Transfer Of Property Act की सेक्शन 31, 32, 33 और 34 के प्रावधान
Shadab Salim
17 Jan 2025 3:49 AM

सेक्शन-31
यह धारा उन अन्तरणों से सम्बन्धित है जिनमें उत्तरवर्ती या पाश्चिक शर्ते लगी होती हैं। ऐसी शर्तें सम्पत्ति के अन्तरिती में निहित होने में कोई बाधा या कठिनाई नहीं उत्पन्न करती हैं, परन्तु निहित हित सम्पूर्ण नहीं होता है। अन्तरिती उन शर्तों का अनुपालन करने के दायित्वाधीन रहता है और यदि शर्त का अक्षरश: अनुपालन न किया जाए तो अन्तरिती का हित सम्पत्ति से स्वतः समप्त हो जाएगा और सम्पत्ति अन्तरक के पास वापस चली जाएगी।
यह धारा, धारा 28 के समान है किन्तु दोनों के बीच यह अन्तर है कि इस धारा के अन्तर्गत अन्तरितो का हित समाप्त होने के पश्चात् सम्पत्ति वापस अन्तरक के पास चली जाती है जबकि धारा 28 के अन्तर्गत वह दूसरे अन्तरिती के पास चली जाती है।
यह धारा, इसी अधिनियम की धारा 12 के उपबन्धों के अध्यधीन है। अतः कोई भी पाश्चिक या उत्तरवर्ती शर्त जो दिवालियापन अथवा प्रयासित अन्तरण पर आधारित है, निहित हित को समाप्त कर सकेगी।
उदाहरण:-
(i) 'अ' अपनी सम्पत्ति अपनी पुत्री 'ब' को इस शर्त पर दान देता है कि यदि उसकी मृत्यु बिना किसी सन्तान के होती है तो सम्पत्ति पुनः अन्तरक में निहित हो जाएगी। यदि 'ब' की मृत्यु सन्तान विहीन होती है तो 'अ' सम्पत्ति पाने का अधिकारी होगा।
(ii) 'अ' ने अपने मकान का दान इस शर्त के साथ 'ब' को किया कि दानग्रहीता दाता के कुछ ऋणों का भुगतान करे तथा जब वह जीवित रहे, वह उसकी देख-भाल भी करे। यह अभिनिर्णीत हुआ कि दाता दान का प्रतिसंहरण करने के लिए सक्षम होगा यदि दानग्रहीता दोनों शर्तों का अनुपालन करने में विफल रहता है।
उत्तरवर्ती शर्त के लिए यह आवश्यक है कि यह सुनिश्चित तथा स्पष्ट हो। यदि पट्टा विलेख में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि यदि पट्टाधारी पट्टादाता को स्पष्ट तथा लिखित अनुमति के बिना उस सम्पत्ति पर कोई अन्य व्यापारिक अथवा विनिर्माण प्रक्रिया आरम्भ करेगा तो पट्टा समाप्त हो जाएगा। ऐसी शर्त स्पष्ट और सुनिश्चित नहीं है। अन्तरिती इससे बाध्य नहीं होगा। इस धारा के उपबन्ध ऐसे अन्तरणों पर लागू होते हैं जिसमें सम्पत्ति में हित उत्तरवर्ती या पाश्चिक शर्तों के साथ सृजित किये जाते हैं। यह प्रावधान, अन्तरण हेतु उत्तरवर्ती शर्त से युक्त संविदा पर लागू नहीं होता। एक वाद में विक्रय विलेख में तथ्यों का उल्लेख इस प्रकार था-
"मैं सम्पत्ति X आप को बेचूँगा। मैंने प्रतिफल इस प्रकार प्राप्त किया है मेरे पास रुपये 29,0720 जमा है जिनका भुगतान मेरे ऋण दाताओं को होना है, तथा बकाया रुपये, 1,9271 मात्र मैंने नकद प्राप्त कर लिए है। आप को मेरे साथ ऋणदाताओं के पास चलना होगा। मैं उनसे निवेदन करूंगा कि वे भुगतान कुछ कम कर दें और आप उन्हें इस आधार पर भुगतान कर दें।अवशिष्ट बची राशि आप मुझे प्रदान कर दें। यदि उपरोक्त रीति से आप ऋणदाताओं का भुगतान 30 दिसम्बर 1925 तक नहीं कर देते हैं तो विलेख रद्द समझा जाएगा।
इन तथ्यों के आधार पर प्रिवी कौंसिल ने यह अभिनिर्णीत किया कि विक्रय संविदा तथा अन्तरण की प्रक्रिया दोनों एक ही विलेख में वर्णित थी तथा अध्यारोपित शर्त विक्रय संविदा की अभिन्न शर्त होगी न कि अन्तरण की। कोर्ट ने यह भी अभिनिर्णीत किया कि ऐसे मामलों में उसे अनुतोष प्रदान करने का पूर्ण अधिकार होगा।
