न्यायालय शुल्क की गणना से संबंधित प्रावधान: राजस्थान न्यायालय शुल्क अधिनियम धारा 20 से 22 तक

Himanshu Mishra

9 April 2025 12:46 PM

  • न्यायालय शुल्क की गणना से संबंधित प्रावधान: राजस्थान न्यायालय शुल्क अधिनियम धारा 20 से 22 तक

    राजस्थान न्यायालय शुल्क और वाद मूल्यांकन अधिनियम (Rajasthan Court Fees and Suits Valuation Act) के अध्याय IV में यह बताया गया है कि किसी वाद (Suit), अपील (Appeal), या आवेदन (Petition) में शुल्क (Fee) किस आधार पर और कैसे तय किया जाएगा। इस अध्याय की धारा 20 से लेकर आगे की धाराओं में अलग-अलग प्रकार के वादों के लिए न्यायालय शुल्क की गणना (Computation of Court Fee) का स्पष्ट विवरण दिया गया है। इन प्रावधानों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी प्रकार के वादों में उचित शुल्क लिया जाए और साथ ही प्रक्रिया भी पारदर्शी हो।

    यह लेख धारा 20, 21 और 22 की सरल हिंदी में विस्तृत व्याख्या करेगा और यह बताएगा कि अलग-अलग स्थितियों में शुल्क कैसे और कितने रूप में लिया जाएगा। साथ ही, इसे पहले के अध्यायों से भी जोड़ा जाएगा ताकि पूरे अधिनियम की समझ और गहरी हो सके।

    धारा 20: शुल्क की गणना कैसे की जाएगी (Fee how reckoned)

    धारा 20 यह स्पष्ट करती है कि इस अधिनियम के अंतर्गत देय शुल्क (Payable Fee) की गणना या निर्धारण निम्नलिखित भागों के अनुसार किया जाएगा – अध्याय IV (Chapter IV), अध्याय VI (Chapter VI), अध्याय VIII (Chapter VIII), अनुसूची I (Schedule I) और अनुसूची II (Schedule II)। इसका अर्थ यह हुआ कि केवल अध्याय IV के आधार पर शुल्क तय नहीं किया जाएगा, बल्कि अन्य अध्याय और अनुसूचियों का भी सहारा लिया जाएगा।

    यह प्रावधान इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कई बार वादों की प्रकृति जटिल होती है और एक ही वाद में एक से अधिक प्रकार की राहत मांगी जाती है, जैसे कि संपत्ति का दावा भी हो सकता है, साथ में हर्जाना (Compensation) भी, या भरण-पोषण (Maintenance) भी। ऐसी स्थिति में शुल्क की गणना के लिए पूरे अधिनियम की अन्य संबंधित धाराओं का उपयोग किया जाएगा।

    धारा 21: धन से संबंधित वादों में शुल्क की गणना (Suits for Money)

    धारा 21 उन वादों की बात करती है जिनमें धन की मांग की जाती है। इसमें केवल सीधे पैसे की मांग नहीं आती, बल्कि हर्जाना, क्षतिपूर्ति (Compensation), लंबित भरण-पोषण, वार्षिकी (Annuities) या कोई अन्य प्रकार की आवधिक (Periodical) राशि की मांग करने वाले वाद भी शामिल हैं।

    इस धारा के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य से हर्जाना, वेतन के बकाए, किराया या अन्य नियमित देनदारी वसूलने के लिए वाद करता है, तो शुल्क उस राशि के आधार पर तय होगा जितनी की मांग की गई है। उदाहरण के लिए, यदि कोई वादी कहता है कि उसे 2 लाख रुपये का हर्जाना चाहिए, तो न्यायालय शुल्क उसी 2 लाख रुपये की राशि पर निर्धारित होगा।

    इस धारा में एक विशेष प्रावधान भी जोड़ा गया है – Fatal Accidents Act, 1855 के तहत यदि हानि या मृत्यु के कारण हर्जाने की मांग की गई है, तो उस स्थिति में केवल 10 रुपये का निश्चित शुल्क (Fixed Fee) लिया जाएगा। यह प्रावधान सामाजिक न्याय की भावना को ध्यान में रखकर बनाया गया है ताकि पीड़ित परिवार न्याय प्राप्त कर सके, भले ही वे आर्थिक रूप से कमजोर हों।

    धारा 22: भरण-पोषण और वार्षिकी से संबंधित वादों में शुल्क की गणना (Suits for Maintenance and Annuities)

    धारा 22 में उन मामलों का वर्णन किया गया है जो भरण-पोषण (Maintenance) या वार्षिकी (Annuity) से संबंधित हैं। इन मामलों में भी शुल्क की गणना विशिष्ट तरीके से की जाती है।

