क्या नाराजी याचिका को परिवाद (Complaint) मानना मजिस्ट्रेट के लिए अनिवार्य है?

SPARSH UPADHYAY

19 Feb 2020 4:30 AM GMT

  • क्या नाराजी याचिका को परिवाद (Complaint) मानना मजिस्ट्रेट के लिए अनिवार्य है?

    हम अक्सर देखते हैं कि जब कोई अपराध घटित होता है तो कोई व्यक्ति (कभी मामले का पीड़ित या उसके सम्बन्धी या अन्यथा कोई व्यक्ति) जाकर पुलिस के समक्ष उस अपराध के सम्बन्ध में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराता है। पुलिस उस मामले में अन्वेषण करती है और इसके पश्च्यात वो किसी निष्कर्ष पर पहुँचती है।

    पुलिस द्वारा उस निष्कर्ष को एक रिपोर्ट के जरिये सम्बंधित मजिस्ट्रेट तक पहुँचाया जाता है। इस रिपोर्ट में पुलिस FIR में नामजद व्यक्ति/व्यक्तियों के विरुद्ध या तो मामला बनाती है या नहीं बनाती है और मामला बंद करने के निष्कर्ष पर पहुंचती है। अंततः मजिस्ट्रेट को ही यह तय करना होता है कि वह पुलिस की रिपोर्ट को माने अथवा नहीं और मामले में आगे कार्यवाही करने के लिए बढे अथवा नहीं।

    जहाँ मजिस्ट्रेट द्वारा पुलिस की क्लोजर रिपोर्ट को मानते हुए मामले में आगे की कार्यवाही न करने का विचार किया जाता है, वहां उसे इस सबंध में एक न्यायिक मत को लागू करने से पहले informant/victim को इस बाबत सूचित करना होता है, जिससे ऐसा व्यक्ति यदि चाहे तो एक नाराजी याचिका मजिस्ट्रेट के समक्ष दाखिल कर सके।

    नाराजी याचिका क्या होती है और कौन इसे दाखिल कर सकता है इस सम्बन्ध में हम पहले ही विस्तार से जानकारी हासिल कर चुके हैं। इस मौजूदा लेख में हम समझेंगे कि जब informant/victim द्वारा एक नाराजी याचिका दाखिल की जाती तो क्या मजिस्ट्रेट उस याचिका को एक परिवाद (Complaint) के रूप में मानने के लिए बाध्य है अथवा नहीं।

    क्या एक नाराजी याचिका की तुलना एक परिवाद से की जा सकती है?

    बाबू बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1989 ACR 470 के मामले में जस्टिस पलोक बसु द्वारा यह कहा गया था कि एक नाराजी याचिका की तुलना एक परिवाद (Complaint) से नहीं की जा सकती है और न ही की जानी चाहिए, जब तक कि परिवादी/मुखबिर/पीड़ित (complainant/informant/victim) द्वारा इस बाबत बयान नहीं दिया जाता है कि उसकी याचिका को धारा 190 (1) (ए), दंड प्रकिया संहिता, 1973 के अर्थ के भीतर एक परिवाद के रूप में माना जाए।

    वहीँ सत्यपाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1988 एसीसी 326: (1988 Cri LJ NOC (All) 17) के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह कहा था कि मजिस्ट्रेट दंड प्रकिया संहिता, 1973 की धारा 169 के तहत प्रस्तुत पुलिस रिपोर्ट को अस्वीकार करने के लिए स्वतंत्र है। इसके अलावा मजिस्ट्रेट, नाराजी याचिका पर कार्रवाई करते हुए इसे परिवाद मान सकता है, लेकिन वह ऐसा तभी कर सकता है जब नाराजी याचिका में परिवाद की सभी सामग्री शामिल हों, जिसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (डी) के तहत परिभाषित किया गया है।

    इसके अलावा ऐसा भी हो सकता है कि किसी कारण से मजिस्ट्रेट खुद ऐसी याचिका को एक शिकायत के रूप में माने और सीआरपीसी के अध्याय XVI में मौजूद प्रक्रिया का पालन करे। हमे यह ध्यान में रखना चाहिए कि एक नाराजी याचिका, पुलिस द्वारा मजिस्ट्रेट को भेजी गयी क्लोजर रिपोर्ट की स्वीकृति के लिए केवल एक आपत्ति भर है। हालाँकि, इसके लिए दंड प्रक्रिया संहिता में कोई प्रावधान मौजूद नहीं है।

