Consumer Protection Act में स्टेट फोरम की व्यवस्था

Shadab Salim

28 May 2025 5:00 PM IST

  • Consumer Protection Act में स्टेट फोरम की व्यवस्था

    इस एक्ट की धारा 47 में स्टेट फोरम के प्रावधान किये गए हैं जो एक अपील फोरम तो है ही साथ ही ट्रायल फोरम भी है जो बड़ी धनराशि की कंप्लेंट भी सुनती है।

    इस एक्ट की स्टेट फोरम से संबंधित धारा 47 इस प्रकार है

    राज्य आयोग की अधिकारिता-

    (1) इस अधिनियम के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य आयोग को निम्नलिखित की अधिकारिता होगी

    (क) (i) उन परिवादों को ग्रहण करना जिनमें प्रतिफल के रूप में संदत्त माल या सेवाओं का मूल्य एक करोड़ रु से अधिक है किन्तु दस करोड़ रु से अधिक नहीं हो:

    परंतु जहां केन्द्रीय सरकार ऐसा करना आवश्यक समझती है वहां वह ऐसा अन्य मूल्य विहित कर सकेगी जो वह ठीक समझे।

    (ii) अनुचित संविदाओं के विरुद्ध परिवाद जहां प्रतिफल के रूप में संदत्त माल या सेवाओं का मूल्य दस करोड़ रु० से अधिक नहीं है;

    (iii) राज्य के भीतर किसी जिला आयोग के आदेशों के विरुद्ध अपीलें; और

    (ख) जहां राज्य आयोग को यह प्रतीत होता कि ऐसे जिला आयोग ने ऐसी किसी अधिकारिता का प्रयोग किया है जो विधि द्वारा उसमें निहित नहीं है या जो इस प्रकार निहित अधिकारिता का प्रयोग करने में असफल रहा या उसने वह कार्य अपनी अधिकारिता का अवैध रूप से प्रयोग करते हुए किया है या तात्विक अनियमितता से किया है तो वहां किसी उपभोक्ता विवाद में, जो राज्य के भीतर किसी जिला आयोग के समय लंबित है या जिसका विनिश्चय उसके द्वारा किया गया है, अभिलेखों को मंगाना और समुचित आदेश पारित करना।

    (2) राज्य आयोग की अधिकारिता, शक्तियों और प्राधिकार का प्रयोग उसकी न्यायपीठों द्वारा किया जा सकेगा और न्यायपीठ का गठन अध्यक्ष द्वारा या एक अधिक सदस्यों से किया जा सकेगा जैसा अध्यक्ष ठीक समझे :

    परंतु ज्येष्ठतम न्यायपीठ की अध्यक्षता करेगा।

    (3) जहां न्यायपीठ के सदस्यों में किसी मुद्दे पर राज्य पर मतभेद है वहां मुद्दों पर बहुमत की राय के अनुसार विनिश्चय किया जाएगा, यदि बहुमत है किंतु यदि सदस्य बराबर-बराबर बंटे हुए हैं, तब वे उस मुद्दे या उन मुद्दों का कथन करेंगे जिनि पर उनमें मतभेद है और अध्यक्ष को निर्देश करेंगे जो या तो मुद्दे या मुद्दों को स्वयं सुनेगा या ऐसे मुद्दे या मुद्दों पर सुनवाई के लिए मामलों को अन्य सदस्यों में एक या अधिक सदस्य को निर्दिष्ट करेगा और ऐसे मुद्दे या मुद्दों पर सदस्यों के बहुमत की राय के अनुसार विनिश्चय किया जाएगा जिन्होंने मामले पर सुनवाई की है जिसमें वे सदस्य भी हैं जिन्होंने इसे पहली बार सुना था

    परंतु, यथास्थिति, अध्यक्ष या अन्य सदस्य ऐसे निर्देश की तारीख से एक मास की अवधि के भीतर इस प्रकार निर्दिष्ट मुद्दा या मुद्दों पर राय देगा या देंगे।

    (4) परिवाद ऐसे राज्य आयोग में संस्थित किया जाएगा जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर

    (क) विरोधी पक्षकार या जहां एक से अधिक विरोधी पक्षकार हैं वहां विरोधी पक्षकारों में उनमें से प्रत्येक पक्षकार परिवाद के संस्थित किए जाने के समय वास्तव में और स्वेच्छा से निववास करता है या कारवार करता है। या शाखा कार्यालय रखता है या अभिलाभ के लिए स्वयं काम करता है; या

