SC/ST Act से संबंधित प्रावधान
Shadab Salim
29 April 2025 4:28 PM IST

संविधान में दिए गए आरक्षण के अधिकार अनुसूचित जनजाति के सिविल अधिकार हैं इसी प्रकार दांडिक विधि में अनुसूचित जनजाति तथा अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण के उद्देश्य से 1989 में एक आपराधिक अधिनियम पारित किया गया। अधिनियम का उद्देश समाज में अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजातियों के लोगों पर होने वाले अत्याचारों को रोकना जैसे कि उनका बहिष्कार करना उनसे अस्पृश्यता का स्वभाव रखना अनेक ऐसे कार्य है जो मानव गरिमा को कलंकित कर देते हैं। इन कार्यों को रोकने के उद्देश्य से ही भारत की पार्लियामेंट में अधिनियम को पारित किया है।
भारत के संविधान की उद्देशिका गरिमामय जीवन की अवधारणा प्रस्तुत करती है तथा उसका उल्लेख करती है। किसी भी व्यक्ति को गरिमामय जीवन तभी प्राप्त हो सकता है जब व्यक्ति के प्रति होने वाले बुरे आचरणों को रोका जा सके। समाज में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रति अत्यंत घृणित दृष्टिकोण है। इन बेड़ियों को तोड़ने के उद्देश्य से ही इस अधिनियम को इस महान लक्ष्य तथा उद्देश्य के साथ पारित किया गया है।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों की सामाजिक-आर्थिक दशाओं को सुधारने के लिए उठाये गये अनेक कदमों के बावजूद वे आज भी समाज के दुर्बल वर्ग हैं। वे अनेकों सिविल अधिकारों से वंचित किये जाते हैं। वे अनेकों अपराधों, अपमानों, मानमर्दन और प्रताड़नाओं के आधीन किये जाते हैं।
अधिनियम को अधिनियमित करने का उद्देश्य गैर अनुसूचित जातियों और अनुसूचिज जनजातियों द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध अपराधों को रोकना है क्योंकि विद्यमान विधियाँ, जैसे- सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 और भारतीय दण्ड संहिता, 1860 के सामान्य प्रावधान अत्याचार के अपराधों को रोकने में अपर्याप्त पाये गये हैं। अधिनियम का उद्देश्य अत्याचार के अपराधों के पीड़ितों को त्वरित विचारण और उक्त प्रयोजन के लिए विशेष कोर्ट का गठन करने और अन्य आनुषंगिक अथवा प्रासंगिक विषयों का प्रावधान करना है।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 का उद्देश्य अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध अत्याचार के अपराधों के कारित करने को निवारित करना है। दोनों अधिनियम अपने दृष्टिकोण में भिन्न हो सकते हैं, परन्तु अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के द्वारा वर्ष 1988 तक सहन किये गये अपमान को अब सहनीय न होना महसूस किया गया, इसके परिणामस्वरूप वर्तमान अधिनियम को अधिनियमित किया गया।
इस अधिनियम का उद्देश्य और कारण यह दर्शाता है कि इसे गैर-अनुसूचित जातियों और गैर-अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध अपराधों को नियंत्रित करने तथा रोकने के लिए अधिनियमित किया गया है, क्योंकि सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 जैसी विद्यमान विधियाँ तथा भारतीय दण्ड संहिता के सामान्य प्रावधान अनुसूचित जाति के सदस्य को मानव उत्सर्जन जैसे अखाद्य पदार्थ खिलाने और असहाय अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों के व्यक्तियों पर आक्रमणों तथा सामूहिक हत्याओं तथा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से सम्बन्धित महिलाओं के साथ बलात्कारों जैसे अत्याचारों को रोकने के लिए अपर्याप्त पाये गए।
अधिनियम के उद्देश्यों तथा कारणों और प्रावधानों और विशेष रूप में अधिनियम की धारा 3 से यह स्पष्ट है कि यह अधिनियम अन्य दाण्डिक संविधियों से अलग तथा भिन्न अपराध सृजित करता है, हालांकि अधिनियम के अधीन कुछ अपराध भारतीय दंड संहिता के अधीन भी दण्डनीय बनाये गये हैं, उदाहरणार्थ, अधिनियम की धारा 3 को उपधारा (xi) के अधीन अपराध धारा 354, भा० द. सं० के अधीन भी अपराध होगा।
