The Indian Contract Act की धारा 28 के प्रावधान

Shadab Salim

21 Aug 2025 3:23 PM IST

  • The Indian Contract Act की धारा 28 के प्रावधान

    भारत के संविधान ने किसी भी व्यक्ति को अपने संवैधानिक और सिविल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए कोर्ट का रास्ता दिया है। यदि किसी व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति के कार्य या लोप द्वारा कोई क्षति होती है तो ऐसी क्षति के परिणामस्वरूप कोर्ट के समक्ष जाकर अनुतोष प्राप्त कर सकता है। कोई भी ऐसा करार जो किसी व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों और सिविल अधिकारों में व्यवधान पैदा करता है वह शून्य होता है।

    भारतीय संविदा अधिनियम 1872 के अंतर्गत धारा 28 में यह प्रावधान किया गया है कि कोई भी ऐसा करार जो किसी वैधानिक कार्यवाही में अवरोध पैदा कर रहा है इस प्रकार का करार शून्य होता तथा प्रारंभ से ही इस करार का कोई अस्तित्व नहीं होता।

    यदि किसी करार के माध्यम से किसी अन्य व्यक्ति के मूल अधिकारों को रोका जा रहा है या उसे अपने मूल अधिकार प्रवर्तनीय करने से वंचित किया जा रहा है तो यह करार शून्य होगा। फिरोज एंड कंपनी (2) जम्मू एंड कश्मीर 1962 के वाद में यह कहा गया है कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 25 के अनुसार विधिक कार्यवाही में बाधा पहुंचाने वाले करार शून्य होते हैं क्योंकि विधिक कार्यवाही विधिपूर्ण कार्यवाही मानी जाती है।

    अतः कोई भी करार जिसके कारण कोर्ट द्वारा पीड़ित व्यक्ति को अनुतोष न मिल सके इस प्रकार का करार माना जायेगा।

    जहां किसी मकान मालिक ने किसी किराएदार के विरुद्ध एक पक्षीय डिक्री प्राप्त की है और डिक्री के निष्पादन हेतु अधिकृत व्यक्ति वहां गया और मकान मालिक को वह कब्जा दिलवाया गया और डिलीवरी वारंट पर किराएदार से यह प्रस्थापना की -

    'मैं अब इस स्थान को छोड़ने के अधीन हूं और बिना किसी प्रकार की आपत्ति प्रकट किए हुए बिना कोई अग्रिम कार्यवाही निष्पादित कराने हेतु प्रयास किए मैं इस कार्य को पूर्ण अंतिम मानते हुए इस कोर्ट आदेश को अंतिम मानता रहूंगा'

    बाद में उक्त किराएदार ने उक्त बेदखली के आदेश के विरुद्ध पुनरीक्षण याचिका प्रस्तुत की और उसने अपने द्वारा प्रस्तुत कथन की बाबत यह कहा कि वह करार शून्य है और वह आधिकारपूर्वक पुनरीक्षण वाद प्रस्तुत कर सकता है।

    उपरोक्त मामले में मद्रास हाईकोर्ट ने बड़ी सूक्ष्मता के साथ विचार करते हुए कहा-

    तथ्यों और परिस्थितियों का अवलोकन करने और सिविल रिवीजन पर विचार करने से यह बात स्पष्ट होती है कि इस मामले में जो प्रश्न उभरकर आता है वह केवल प्रतिफल से संबंधित है। प्रतिफल का विधिक प्रभाव क्या है जिसका संबंध उक्त पृष्ठांकन से है जो याची द्वारा कोर्ट के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। उत्तरदाता के विद्वान एडवोकेट ने अभिवचन प्रस्तुत किया कि जो उपरोक्त पृष्ठांकन उसने अर्थात याची ने किया है उससे वास्तविक पुनरीक्षण याचिका प्रस्तुत करने के आयोग्य बन जाता है कोर्ट सिविल याचिका को निरस्त कर देना चाहिए।

    श्रीमान टीकम सिंह बनाम गैमन इंडिया लिमिटेड ए आई आर 1970 एस सी 740 यदि दो या दो से अधिक न्यायालयों को सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत ऐसे मामले की सुनवाई करने का क्षेत्र अधिकार प्राप्त है तो पक्षकारों के मध्य किया गया यह करार की उनमें से किसी एक कोर्ट द्वारा उसे निपटाए जाने हेतु वाद प्रस्तुत किया जाएगा विधि मान्य होगा परंतु किसी कोर्ट को सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार नहीं प्राप्त है तो किसी करार द्वारा उसे क्षेत्राधिकार नहीं प्रदान किया जा सकता है। वह परिणामस्वरूप यदि किसी कोर्ट को क्षेत्राधिकार नहीं प्राप्त है और करार द्वारा उसे क्षेत्राधिकार प्रदान किया जाता है तो करार शून्य होगा।

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