घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) की धारा 27 के प्रावधान

Shadab Salim

15 Oct 2025 9:08 AM IST

  • घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) की धारा 27 के प्रावधान

    इस एक्ट की धारा 27 के अनुसार-

    (1) यथास्थिति, प्रथम वर्ग के न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट का न्यायालय, जिसकी स्थानीय सीमाओं के भीतर,

    (क) व्यथित व्यक्ति स्थायी रूप से या अस्थायी रूप से निवास करता है या कारबार करता है या नियोजित है; या

    (ख) प्रत्यर्थी निवास करता है या कारबार करता है या नियोजित है; या

    (ग) हेतुक उद्भूत होता है,

    इस अधिनियम के अधीन कोई संरक्षण आदेश और अन्य आदेश अनुदत्त करने और इस अधिनियम के अधीन अपराधों का विचारण करने के लिए सक्षम कोर्ट होगा।

    (2) इस अधिनियम अधीन किया गया कोई आदेश समस्त भारत में प्रवर्तनीय होगा।

    जब कार्यवाही को स्वीकार तथा विचारित करने के लिए कोर्ट के प्राधिकार अथवा अधिकारिता के बारे में प्रश्न उठाया जाता है, तब निर्णय कार्यवाही को समाप्त कर सकता है इसलिए पक्षकारों को कार्यवाही स्वीकार करने तथा विचारित करने के लिए कोर्ट की अधिकारिता अथवा प्राधिकार के बारे में निर्णायक प्रश्न को निर्णीत करने के पहले अपने प्रतिद्वन्द्वी तर्कों के समर्थन में अपना साक्ष्य, मौखिक और/अथवा दस्तावेजी, जैसी भी स्थिति हो, को प्रस्तुत करने के लिए निष्पक्ष तथा पूर्ण अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त भी इसकी अपेक्षा करते हैं।

    मजिस्ट्रेट की अधिकारिता अधिनियम की धारा 27 न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम वर्ग अथवा महानगर मजिस्ट्रेट, जैसी भी स्थिति हो, के कोर्ट पर अधिकारिता प्रदत्त करती है और ऐसा कोर्ट अधिनियम के अधीन अपराधों का भी विचारण करने के लिए सशक्त होता है।

    मजिस्ट्रेट की शक्तियों का क्षेत्र और अधिकारिता अधिनियम के प्रावधानों के अधीन शक्ति का प्रयोग करते हुए मजिस्ट्रेट को शक्ति की क्षेत्र तथा अधिकारिता पूर्ण रूप से भिन्न तथा सुभिन्न होती है। यदि भारतीय दण्ड संहिता के प्रावधानों के अधीन दण्डनीय अपराध के अभिकथन का अधिनियम के प्रावधानों के अधीन कार्यवाही में अभिकथन किया गया हो, तब इसके बारे में प्रश्न कि क्या अधिनियम के प्रावधानों के अधीन अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए मजिस्ट्रेट परिवाद में अभिकथित अपराध का विचारण कर सकता था, क्या उक्त अधिनियम के प्रावधान अभियुक्त को दण्डित करने के लिए प्रावधान उपबन्ध करते थे।

    याची ने धारा 18 के अधीन संरक्षण आदेश, धारा 19 के अधीन निवास आदेश, धारा 20 के अधीन भरण-पोषण का आदेश तथा धारा 22 के अधीन प्रतिकर आदेश, आदि की मांग किया था। दोनों अवर न्यायालयों को प्रत्येक अनुतोष पर पक्षकारों के द्वारा प्रस्तुत किये गये साक्ष्य की जांच करनी चाहिए और उस पर निर्णय देना चाहिए। जिसे नहीं किया गया है।

    इसलिए इन परिस्थितियों में हाईकोर्ट के लिए अवर न्यायालयों के दोनों आदेशों को अपास्त करने तथा मजिस्ट्रेट को पक्षकारों की सुनवाई के पश्चात् दावा किये गये अनुतोषों के सम्बन्ध में विवाद्यकों को विरचित करने और तब पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत किये गये साक्ष्य पर तथा प्रयोज्यनीय विधि पर विचार करने और याची के द्वारा ईप्सित प्रत्येक अनुतोष पर निर्णय प्रदान करने के लिए निर्देशित करने के सिवाय कोई अन्य विकल्प प्राप्त नहीं है।