क्या वैध शर्त प्रवर्तित की जानी आवश्यक है- इस धारा के अन्तर्गत वैध शर्त तो आरोपित की जा सकती है किन्तु कोर्ट के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उस शर्त को वह प्रवर्तित करे।
फोफम बनाम ब्रामफील्ड के वाद में लार्ड चान्सलर ने अभिप्रेक्षित किया था,
"उत्तरवर्ती शर्त के सम्बन्ध में यह ध्यान देना आवश्यक है कि जब किसी वाद में कोर्ट यह महसूस करे कि वह उस पक्षकार को शर्त का अनुपालन न किये जाने के कारण समुचित रूप में क्षतिपूर्ति प्रदान कर सकता है तो यह अवधारित किया जाना चाहिए कि वह शर्त क्षतिपूर्ति पर आधारित थी। किन्तु यदि क्षतिपूर्ति से पक्षकार को समुचित अनुतोष नहीं प्रदान किया जा सकता है दो उसे मुक्त कर देना अन्तरात्मा के विरुद्ध होगा।"
इस विकल्प को भारत में भी अभिस्वीकृति प्रदान की गयी है।
उत्तरवर्ती शर्त की विशेषताएं - अन्य शर्तों की भाँति उत्तरवर्ती शर्त का भी वैध होना आवश्यक है। इस न तो विधि द्वारा निषिद्ध होना चाहिए और न ही अप्रवर्तनीय यह लोक नीति के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए। ऐसी शर्त दण्डस्वरूप होती है जो निहित हित को नष्ट कर देती है और सम्पत्ति को पुनः अन्तरक में निहित कर देती है। इनका अक्षरशः अनुपालन होना आवश्यक है। इन शर्तों के अवैध होने की स्थिति में अन्तरण की वैधता पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। अन्तरण वैध होगा यद्यपि उत्तरवर्ती शर्त अवैध होगी।
यदि इस प्रकार की शर्त के अनुपालन हेतु कोई समय निर्धारित नहीं किया गया है तो शर्त उस समय भंग समझी जाएगी जब उसका पूर्ण होना स्थायी रूप से अथवा अनिश्चितकाल के लिए असम्भव बना दिया गया हो। यदि इस हेतु कोई समय निर्धारित था, और शर्त की अपूर्णता से लाभ उठाने वाले व्यक्ति ने कपटपूर्वक व्यवधान उत्पन्न किया था को शर्त के अनुपालन के लिए आवश्यक अतिरिक्त समय दिया जाएगा।
सेक्शन-32
धारा 32 इसी अधिनियम की धारा 30 में वर्णित सिद्धान्त के समरूप सिद्धान्त प्रस्तुत करती है। जिस तरह धारा 30 के अन्तर्गत पाश्चिक शून्य अन्तरण, पूर्विक अन्तरण को प्रभावित नहीं करता है उसी प्रकार इस धारा के अन्तर्गत यदि उत्तरवर्ती शर्त शून्य है तो वह उस अन्तरण को प्रभावित नहीं कर पायेंगी जिस पर वह लगायी गयी है। प्रभावपूर्ण होने के लिए यह आवश्यक है कि शर्त वैध हो । ऐसी शर्त जो पूर्ववर्ती शर्त के रूप में अवैध होती है, पाश्चिक शर्त के रूप में भी अवैध होगी।
'अ', 'ब' को एक जमीन इस शर्त के साथ अन्तरित करता है कि यदि वह एक वर्ष की अवधि के अन्दर 'स' के लकड़ी के ढेर में आग नहीं लगायेगा तो उसका हित सम्पत्ति से समाप्त हो जाएगा। यह शर्त अवैध है। अतः 'ब' का हित प्रभावित नहीं होगा। वह एक वर्ष की अवधि के बाद भी सम्पत्ति धारण करने का अधिकारी होगा।
यदि शर्त यह लगायी गयी है कि वह अपना धर्म छोड़कर कोई अन्य धर्म स्वीकार नहीं करेगा तो ऐसी शर्त वैध होगी
सेक्शन- 33
यह धारा उत्तरवर्ती शर्त के सम्बद्ध है परन्तु जिसे पूरा किये जाने के लिए कोई समय विनिर्दिष्ट नहीं है। यह धारा प्रतिपादित करती है कि :-
(1) यदि शर्त का पूरा करना असम्भव हो गया है तो शर्त शून्य हो जाएगी।
(2) यदि शर्त का पूरा किया जाना स्थायी रूप से निलम्बित कर दिया गया हो तो शर्त शून्य हो जाएगी।
(3) यदि शर्त का पूरा किया जाना अनिश्चित काल के लिए निलम्बित कर दिया गया है तो शर्त शून्य हो जाएगी।
