किशोर-न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के अंतर्गत संरक्षण की आवश्यकता वाले बालक के संदर्भ में प्रावधान

Shadab Salim

16 March 2021 4:59 AM GMT

  • किशोर-न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 के अंतर्गत संरक्षण की आवश्यकता वाले बालक के संदर्भ में प्रावधान

    किशोर न्याय अधिनियम केवल किशोरों के संबंध में उन किशोरों के लिए ही उपबंध नहीं करता है जो किसी अपराध में संलिप्त है अपितु इसमे उन बालकों को भी शामिल किया गया है जिन्हें देख रेख की आवश्यकता है। इससे संबंधित प्रावधानों को यहां इस आलेख में प्रस्तुत किया जा रहा है।

    चाइल्ड वेलफेयर कमेटी

    इस अधिनियम की धारा 29 के अंतर्गत प्रत्येक जिले के लिए, जैसा कि अधिसूचना में विहित किया जाए देख रेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बालक के कल्याण के लिए ऐसी समिति को प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए एक या अधिक कल्याण समितियों का गठन कर सकती है।

    ऐसी बालक कल्याण समितियों में एक अध्यक्ष और चार अन्य सदस्य होगे जिनमे वें कम से कम एक को महानगरीय मजिस्ट्रेट होना अनिवार्य है। सदस्यो की अर्हता संबंधी प्रावधान जिसके लिए समिति के सभी सदस्य को राज्य सरकार जैसा उचित समझे के लागू कर सकती है।

    बालक कल्याण समिति मजिस्ट्रेटों की पीठ के रूप में कार्य करते हैं वे सभी शक्तियों प्राप्त होगी जो कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अधीन न्यायिक मंजिस्ट्रेट को प्रात है। अर्थात इसके सभी सदस्यों के पास न्यायिक पद को धारण करने के बाद आने वाली शक्तियां प्राप्त हो जाती है।

    समिति ऐसे समय पर अपनी बैठके करेगी और अपनी बैठक में कार्य सम्पादन करने से सम्बन्धित प्रक्रिया के ऐसे नियमों का पालन करेगी जैसा कि विहित किया जाए।

    इस अधिनियम की धारा-30 के अनुसार देख-रेख और संरक्षण को अपेक्षा करने वाले किसी बालक को उस स्थिति में जब समिति की बैठक नहीं चल रही है, तब उसको सुरक्षित अभिरक्षण में रखने के लिए अथवा किसी एक सदस्य के समक्ष भी पेश किया जा सकता।

    समिति की शक्तियाँ

    इस अधिनियम की धारा 31 बालकों को देख-रेख, संरक्षा, उपचार, विकास और पुनर्वासन से सम्बन्धित मामलों के निपटारे तथा उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की व्यवस्था और उनके मानवाधिकारों की संरक्षा के सम्बन्ध में समिति को अन्तिम शक्ति होगी।

    जहाँ किसी क्षेत्र के लिये समिति का गठन किया गया है, वहां ऐसी समिति को तत्समय प्रवृत किसी अन्य विधि में समाविष्ट किसी बात के होते हुये भी, परन्तु इस अधिनियम में अभिव्यक रूप से अन्यथा उपबन्धित को छोड़कर, देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बालकों के सम्बन्ध में इस अधिनियम के अधीन सारी कार्यवाहियों के साथ अनन्यतम रूप में संव्यवहार करने की शक्ति होगी। यह अधिनियम बालकों के संरक्षण हेतु समिति को अन्याय शक्ति प्रदान कर रहा है। इस अधिनियम की धारा 31 इसका स्पष्ट उल्लेख कर रही है।

    समिति के समक्ष पेश करना

    इस अधिनियम की धारा 32 उन व्यक्तियों के नाम निर्दिष्ट कर रही है जो देख रेख की आवश्यकता वाले बालकों को समिति के समक्ष पेश कर सकते हैं।

    देख-रेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले किसी बालक को निम्नलिखित व्यक्तियों में से किसी एक द्वारा समिति के समक्ष पेश किया जा सकेगा।

    पुलिस अधिकारी।

    इस काम के लिए निर्दिष्ट पुलिस अधिकारी।

    बालको के लिए कार्य करने वाली निजी रजिस्टर्ड संस्था।

    कोई मजिस्ट्रेट

    इस अधिनियम के अन्तर्गत राज्य द्वारा निर्मित नियम के अधीन जांच लम्बित रहने के दौरान बालक को बालगृह (Children Home) की अभिरक्षा में रखा जा सकता है।