    (ख) जहां एक से अधिक विरोधी पक्षकार हैं वहां विरोधी पक्षकारों में से कोई भी विरोधी पक्षकार परिवाद के संस्थित किए जाने के समय वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता है या कारवार करता है या शाखा कार्यालय रखता है या अभिलाभ के लिए स्वयं काम करता है, परंतु यह तब जब ऐसे मामले में राज्य आयोग की अनुज्ञा प्रदान की गई हो, या

    (ग) वाद हेतुक पूर्णतः या भागतः उत्पन्न होता है,

    (घ) परिवादी निवास करता है या काम करता है।

    अधिनियम की धारा 17-ख के अन्तर्गत राज्य आयोग को यह शक्ति है किसी उपभोक्ता के विवाद सम्बन्धित मामले चाहे निम्न कोर्ट में विचाराधीन हो या निस्तारित कर दिये गये हैं ऐसी पत्रावली को वापस परिवादी के प्रार्थना पत्र पर मंगा सकता है या पुनः निर्णीत कर सकता है। ऐसा तब हो सकता है जब राज्य आयोग सन्तुष्ट हो जाय कि जिलाधिकरण ने आदेश पारित करने में या प्रक्रिया में कोई त्रुटि की है। अधिनियम में वाद के स्थानान्तरण या वापसी के सन्दर्भ में प्रावधान के अभाव में वाद की वापसी या स्थानान्तरण सम्भव नहीं होगी।

    राज्य आयोग अन्य न्यायधिकरणों की भांति स्पष्ट है कि सभी प्रकार के विवादों को निपटाने का क्षेत्राधिकार रखता है। राज्य आयोग की अध्यक्षता जो हाईकोर्ट का न्यायाधीश रहा हो करता है। अतः जब तक की अति आवश्यक न हो, हाईकोर्ट बिना राज्य आयोग को क्षेत्राधिकार सम्बन्धी मामले को तय करने हेतु समय दिये बिना अनावश्यक बोझ नहीं लेगा।

    अतः हाईकोर्ट द्वारा रिट याचिका अपवाद स्वरूप ही सुनी जायेगी। दूसरे शब्दों में हाईकोर्ट न्यायाधिकरण की कार्यवाही में अनावश्यक दखलंदाजी नहीं कर सकती है सिवाय वहाँ के जहाँ पर कि अभिलेखों के देखने से पता चले कि स्पष्ट रूप से अपने क्षेत्राधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है। ।

    एक मामले में क्योंकि शुल्क को उद्गृहीत करने वाले कलेक्टर के आदेश कानूनी रूप से शास्ति तथा सरकारी खजाने में परिवादियों द्वारा किये गये भुगतान को कभी भी विधिक दृष्टिकोण से या तो सेवा प्रभार होना या सेवा के लिए प्रतिफल हेतु प्रदान की जाने वाली सेवा नहीं कहा जा सकता था, इसलिए प्रश्नगत् आदेश को पूर्णरूपेण राज्य आयोग द्वारा अधिकारिता के बगैर ही पारित किया हुआ माना गया कारण कि परिवादी इस अधिनियम उपभोक्ता की हैसियत से व्यवहृत नहीं किया जा सकता था।

    तेजसिंह पीत बनाम न्यू इण्डिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड व अन्य के मामले में परिवादी ने 4,01,100.00 रुपये की एक रकम के लिए विरोधी पक्षकार से खरगोशो का बीमा कराया। आकस्मिक तौर पर खरगोशों की मृत्यु हो गयी और इस घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट करवाई गयी। इसके पश्चात् जहाँ क्षतिपूर्ति के लिए परिवादी द्वारा एक परिवाद संस्थित किया गया, वहाँ विरोधी पक्षकार ने यह प्रकथन किया कि परिवादी ने बीमा पालिसी का अभिदाय करने के समय दोषपूर्ण विवरण प्रस्तुत किया था। आगे, विरोधी पक्षकार की ओर से यह भी अभिवचन किया गया कि बीमा पालिसी कराने के संदर्भ में, परिवादी ने सद्भावना पूर्वक ढंग से संविदा में भाग नहीं लिया था।