एक वाद में एक व्यक्ति को जमीन इस शर्त के साथ अन्तरित की गयी कि वह उस पर बगीचा लगाएगा। किन्तु बगीचा लगाने के लिए कोई समय विनिर्दिष्ट नहीं किया गया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अभिनिर्णीत किया कि शर्त को तब तक खण्डित हुआ नहीं समझा जाएगा जब तक कि अन्तरितो ने स्थायी रूप या अनिश्चितकाल के लिए बगीचा लगाना असम्भव न कर दिया हो।
एक अन्य वाद में एक व्यक्ति ने अपनी सम्पत्ति को अपनी पुत्री के पुत्र को इस शर्त के साथ अन्तरित किया कि वह अन्तरक की विधवा की मृत्यु के उपरान्त पैतृक मकान में निवास करेगा। बाद में पुत्री ने विधवा के साथ मिलकर मकान बेच दिया। यह अभिनिर्णीत हुआ कि पुत्र सम्पत्ति से वंचित हो गया है, क्योंकि उसने स्वयं के कृत्य द्वारा मकान में अपने आवास को असम्भव बना दिया।
इस धारा के समानान्तर व्यवस्था इण्डियन सक्सेशन एक्ट की धारा 136 में दी गयी है। इसी से मिलती-जुलती व्यवस्था भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 34 में भी दी गयी है। एक दान 'अ' को इस शर्त पर किया जाता है कि यदि वह वायुसेना में भर्ती नहीं होता है तो वह दान 'ब' को मिल जाएगा। वायु सेना में कब तक भर्ती होना है इसकी अवधि नहीं निर्धारित है। 'अ' संयासी हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में वायु सेना में भर्ती होने की शर्त असम्भव हो जाएगी या स्थायी रूप से निलम्बित या अनिश्चितकाल के लिए अवश्य निलम्बित हो जाएगी।
सेक्शन-34
इस धारा में उल्लिखित सिद्धान्त निम्नलिखित दो सूत्रों पर आधारित है -
(1) कपट अथवा धोखाधड़ी से किसी व्यक्ति को लाभ नहीं मिलना चाहिए
(2) कोई भी व्यक्ति अपनी ही त्रुटियों का लाभ नहीं उठा सकता
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित दो प्रकार के मामले आते हैं-
(1) जहाँ अन्तरण की शर्त गठित करने वाले किसी कार्य के अनुपालन के लिए कोई समय विनिर्दिष्ट किया गया हो और उस शर्त की पूर्ति उस व्यक्ति के कपट द्वारा निवारित कर दी गयी हो जिसे शर्त को अपूर्ति से सीधे फायदा होता है।
(2) जहाँ ऐसे कार्य की पूर्ति के लिए कोई समय न विनिर्दिष्ट किया गया हो, और उस शर्त का पूर्ण किया जाना उस व्यक्ति के कपट द्वारा असम्भव बना दिया गया हो जिसे शर्त की आपूर्ति से लाभ पहुंचता हो या अनिश्चित समय से मुल्तवी कर दिया गया हो।
प्रथम स्थिति में, शर्त के अनुपालन हेतु इतना अतिरिक्त समय दिया जाएगा जितना ऐसे कपट द्वारा किये गये बिलम्ब की प्रतिपूर्ति के लिए अपेक्षित होगा। दूसरी स्थिति में यह समझा जाएगा कि शर्त पूरी कर दी गयी है। 'अ' ने एक सामान्य अन्तरण द्वारा परिवार के प्रत्येक सदस्य को सम्पत्ति में एक अंश दिया। स्त्री अंशधारियों पर यह शर्त लगायी गयी थी कि उन्हें अपना हित बनाये रखने के लिए किसी धार्मिक स्थल में एक माह व्यतीत करना होना अन्यथा उनका अंश जब्त हो जाएगा। 'स' जो एक स्त्री सदस्य थी के रिस्तेदार 'ब' ने कपट कर उसे एक महीने तीर्थ स्थल से बाहर रखा इस धारा के अन्तर्गत स को लाभ मिलेगा और उसका अंश जब्त नहीं होगा।
अज्ञान इत्यादि का प्रभाव- इस धारा के अन्तर्गत केवल कपट की दशा में संरक्षण प्राप्त है। अज्ञान, बीमारी, उदासीन इत्यादि की स्थिति में संरक्षण नहीं मिलेगा।
इस धारा में वर्णित सिद्धान्त लागू नहीं होगा
यदि वह कपट से भिन्न स्वतंत्र रूप से सम्पत्ति पाने के लिए प्राधिकृत है।
जहाँ किसी अन्य व्यक्ति का अधिकार प्रभावित हो रहा हो।