    इसके परिणामस्वरूप यह याचिका सफल होती है। दोनों अवर न्यायालयों के आदेश अपास्त किये जाते हैं और मजिस्ट्रेट को किये गये संप्रेक्षणों के प्रकाश में आवेदन को नये सिरे से निर्णीत करने के लिए निर्देशित किया जाता है।

    हिमा बनाम प्रीतम अशोक के मामले में यह कहा गया है कि,यह विवादित नहीं है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 के अधीन परिवाद दाखिल करते समय याची महानगर मजिस्ट्रेट की अधिकारिता के भीतर अपने माता-पिता के साथ रह रही थी। वास्तव में याची के द्वारा कुटुम्ब विधि अधिनियम, 1996 के अधीन ब्रेन्ट फोर्ड कन्ट्री कोर्ट पहुँच करके अविकृत आदेश प्राप्त किया गया था।

    वह स्वयं द्वारा महानगर मजिस्ट्रेट की अधिकारिता को अपवर्जित करने के लिए पर्याप्त नहीं था, यदि यह अन्यथा घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 27 के द्वारा अन्यथा अधिकारिता धारित करती थी। महानगर मजिस्ट्रेट ने भी यह अभिनिर्धारित करने में गलती किया कि अपराध संरक्षण आदेश के उल्लंघन से उद्भूत हुआ था, इसलिए उसे दिल्ली के न्यायालयों के द्वारा विचारित नहीं किया जा सकता था, "महानगर मजिस्ट्रेट" को कोई अधिकारिता प्राप्त नहीं होगी।

    मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को प्रशासनिक शक्तियां अपने अधीनस्थ न्यायिक मजिस्ट्रेटों के कार्य पर सामान्य नियन्त्रण तथा पर्यवेक्षण की होती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि इसे अपने अधीनस्य सभी अन्य न्यायिक मजिस्ट्रेटों पर प्रशासनिक नियन्त्रण प्राप्त होता है। प्रत्येक न्यायिक मजिस्ट्रेट मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के अधीनस्थ होता है। प्रत्येक न्यायिक मजिस्ट्रेट को स्थानीय अधिकारिता, जिसमें मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट और अधीनस्थ शामिल हैं, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के द्वारा परिभाषित की जानी है और यह कि स्थानीय अधिकारिता को परिभाषित करने का प्रयोग हाईकोर्ट के नियन्त्रण के अधीन होगा। मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के अधीनस्थ ऐसे न्यायिक मजिस्ट्रेट में कार्य का वितरण मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के द्वारा समय-समय पर नियम बना करके अथवा विशेष आदेश जारी करके किया जाना है।

    यह इस तथ्य के कारण है कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट उस जिले, जिसमें उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 29 (1) के अधीन यथोपबन्धित सात वर्ष तक के कारावास का दण्डादेश पारित करने की शक्ति प्रदान की गई है, का नियन्त्रण अधिकारी होता है। यह इस कारण से है कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 192 के अधीन उसके अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को मामलों को सौंपने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 192 के अधीन शक्ति तथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 410 के अधीन सभी मामलों को वापस लेने तथा अन्तरित करने की शक्ति निहित की गई।

    उस अनुतोष का धारा 18 से 22 के अधीन किसी अन्य कार्यवाही में कुटुम्ब कोर्ट के समक्ष दावा किया जा सकता है, ऐसा शब्द है, जो इस तर्क से भिन्न है कि धारा 12 के अधीन याचिका पर कुटुम्ब कोर्ट के द्वारा विचार किया जा सकता है और उसके द्वारा निस्तारित किया जा सकता है। घरेलू हिंसा अधिनियम की भाषा योजना अथवा अभिप्राय में ऐसा कुछ भी नहीं, जो दूरस्य रूप से भी यह सुझाव दे सकता है कि सिविल कोर्ट अथवा कुटुम्ब कोर्ट धारा 12 के अधीन आवेदन पर विचार करने के लिए सक्षम होता है और धारा 12 के अधीन ऐसे आवेदन में धारा 18 से 22 के अधीन अनुतोष प्रदान कर सकता है।

    वास्तव में, कुटुम्ब कोर्ट तथा सिविल कोर्ट को अपने समक्ष लम्बित कार्यवाही में घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 18 से 22 के अधीन भी अनुतोष प्रदान करने की अधिकारिता प्राप्त है। परन्तु निश्चित रूप से कुटुम्ब कोर्ट अथवा सिविल कोर्ट को धारा 12 के अधीन आवेदन पर विचार करने को कोई शक्ति प्राप्त नहीं है। ये धारा 12 के अधीन आवेदन को स्वीकार नहीं कर सकते हैं, न तो उस समय जब इसे मूलतः उनके समक्ष दाखिल किया गया हो, न हो उच्चतर कोर्ट मजिस्ट्रेट के समक्ष लम्बित धारा 12 के अधीन ऐसी याचिका को ऐसे सिवित अथवा कुटुम्ब कोर्ट के समक्ष अन्तरित करने की कोई अधिकारिता ग्रहण कर सकते हैं।