    सर्वेशक को मृत खरगोशों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट ईयर टैम्स, टीका एवं उपचार पार्टी को भी उपलब्ध नहीं कराया जा सका जो कि ऐसे तथ्य एवं कानून के जटिल प्रश्नों को अन्तर्गत करता है जिनका अवधारण संक्षिप्त कार्यवाही में नहीं किया जा सकता था। इसके अतिरिक्त चूंकि खरगोशों का मूल्य, उनके गुण और शारीरिक स्वास्थ्य पर निर्भर करता था, इसलिए इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता कि आयु एवं अन्य कारकों पर विचार किये बिना ही जर्मन अंगोला नर खरगोश का मूल्य तथा उसकी मादा खरगोश का मूल्य क्रमशः 400 एवं 500 रुपये था।

    इस प्रकार की अटकलबाजी के आधार पर नियत किये गये मूल्य को स्वीकृत नहीं किया जा सकता था, क्योंकि साक्ष्य में यह कही नहीं प्रदर्शित किया गया कि दावे के साथ ईयर टैग्स की आपूर्ति करना आज्ञापक था। अतः जहाँ ईयर टैग्म (ear tags) की आपूर्ति न किया जाना, मामले के लिए घातक नहीं था और जहाँ खरगोश की मृत्यु का प्रमाण पत्र, उनके मृत्यु का हेतुक तथा पोस्टमार्टम रिपोर्ट की भी सम्यक् रूप से आपूर्ति भी की गयी वहाँ परिवादी द्वारा भी दस्तावेजों की अपेक्षाओं का पूर्णतया अनुपालन किया गया था और इसलिए परिवादी के दावे का निराकरण, पूर्णतया स्वेच्छाचारी एवं अमान्य करने योग्य माना गया और विरोधी पक्षकार को ब्याज सहित परिवादी को 4,01,100.00 रुपये का बतौर प्रतिकर मंदाय करने का निर्देश दिया गया।

    सरदार सुरजीत सिंह बनाम न्यू इण्डिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के वाद में परिवादी ने जिस ट्रक को विरोधी पक्षकार के जरिये बीमा कराया था, वही एक नदी में गिरकर पूर्णतया क्षतिग्रस्त हो गयी थी। इस दुर्घटना में वाहन चालक एवं क्लीनर सहित व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी थी। हालांकि दावा किया गया तथा सर्वेक्षक द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत किये जाने के बावजूद भी, दावे का निस्तारण नहीं हो सका।

    जहाँ विरोधी पक्षकार की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया कि दुर्घटना होने के समय ट्रक में वाहन चालक एवं क्लीनर के साथ-साथ जो सात व्यक्ति बैठकर यात्रा कर रहे थे, वे यात्रा करने के लिए उसमें बैठने के कानूनी तौर पर हकदार नहीं थे, वहाँ पालिसी की शर्तों का उल्लंघन करने बावजूद भी वाहन चालक के पास वाहन को चलाने का विधिमान्य वाहन चालन लाइसेंस नहीं था।

    इन सभी परिस्थितियों में भी, इस धारणा का समर्थन किया जाना होगा कि दुर्घटना के समय मात्र ट्रक में अनधिकृत तौर पर कतिपय अनधिकृत व्यक्तियों को ढोने का परिवादी का दावा, तब तक पराजित नहीं हो जायेगा जब तक कि ऐसी दुर्घटना के कारित होने में उन सभी व्यक्तियों की योगदायी भूमिका होने को साबित नहीं कर दिया जाता। चूंकि यहाँ किसी व्यक्ति का यह मामला नहीं है कि ट्रक जिन मृत व्यक्तियों को दुर्घटना के समय से जा रही थी, उन्होंने दुर्घटना के घटित होने में कोई सहायता नहीं की थी।

    इसके अतिरिक्त, चूंकि दावा अधिकरण ने भी अपने लिखित आदेश में इस तर्क की संपुष्टि कर दी कि परिवादी के चालक के पास पिछले 10 वर्षों से वाहन चालन लाइसेंस या और उसे दुर्घटना के समय भी विधिमान्य पाया गया, इसलिए इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता था कि दुर्घटना होने के समय वाहन चालक के पास वाहन चालन लाइसेंस नहीं था। अंततः बीमा कंपनी को प्रतिवादी के पक्ष में 1,30,000 रुपये का संदाय करने का निर्देश दिया गया।

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