाम हिंदुस्तान डेवलपमेंट बोर्ड, AIR 1960 P&H 585। हालाँकि इन परिस्थितियों में मुश्किल यह होती है कि चूँकि इसमें शामिल पार्टियों के बीच कोई आधिकारिक संविदा नहीं की गयी है, इसलिए क्या वाकई में इसे एक संविदा के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए या नहीं, यह अदालत को देखना होता है।

    इस बात को समझना बेहद आवश्यक है कि चूँकि अर्ध-संविदा में एक पक्ष, दूसरे के साथ बातचीत या अन्य माध्यम से सोच समझकर समझौता नहीं कर पाता है, इसलिए इस बात की बहुत आशंका रहती है कि उनके बीच दायित्वों को लेकर समझ मौजूद न हो और इसके चलते एक पक्ष को नुकसान उठाना पड़े और दूसरे पक्ष को उस नुकसान की कीमत पर अनुचित फायदा प्राप्त हो जाये। ऐसी परिस्थितियों में अर्ध-संविदा को एक साधारण संविदा समझते हुए, एक पक्ष के साथ हुए अन्याय को कम करने का प्रयास किया जाता है।

    अनुचित सम्पन्नता (Unjust Enrichment) का सिद्धांत

    कानून यह है कि जब कभी कोई पक्ष, अनुचित रूप से कोई लाभ प्राप्त करता है (किसी दूसरे पक्ष को हुए नुकसान की कीमत पर) तो उसे न्यायसंगतता के सिद्धांत के आधार पर दूसरे पक्ष को क्षतिपूर्ति देने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। 'अर्ध-संविदा' की नींव इक्विटी, न्याय और विवेक के सिद्धांतों पर आधारित है, जिसके लिए यह आवश्यक है कि कोई भी खुद को अनुचित रूप से दूसरों की कीमत पर लाभान्वित न करे। इसे ही अनुचित सम्पन्नता (Unjust Enrichment) के सिद्धांत के रूप में जाना जाता है। यह एक ऐसी स्थिति को ठीक करने की अदालत की कोशिश होती है, जहां एक पक्ष ने दूसरे पक्ष को हुए नुकसान की कीमत पर स्वयं के लिए कुछ फायदा हासिल कर लिया है। दूसरे शब्दों में, अर्ध-संविदात्मक दायित्व उस सिद्धांत पर आधारित है कि कानून एवं न्याय को अनुचित सम्पन्नता (जहाँ एक पक्ष का फायदा, दूसरे पक्ष को हुए नुकसान की कीमत पर होता है) को रोकना चाहिए – मोजेज बनाम मैकफर्टन (1760) 2 Burr 1005। हालाँकि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि लाभ उठाने वाले व्यक्ति को वह लाभ संयोग से मिला या दूसरे पक्ष के दुर्भाग्य के परिणामस्वरूप मिला।

    भारत में, अनुचित सम्पन्नता का सिद्धांत, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 68-72 में संहिताबद्ध है। अनुचित सम्पन्नता की अवधारणा, पुनर्स्थापना (Restitutioon) के सिद्धांत के लिए बुनियादी कारक है। हालांकि अनुचित सम्पन्नता को अक्सर पुनर्स्थापन के लिए एक आधार के रूप में संदर्भित किया जाता है, लेकिन शायद इसे एक पूर्वापेक्षा के रूप में मानना अधिक सटीक है, आमतौर पर अनुचित सम्पन्नता के बिना पुनर्स्थापना को लेकर कोई दावा स्थापित नहीं हो सकता है।

    महाबीर किशोर बनाम मध्य प्रदेश राज्य AIR 1990 SC 313 मामले के अनुसार, अनुचित सम्पन्नता के दावे के लिए, एक व्यक्ति को लाभ मिलने के चलते फायदा होना चाहिए, यह फायदा किसी दूसरे व्यक्ति को हुए नुकसान की कीमत पर होना चाहिए एवं फायदा लिया जाना 'अनुचित' (Unjust) होना चाहिए।

    अनुचित सम्पन्नता को साबित करने के लिए, 5 तत्वों की आवश्यकता होती है

    1- प्रतिवादी को कुछ प्रकार के लाभ (Enrichment) की प्राप्ति होनी चाहिए।

    2- प्रतिवादी को हुए लाभ के कारण दावेदार (Claiment) को किसी प्रकार का नुकसान उठाना पड़ा हो।

    3- सम्पन्नता/लाभ अनुचित (Unjust) साबित होना चाहिए।

    4- सम्पन्नता और नुकसान के बारे में स्पष्टीकरण (कानूनी या अन्य) मौजूद नहीं होना चाहिए अर्थात यह दान (Gift) नहीं होना चाहिए।

    5- दावे के लिए कोई कानूनी बचाव उपलब्ध नहीं होना चाहिए।

    दावे की कार्यवाही के दौरान, दावेदार पुनर्स्थापना (Restitution) की मांग कर सकता है। यह सब दावेदार के साथ हुए अन्याय को ठीक करने के प्रयास में किया जाता है। यदि कंपनसेशन प्राप्त नहीं किया जा सकता है, तो प्रतिवादी को उस वस्तु को वापस करने का आदेश दिया जा सकता है, जिसे उसने अनुचित सम्पन्नता के चलते प्राप्त किया था।

    आइये अब इसे एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिये आप एक मॉल में जाते हैं, वहां आप बिस्कुट का एक पैकेट देखते हैं और उसे खोल कर उसका उपभोग करते हैं, यहाँ पर मॉल प्रशासन आपसे उस बिस्कुट का मूल्य वसूल सकता है क्यूंकि यहाँ प्रशासन के नुकसान पर आपको अनुचित सम्पन्नता प्राप्त हुई है और इसके चलते यह माना जायेगा कि यहाँ एक प्रकार की अर्ध-संविदा का निर्माण हो गया है और आपको प्रशासन को हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए बाध्य किया जा सकेगा।

    हालाँकि जहाँ यह पता रहा हो कि किया जा रहा कार्य आनुग्रहिक (Gratuitous) है, यानी कि बिना किसी लाभ या फायदे की उम्मीद के वह कार्य किया गया हो और यह बात ज्ञात हो, वहां पर इस सिद्धांत का उपयोग नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति हर हफ्ते सोमवार को अपने घर के बाहर मुफ्त में गरीबों को खाना खिलाता है, और हर बार की तरह एक सोमवार को वह व्यक्ति खाना खिला रहा होता है, तभी वहां एक रिक्शेवाला आकर खाना खाता है, अब यदि उस रिक्शेवाले से खाए गए खाने के लिए पैसों की मांग की जाती है तो यहाँ वह रिक्शेवाला पैसा देने के लिए बाध्य नहीं है, क्यूंकि यह कार्य आनुग्रहिक था और इस स्थिति में किसी भी अर्ध-संविदा का निर्माण नहीं हुआ।

    अंत में, अर्ध-संविदा का आधार यह है कि संविदा की तकनीकी आवश्यकता, न्याय की आवश्यकताओं से बड़ी नहीं हो सकती है। गौरतलब है कि 'अनुचित सम्पन्नता' का सिद्धांत न्यायालयों द्वारा अपने निर्णयों के माध्यम से विकसित किया गया है और इसे अधिकारों और दायित्वों का एक स्वतंत्र स्रोत माना जाता है। भले ही भारतीय संविदा अधिनियम में एक नए नाम के तहत अर्ध-संविदा को कानूनी शक्ल दी गयी है, परन्तु इसकी मूल प्रकृति और सिद्धांत का सार किसी भी परिवर्तन के बिना समान है।

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