    प्रादेशिक अधिकारिता न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम वर्ग अथवा महानगर मजिस्ट्रेट जैसी भी स्थिति हो, जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर व्यथित व्यक्ति स्थायी रूप से अथवा अस्थायी रूप से निवास करता है, को भी घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 27 (1) (क) में यथाविहित मामले का विचारण करने की प्रादेशिक अधिकारिता प्राप्त होती है।

    कान्ति देवी बनाम उत्तराखण्ड राज्य, 2014 के मामले में कहा गया है कि अधिनियम की धारा 18, 19, 20, 21 और 22 का परिशीलन यह स्पष्ट करेगा कि ऐसा अनुतोष, जैसा कि परिवादी-प्रत्यर्थी संख्या 2 के द्वारा ईप्सा किया गया था, की आवेदकगण के विरुद्ध भी मांग की जा सकती है। यह आवश्यक नहीं है कि उन अनुतोषों की केवल पति के विरुद्ध ही मांग की जा सकती है। अन्य शब्दों में ऐसे अनुतोषों की मांग किसी प्रत्यर्थी (आवेदक संख्या 2) के विरुद्ध की जा सकती है, जिसका विवरण अधिनियम की धारा 2 (घ) में दिया गया है।

    क्या परिवादी प्रत्यर्थी ऐसे अनुतोष का हकदार है अथवा नहीं, सर्वोत्तम रूप से अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, कोटद्वार के द्वारा निर्णीत किया जा सकता है, जिसके पास मामला है। इसलिए आवेदकगण यह नहीं कहता है कि कोटद्वार के कोर्ट को अधिनियम की धारा 12 के अधीन परिवाद को स्वीकार करने की कोई प्रादेशिक अधिकारिता प्राप्त नहीं है।

    मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की प्रादेशिक अधिकारिता नागरिक सुरक्षा संहिता के अधीन मामलों को वापस लेने तथा उसकी जांच करने अथवा विचारण करने को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्ति उस पर एक अन्य मजिस्ट्रेट की स्थानीय सीमाओं के भौतर, जिस कोर्ट से ऐसे मामले को वापस लिया गया था, शामिल क्षेत्र पर उस पर प्रादेशिक अधिकारिता प्रदत्त नहीं करता है।

    प्रादेशिक अधिकारिता न रखने वाले मजिस्ट्रेट के पास मामले को स्थानान्तरित किया जा सकता है, यदि वह अन्यथा सक्षम हो। उस अन्तरण के द्वारा ऐसा मजिस्ट्रेट केवल उस मामले को विचारित करने का प्राधिकार प्राप्त करता है परन्तु वह उस मजिस्ट्रेट की स्थानीय सीमाओं के भीतर, जिसके कोर्ट से मामले को स्थानान्तरित किया गया है, शामिल क्षेत्र पर अधिकारिता प्राप्त नहीं करता है।

    स्थानीय अधिकारिता मात्र इस कारण से कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट में बी एन एस एस के अधीन मामले को वापस लेने की अथवा बी एन एस एस के अधीन मामलों को सौंपने की शक्ति निहित की गई है, यह नहीं कहा जा सकता है कि उसकी स्थानीय अधिकारिता (न्यायिक शक्ति) सम्पूर्ण जिले तक विस्तारित है। पूर्वोलिखित शक्तियां उसे केवल अधीनस्थ मजिस्ट्रेटों पर सामान्य नियन्त्रण तथा पर्यवेक्षण का प्रभावी प्रयोग करने के लिए ही प्रदान की गई हैं।

    मजिस्ट्रेट की स्थानीय अधिकारिता जब हाईकोर्ट के अनुमोदन से प्रत्येक मजिस्ट्रेट की स्थानीय अधिकारिता, जिसमें मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की स्थानीय अधिकारिता शामिल है, परिभाषित की गई है, तब मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता है अथवा हाईकोर्ट की जानकारी अथवा सहमति के बिना उसे पुनः परिभाषित नहीं कर सकता है।

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