SC/ST Act की धारा 18 के प्रावधान

Shadab Salim

12 May 2025 12:41 PM IST

  • SC/ST Act की धारा 18 के प्रावधान

    भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482 एंटीसेप्टरी बेल के संबंध में उल्लेख करती है। किसी व्यक्ति को अपनी गिरफ्तारी का भय है तथा उस व्यक्ति को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार किया जा रहा है या किसी प्रकरण में झूठा फंसाया जा रहा है तो वह व्यक्ति गिरफ्तार होने के पूर्व ही सत्र या हाईकोर्ट से एंटीसेप्टरी बेल मांग सकता है। यह कोर्ट का विवेकाधिकार है कि उसे एंटीसेप्टरी बेल प्रदान करें या न करें परंतु इस अधिनियम के अंतर्गत जिसे अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के नाम से जाना जाता है।

    धारा 18 ने स्पष्ट रूप से यह ही कह दिया है कि किसी भी ऐसे व्यक्ति को एंटीसेप्टरी बेल प्राप्त करने का अधिकार ही नहीं होगा अर्थात यहां पर कोर्ट के विवेक अधिकार को भी समाप्त कर दिया गया है तथा एक अभियुक्त को जिसे अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अंतर्गत आरोपी बनाया गया है उसे एंटीसेप्टरी बेल का आवेदन पत्र करने से भी रोका गया है।

    इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 18 को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है उसका मूल स्वरूप इस आलेख में यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-

    अधिनियम के अधीन अपराध करने वाले व्यक्तियों को संहिता की धारा 438 का लागू न होना – संहिता की धारा 438 की कोई बात इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध करने के अभियोग पर किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के किसी मामले के सम्बन्ध में लागू नहीं होगी।

    यह धारा स्पष्ट रूप से अधिकधित करती है कि जब अपराध इस अधिनियम के अधीन व्यक्त के विरुद्ध पंजीकृत किया जाता है, तो तब कोई कोर्ट एंटीसेप्टरी बेल के लिए आवेदन स्वीकार नहीं करेगा, जब तक वह प्रथम दृष्ट्या यह नहीं पाता कि ऐसा अपराध कारित नहीं किया गया है।

    अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 18, सपठित धारा 438, दंड प्रक्रिया संहिता का क्षेत्र ऐसे है कि यह एंटीसेप्टरी बेल की मंजूरी में रोक सृजित करता है, जब तक प्रथम दृष्टया यह न पाया जाय कि ऐसा अपराध नहीं बनता है। जब विशेष अधिनियम में उन व्यक्तियों को, जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जाति से सम्बन्धित थे, संरक्षित करने के लिए प्रावधान किया गया है, तब अधिरोपित रोक को आसानी से हटाया नहीं जा सकता है।

    जहाँ किया गया अपराध, भारतीय न्याय संहिता के प्रावधानों के अधीन आता हो, यह अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति के विरुद्ध, इसी कारण से कि वह अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति का सदस्य है, कारित किया गया होना चाहिए, इसलिए भारतीय न्याय संहिता के अधीन अपराध कारित करने का आशय यह होना चाहिए कि पीड़ित अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति का सदस्य है। यदि भारतीय दण्ड संहिता के अधीन अपराध उसकी जाति पर विचार बिना किसी अन्य आधार पर फारित किया गया था तब अपराध अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम के प्रावधानों को आकर्षित नहीं करेगा।

    यदि अधिनियम के प्रावधानों का कतिपय अन्य अधिनियमितियों के यथा विरुद्ध, जहाँ अन्तरिम जमानत की मंजूरी अथवा नियमित जमानत की मंजूरी के लिए मामले के विचारण पर समान निर्बंन्धन अधिरोपित किए गये हैं, तुलना करने पर रूचिकर स्थिति उद्भूत होती है। आतंकवाद और विध्वंसकारी गतिविधियाँ (निवारण) अधिनियम, 1985 (संक्षेप में "टाडा"-अब निरसित है) की धारा 17 (4) यह कथन करती थी, "संहिता की धारा 438 में कोई बात इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन दण्डनीय अपराध कारित करने के अभिकधन पर किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी को अन्तर्ग्रस्त करने वाले किसी मामले के सम्बन्ध में लागू नहीं होगी"।

    टाढा अधिनियम की धारा 17 (5) पुनः टाडा अधिनियम के अधीन दण्डनीय अपराध के अभियुक्त पर नियमित जमानत पर निर्मुक्त किए जाने के लिए निर्बंधन अधिरोपित करती है और शर्तों में से एक थी जहाँ लोक अभियोजक जमानत को मंजूरी के लिए आवेदन पत्र का विरोध करता है, वहाँ कोर्ट का यह समाधान होना है कि यह विश्वास करने का युक्तियुक्त आधार था कि अभियुक्त ऐसे अपराध का दोषी नहीं था और यह कि उसका जमानत पर रहते समय ऐसा कोई अपराध कारित करना सम्भाव्य नहीं था विधि विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 (संक्षेप में "यू० ए० पी० ए० अधिनियम") के प्रावधान अर्थात् धारा 43 प (4) और 43-प (5) के प्रावधान टाडा अधिनियम की पूर्वोक्त धारा 17 (4) और 17 (5) के समान हैं। इसी प्रकार महाराष्ट्र संगठित अपराध नियन्त्रण अधिनियम, 1999 (संक्षेप में "एम० सी० ओ० सी० अधिनियम") के प्रावधान अर्थात् धारा 21 (3) और 21 (4) भी निबन्धनों में समान है।