    उपधारा (a) कहती है कि यदि कोई व्यक्ति भरण-पोषण की मांग कर रहा है, तो शुल्क उस राशि के आधार पर तय किया जाएगा जो वह एक वर्ष के लिए मांग रहा है। उदाहरण के लिए, यदि कोई पत्नी अपने पति से हर महीने 5000 रुपये की मांग कर रही है, तो वार्षिक राशि 60,000 रुपये होगी, और उसी पर शुल्क लगेगा।

    उपधारा (b) में कहा गया है कि यदि वादी वर्तमान भरण-पोषण को बढ़ाने या घटाने की मांग कर रहा है, तो शुल्क उस अंतर (Difference) पर लगेगा जिससे भरण-पोषण बढ़ाया या घटाया जा रहा है। जैसे अगर पहले से 5000 रुपये मिल रहे हैं और 8000 रुपये मांगे जा रहे हैं, तो अंतर 3000 रुपये प्रति माह यानी 36,000 रुपये वार्षिक होगा। शुल्क इसी राशि पर लगेगा।

    उपधारा (c) वार्षिकी या अन्य आवधिक देनदारियों के मामलों में कहती है कि शुल्क पांच गुना वार्षिक देनदारी पर लगेगा। यानी यदि किसी को हर साल 10,000 रुपये की वार्षिकी चाहिए, तो शुल्क 50,000 रुपये के आधार पर लगेगा।

    प्रथम अपवाद (First Proviso) में यह कहा गया है कि यदि वार्षिकी पांच साल से कम समय के लिए दी जानी है, तो शुल्क पूरी कुल राशि के आधार पर लगेगा न कि पांच गुना वार्षिक राशि पर। उदाहरण के लिए, यदि किसी को केवल तीन साल के लिए 10,000 रुपये प्रति वर्ष चाहिए, तो शुल्क 30,000 रुपये के आधार पर लगेगा।

    द्वितीय अपवाद (Second Proviso) में यह स्पष्ट किया गया है कि जब कोई व्यक्ति भरण-पोषण बढ़वाने की मांग करता है, तो उसे उसी न्यायालय में वाद दायर करना होगा जो बढ़ी हुई राशि के अनुसार सक्षम हो। इसी प्रकार, भरण-पोषण घटाने का वाद उस न्यायालय में दायर होगा जो घटाई गई राशि के अनुसार अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) रखता हो।

    पूर्ववर्ती धाराओं से संबंध

    धारा 10 से 14 तक हमने देखा था कि वादपत्रों और अपीलों पर शुल्क का निर्धारण कैसे होता है, और न्यायालय द्वारा उसकी जाँच की प्रक्रिया क्या होती है। धारा 11 में यह बताया गया था कि यदि शुल्क कम पाया गया तो न्यायालय अतिरिक्त शुल्क जमा करने का निर्देश देगा, और समय पर शुल्क न देने पर वाद या अपील खारिज हो सकती है। वहीं धारा 14 में यह स्पष्ट किया गया था कि प्रतिवादी द्वारा दिए गए लिखित कथन पर भी शुल्क लगेगा यदि उसमें वादी से स्वतंत्र कोई राहत मांगी गई हो।

    अब धारा 20 से 22 तक हम यह देख रहे हैं कि वास्तव में शुल्क की गणना कैसे की जाएगी, यह स्पष्ट किया गया है। यानी धारा 10 से 14 जहां प्रक्रिया (Procedure) और परिणाम (Consequences) को स्पष्ट करती है, वहीं धारा 20 से आगे की धाराएं गणना (Computation) की विधि को निर्धारित करती हैं।

    धारा 20, 21 और 22 राजस्थान न्यायालय शुल्क अधिनियम के तहत अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये न्यायालय शुल्क की गणना की प्रक्रिया को पारदर्शिता और सरलता के साथ प्रस्तुत करती हैं। ये धाराएं अलग-अलग प्रकार के वादों जैसे कि धन की मांग, भरण-पोषण, वार्षिकी और आवधिक देनदारियों में शुल्क की गणना के नियम तय करती हैं।

    ये प्रावधान यह सुनिश्चित करते हैं कि न्यायालय का राजस्व सुरक्षित रहे और साथ ही जरूरतमंदों को न्याय सुलभ हो। विशेष रूप से Fatal Accidents Act जैसे मामलों में 10 रुपये का शुल्क निर्धारण सामाजिक न्याय की दिशा में एक संवेदनशील कदम है। इस अध्याय के अन्य प्रावधानों जैसे धारा 23 से आगे की धाराएं विभिन्न संपत्ति विवादों आदि में शुल्क की गणना की विधियों को स्पष्ट करेंगी, जिससे इस पूरी प्रणाली की व्यापकता और स्पष्टता और अधिक बढ़ेगी।

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