अन्तर दण्ड की प्रकृति का है। वर्ष 1989 का अधिनियम संख्यांक 33 की धारा 3 की उपधारा (xi) के अधीन दोषसिद्ध व्यक्ति न्यूनतम 6 मास की अवधि के कारावास से, जो पांच वर्ष तक का हो सकेगा और जुमने से दण्डनीय होगा और जबकि यदि वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 के अधीन दोषसिद्ध किया गया हो, तब वह केवल जुर्माने से दोषसिद्ध तथा दण्डादेशित किया जा सकता है। अधिनियम की कठोरता जब अधिक होगी, तब उसका निर्वाचन कठोर होगा।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम, 1989 की उद्देशिका यह प्रतिपादित करती थी कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध अत्याचार कारित करने को निवारित करने के लिए अधिनियमित किया गया है। इस प्रकार यह वह उद्देश्य है, जिस पर अधिनियम की विभिन्न धाराओं का निर्वाचन करते समय विचार किया जाना है। संसद ने यह पाया कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध अत्याचार कम होने के बावजूद बढ़ रहा है। उन्हें नियंत्रित करने के लिए तथा गारण्टीकृत सिविल अधिकारों के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचर निवारण) अधिनियम, 1989 पारित किया गया।
किसी विधायन की उद्देशिका तथा उसके साथ संलग्न उद्देश्यों और कारणों के कथन में कथित तथ्य विधायो निर्णय के साक्ष्य है। वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों की सोची-समझी प्रक्रिया तथा विधि अधिनियमित करने के लिए उन्हें प्रेरित करते हुए राज्य के विद्यमान क्रियाकलापों को उनकी जानकारी को इंगित करते है।
इसलिए ये ऐसे महत्वपूर्ण कारक गठित करते हैं, जिन पर अन्य कारकों में से व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों पर अधिरोपित किसी निर्बंधन की युक्तियुक्तता निर्धारित करने के लिए विचार किया जायेगा। कोर्ट निर्बन्धन की युक्तियुक्तता से प्रारम्भ करेगा, इसके अतिरिक्त, जब उद्देश्यों और कारणों के कथन तथा उद्देशिका में कथित तथ्यों को सही होना माना जाता है, तब वे प्राप्त किये जाने के लिए इंप्सतः प्रयोजन हेतु विधि के अधिनियमन को न्यायसंगत ठहराते हैं।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की संवैधानिक वैधता अधिनियम सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों, अधिकांशत: समाज के दलित वर्ग को न्याय प्रदान करने के लिए आशयित है। इसमें सामाजिक रूप से दलित वर्ग के अमानवीय कष्टों, अपमानों और शोषण को कम करने के तरीके एवं साधन अंतर्विष्ट है। अधिनियम की धारा 3 उच्च वर्ग के उन सदस्यों, उन व्यक्तियों, जो अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्य न हों, के द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अपराधों को प्रगणित करती है।
अधिनियम की धारा 3 के अधीन प्रगणित अपराधों के लिए प्रावधान वास्तविक रूप में पूर्वोक्त उद्देश्य को प्राप्त करने के प्रयोजन के लिए तात्पर्यिंत है और इसके कारण अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों की प्रगति के लिए है। विधायिका को भारत का संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के अधीन शक्तियों का प्रयोग करके ऐसा प्रावधान बनाने की अधिकारिता तथा शक्ति प्राप्त है। अधिनियम को भारत का संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के अधीन संरक्षित किया गया है।
संविधि अथवा उसके किसी प्रावधान की संवैधानिकता अथवा अन्यथा की जांच करने के लिए सर्वाधिक सुसंगत विचारणों में से एक संविधि के उद्देश्य और कारण के साथ ही साथ उसका विधायी इतिहास है। यह कोर्ट को और अधिक वस्तुनिष्ठ तथा न्यायसंगत दृष्टिकोण पर पहुँचने में सहायता प्रदान करेगा। कोर्ट के लिए विशेष प्रावधान की अधिनियमिति के कारणों की जांच करना आवश्यक होगा, जिससे कि संवैधानिक प्रावधानों के मुकाबले में इसके अन्तिम प्रभाव को जाना जा सके।