    सयाजी हनुमन्त बानकर बनाम महाराष्ट्र राज्य के प्रकरण में बम्बई उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जहां अन्वेषण अधिकारों ने बालक को अपने प्रभार में लिये जाने के बाद बाल कल्याण समिति के समक्ष प्रस्तुत कर दिया हो, तो इसे इसकी सूचना सम्बन्धित किशोर न्याय बोर्ड को भी देना आवश्यक होगा।

    ऐसी स्थिति में बालगृह बालक को अर्द्धवार्षिक प्रगति रिपोर्ट सम्बन्धित बोर्ड को भेजेगा। इससे किशोर न्याय बोर्ड को विधि का उल्लंघन करने वाले विचाराधीन बालक के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाने में मदद मिलेगी।

    जांच

    अधिनियम की धारा 32 के अधीन रिपोर्ट प्राप्त करने पर समिति विहित रीति से जांच करेगी और समिति या तो अपनी अथवा किसी व्यक्ति या अभिकरण की रिपोर्ट पर जैसा कि उपधारा (1) में उल्लिखित है, किसी सामाजिक कार्यकर्ता या बाल-कल्याण अधिकारो द्वारा त्वरित जांच के लिये बालक को बालक-गृह भेजने के लिये आदेश पारित करेगा।

    इस धारा के अधीन जांच का आदेश प्राप्त करने के चार महीनों के भीतर अथवा ऐसी कम अवधि के भीतर जैसा कि समिति द्वारा निर्धारित किया जाय, परन्तु यह कि जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए समय को ऐसी अवधि लिये बढाया जा सकेगा जैसा कि समिति परिस्थितियों पर ध्यान देते हुए और उन कारणों से जिन्हें लेख में अभिलिखित किया जाए, अवधारित करेगा।

    राज्य सरकार हर छह महीनों पर समिति के लम्बित मामले का पुनर्विलोकन करेगी और समिति को उसको बैठकों की आवृत्ति को बढ़ाने का निर्देश देगी अथवा अतिरिक्त समितियों का गठन कारित कर सकेगी।

    जांच पूरी हो जाने के बाद यदि समिति की यह राय है कि उक्त बालक का कोई परिवार या सहारा नहीं है या उसको निरंतर देखभाल या संरक्षण की जरूरत है, तो वह बालक को तब तक बालक-गृह या आश्रय-गृह में रहने की अनुज्ञा दे सकेगी जब तक उसके लिये उपयुक्त पुनर्वास प्राप्त नहीं हो जाता या जब तक वह अठारह वर्ष को आयु प्राप्त नहीं कर लेता है।

    बालक गृह (Children's Home)

    राज्य सरकार या तो स्वयं अथवा स्वयंसेवी संगठनों के साथ मिलकर प्रत्येक जिले या जिलों के समूह में, जैसी भी स्थिति हो, जाँच की लम्बितावस्था में देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बालक के प्रवेश और उसके बाद उसका प्रशिक्षण, विकास और पुनर्वास के लिए बालक-गृहों को स्थापित और अनुसूचित करती है।

    धारा 33 में देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता वाले बालकों के हितार्थ बालक गृहों की व्यवस्था है। इन बालक गृहों में जांच को लम्बित अवस्था में देख रेख एवं संरक्षण में आवश्यकता वाले बालकों को प्रवेश देकर उनके उपचार, शिक्षा, प्रशिक्षण, विकास और पुनर्वास की व्यवस्था की जाती है।

    बालक गृह की स्थापना राज्य सरकार द्वारा या किसी स्वयंसेवी संगठन द्वारा की जा सकती है।

    बालक-गृहों का प्रबंधन एवं संचालन राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों के अधीन किया जाता है तथा इनमें प्रदान की जाने वाली सेवाओं के स्तर एवं उनकी प्रकृति के आधार पर राज्य सरकार बालक यह को प्रमाणित का दर्जा दे सकती है अथवा कार्यों के बारे में संतुष्टि न होने पर मान्यता समाप्त भी कर सकती है।

    उल्लेखनीय है कि किशोरों के लिए संप्रेक्षण गृह (Observation Homes), विशेष गृह (Special Homes), तथा बालकों के लिए बालक-गृह (Children's Homes) की व्यवस्था पहले के किशोर न्याय अधिनियम, 1986 के अन्तर्गत भी विद्यमान थी परन्तु आश्रयगृहों (Shelter Homes) की व्यवस्था अधिनियम में नहीं थी।