    इस प्रकार इन विशेष अधिनियमितियों के अधीन सम्बद्ध अपराधों को कारित करने वाले अभियुक्त के निर्मुक्ति के प्रभाव पर विधायिका के द्वारा न केवल एंटीसेप्टरी बेल के मामले पर विचारण के प्रक्रम वरन् गिरफ्तारी के पश्चात् नियमित जमानत की मंजूरी के प्रक्रम पर भी भलीभांति विचार किया गया था। लेकिन स्वापक औषधि और मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (संक्षेप में "एन० डी० पी० एस० अधिनियम") के प्रावधान इस बाद में भिन्न हैं कि धारा 37 के अधीन निर्बंन्धन उस प्रक्रम पर होता है, जहाँ मामले पर नियमित जमानत को मंजूरी के लिए विचार किया गया हो।

    ऐसे किसी निर्बंन्धन पर सोचा नहीं गया है और उसे एंटीसेप्टरी बेल की मंजूरी के लिए मामले के विचारण के प्रक्रम पर प्रस्तुत नहीं किया गया है। दूसरी तरफ, अधिनियम के प्रावधान सम्पूर्ण रूप में विरुद्ध हैं और धारा 18 में निर्बंन्धन केवल एंटीसेप्टरी बेल के लिए मामले पर विचार करने के प्रक्रम पर होता है और ऐसा कोई निर्बंन्धन उपलब्ध नहीं होता है, जबकि मामले पर नियमित जमानत की मंजूरी के लिए विचार किया जाना है। सैद्धान्तिक रूप से यह कथन करना सम्भाव्य है कि संहिता की धारा 438 के अधीन आवेदन पत्र कोर्ट के द्वारा अधिनियम की धारा 18 के अधीन अभिव्यक्त निर्बन्धन के कारण मंजूर किया जा सकता है।

    एंटीसेप्टरी बेल की मंजूरी पर निर्बन्धन प्रस्तुत करने की इस स्थिति के पीछे कोई आधार प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि नियमित जमानत की मंजूरी के लिए किसी भी रीति में ऐसा कोई प्रतिषेध नहीं है। इसलिए, वह सब, जो अधिक आवश्यक तथा महत्वपूर्ण है, यह है कि अधिनियम की धारा 18 के अधीन अभिव्यक्त अपवर्जन वास्तविक मामलों तक ही सीमित होता है और वहाँ अप्रयोज्यनीय होता है, जहाँ कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है।

    एंटीसेप्टरी बेल के अधिकार का अपवर्जन केवल उस समय प्रयोज्यनीय होता है, यदि मामले को सद्भावपूर्वक होना दर्शाया जाता है और यह कि यह प्रथम दृष्टया अत्याचार अधिनियम के अधीन, न कि अन्यथा आता है। धारा 18 वहाँ लागू नहीं होती है, जहाँ कोई प्रथम दृष्टया मामला न हो अथवा अभिव्यक्त मिथ्या फंसाव का मामला न हो अथवा जब अभिकथन बाह्य कारकों से अभिप्रेरित न हो।

    यह निःसंदेह सत्य है कि संहिता की धारा 482, जो भारतीय न्याय संहिता के अधीन अपराधों के सम्बन्ध में अभियुक्त को उपलब्ध होती है, अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन अपराधों के सम्बन्ध में उपलब्ध नहीं होती है। अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अधिनियम के अधीन प्रगणित अपराध पृथक् तथा विशेष वर्ग में आते हैं। संविधान का अनुच्छेद 17 अभिव्यक्त रूप में 'अस्पृश्यता' की समाप्ति का वर्णन करता है और उसके किसी भी रूप में व्यवहार को प्रतिषिद्ध करता है और यह भी प्रावधान करता है कि 'अस्पृश्यता' से उद्भूत किसी निर्योग्यता का प्रवर्तन विधि के अनुसार दण्डनीय होगा।

    इसलिए अपराध, जो इस अधिनियम की धारा 3 (1) के अधीन प्रगणित हैं, 'अस्पृश्यता' के व्यवहार से उद्भूत होते हैं। यह इस संदर्भ में है कि अ० जा० अ० जन० अधिनियम में कतिपय विशेष प्रावधान बनाया गया है, जिसमें धारा 18 के अधीन आक्षेपित प्रावधान शामिल है, जो हमारे समक्ष है। इस अधिनियम के अधीन अपराधों के सम्बन्ध में संहिता की धारा 482 के अपवर्जन को विद्यमान सामाजिक दशाओं, जो ऐसे अपराधों से उद्भूत होती हैं, के संदर्भ में समझा जाना है और यह आशंका कि ऐसे अत्याचारों के अपराधियों का अपने पीड़ित व्यक्तियों को धमकी देना तथा अभित्रासित करना तथा उन्हें इन अपराधियों के अभियोजन में निवारित करना तथा अवरुद्ध करना सम्भाव्य है, यदि अपराधियों को एंटीसेप्टरी बेल का उपयोग करने के लिए अनुज्ञात किया जाता है।

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