    अत: यह एक नाइ व्यवस्था है जिसे किशोर न्याय (बालकों की देखरेख क संरक्षण) अधिनियम, 2000 के अधीन प्रावधानित किया गया है। आश्रय गृह में ऐसे किशोरों को लाया जाता है जिन्हें तत्काल आश्रय या सहारे की आवश्यकता होती है।

    अधिनियम को धारा 32 (1) के अधीन बालक कल्याण समिति के समक्ष प्रस्तुत किये गये निराश्रित बालकों को आश्रय गृह (Shelter Home में रखा जाएगा।

    इस अधिनियम की धारा 39 में उल्लेख है बालक गृह एवं आश्रय गृहों का प्रमुख उद्देश्य बालकों का प्रत्यावर्तन एवं संरक्षण (protection) सुनिश्चित करना है।

    स्थानान्तरण

    धारा 38 के अनुसार यदि जाँच के दौरान यह पाया जाता है कि बालक समिति की अधिकारिता से बाहर के स्थान से आया है, तो समिति बालक को उस सक्षम प्राधिकारी के पास स्थानांतरित कर देने का आदेश पारित करेगी, जिसको बालक के निवास के स्थान पर अधिकारिता प्राप्त है।

    (2) ऐसे किशोर या बालक को उस गृह के कर्मचारी द्वारा अनुरक्षण में ले जाया जायेगा जहाँ पर उसको प्रारम्भ में रखा गया था।

    (3) राज्य सरकार बालक को यात्रा भत्ता का भुगतान करने के लिये नियमों का निर्माण कर सकती है।

    बालकों का प्रत्यावर्तन

    यह इस अधिनियम की महत्वपूर्ण धारा है। धारा 39 के अनुसार किसी भी बालक-गृह अथवा आश्रय-गृह का पहला उद्देश्य किसी बालक का प्रत्यावर्तन और संरक्षण होगा।

    बालक गृह अथवा आश्रय गृह जैसी भी स्थिति हो, ऐसे किसी बालक लिये जो कि अस्थायी अथवा स्थायी तौर पर अपने पारिवारिक वातावरण से वंचित हो गया है, ऐसे कदम उठायेगा जो कि उसके प्रत्यावर्तन और संरक्षण के लिए आवश्यक हो, जहाँ कि ऐसा बालक किसी बालक गृह या आश्रय गृह की जैसी भी स्थिति हो, देखरेख और उसके संरक्षण में है।

    समिति को ऐसे किसी बालक के सम्बन्ध में जिसे देखरेख और संरक्षण की आवश्यकता है, उसके माता-पिता, संरक्षक, योग्य व्यक्ति अथवा योग्य संस्थान को प्रत्यावर्तित और उपयुक्त निर्देश देने की शक्तियां होगी।

    इस धारा के प्रयोजनों के लिए 'बालक के प्रत्यावर्तन' और संरक्षण से अभिप्रेत है-

    (क) माता-पिता,

    (ख) दत्तक माता-पिता,

    (ग) पोषक माता-पिता,

    संरक्षक,

    योग्य-व्यक्ति,

    योग्य संस्थान

    उद्देश्य समुचित व्यवस्था करना है। इस धारा 39 के अनुसार प्रत्यावर्तन से आशय है बालक को उसके माता पिता को वापस सुपुर्द करना ताकि वे उसकी उचित देख रेख और संरक्षण का दायित्व निभाएं।

    झारखण्ड उच्च न्यायालय ने न्यायालय की स्वप्रेरणा से एक वाद में अभिनिर्धारित किया- बालगृह या आश्रय गृह (Shelter home) का मुख्य उद्देश्य बालकों का संरक्षण और उनका पुनर्वास होना चाहिए।

    इस प्रकरण में न्यायालय ने खेद व्यक्त किया कि झारखण्ड तथा बिहार राज्य ने अपचारी किशोरों के पुनर्वास के कोई प्रयास नहीं किये। दोनों राज्यों ने न तो इस प्रकरण में उक्त किशोरी को उसके माता- पिता या संरक्षक का आसरा दिलाया और न धारा 39 के अधीन कोई कार्यवाही की। अत: दोनों राज्य पीड़िता को एक लाख रुपये की क्षतिपूर्ति राशि दें।

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