    वीरप्पा एवं अन्य बनाम भीमदरदप्पा ILR 2002 KAR 1665 के मामले में कर्णाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया था कि जो व्यक्ति एक नाराजी याचिका दाखिल करता है उसे एक परिवाद की आवश्यकताओं को पूरा करना होगा, जैसा कि CrPC की धारा 2 (डी) में परिभाषित किया गया है। इस याचिका में ऐसे तथ्य शामिल होने चाहिए, जो अपराध का गठन करते हैं, जिसके लिए, सम्बंधित मजिस्ट्रेट दंड प्रकिया संहिता, 1973 की धारा 190 (1) (ए) के तहत संज्ञान ले सके।

    इसके बजाय, यदि एक नाराजी याचिका को उन सभी आवश्यक विवरणों को शामिल किए बिना केवल एक नाराजी याचिका के रूप में स्टाइल किया जाता है, जिसमें एक सामान्य शिकायत शामिल है, तो, इसे दंड प्रकिया संहिता, 1973 की धारा 200 के तहत कार्यवाही के उद्देश्य के लिए एक परिवाद के रूप में नहीं माना जा सकता है।

    मजिस्ट्रेट के लिया क्या है कोई बाध्यता?

    ज्यादातर आपराधिक मामलों में जब पुलिस द्वारा अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है, तो मजिस्ट्रेट को केवल इस बात पर विचार करना होता है कि क्या केस डायरी में मौजूद सामग्री के अनुसार पुलिस की अंतिम रिपोर्ट को स्वीकार किया जा सकता है या वास्तव में केस डायरी के अनुसार प्रथम दृष्टया एक आपराधिक मामले का खुलासा होता है, जिसपर मजिस्ट्रेट द्वारा संज्ञान लिया जा सके।

    ऐसी स्थिति में एक नाराजी याचिका केवल केस डायरी में मौजूद अहम् सामग्री की ओर मजिस्ट्रेट का ध्यान आकर्षित करने का कार्य करती है और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि क्योंकि मामले में एक नाराजी याचिका दाखिल की गयी है तो उसे अनिवार्य रूप से परिवाद के रूप में स्वीकार कर लिया जायेगा।

    इसी प्रकार कासिम बनाम राज्य, 1984 Cri LJ 1677 के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह आयोजित किया गया था कि यदि मजिस्ट्रेट ने नाराजी याचिका को परिवाद के रूप में नहीं माना है, क्योंकि मजिस्ट्रेट के अनुसार वह नाराजी याचिका परिवाद की सभी शर्तों को संतुष्ट नहीं करती है, तो इसका मतलब यह है कि हर नाराजी याचिका परिवाद नहीं कही जा सकती है।

    इसके अलावा देवकीनंदन एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य 1996 CriLJ 61 के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह साफ़ किया गया था कि एक मजिस्ट्रेट, पुलिस द्वारा प्रस्तुत अंतिम रिपोर्ट को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं है। वह उस रिपोर्ट से असहमत हो सकता है और पुलिस द्वारा अपनी रिपोर्ट के साथ पेश किये गए कागजात के आधार पर, यदि कोई हो तो, मामले का संज्ञान भी ले सकता है। जब एक अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है और फिर एक नाराजी याचिका दायर की जाती है, तो मजिस्ट्रेट के पास यह विकल्प भी होगा कि वह अंतिम रिपोर्ट को स्वीकार भी कर ले (मामला बंद करते हुए) और विरोध याचिका को भी खारिज कर दे।

    यह साफ़ है कि मजिस्ट्रेट के ऊपर एक नाराजी याचिका को एक परिवाद के रूप में मानने को लेकर कोई बाध्यता नहीं है, वह चाहे तो इसे परिवाद माने या चाहे तो न माने। लेकिन जैसा कि हमने ऊपर समझा, यदि मजिस्ट्रेट द्वारा नाराजी याचिका को परिवाद के रूप में स्वीकार किया जाता है तो यह जरुरी है कि ऐसी याचिका को दंड प्रकिया संहिता, 1973 की धारा 2 (डी) की शर्तों को पूरा करना होगा।

    जब मजिस्ट्रेट नाराजी याचिका को परिवाद के रूप में स्वीकार न करे तो परिवादी के पास क्या है उपाय?

    इस सवाल का जवाब हमे विष्णु तिवारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2019 (8) SCC 27 के मामले में मिलता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि जब मजिस्ट्रेट, नाराजी याचिका को शिकायत के रूप में नहीं मानते हैं, तो परिवादी (Complainant) के पास यह उपाय है कि वे एक नया परिवाद (Complaint) दर्ज करें और मजिस्ट्रेट को दंड प्रकिया संहिता, 1973 की धारा 200 या धारा 200 r/w धारा 202 के तहत प्रक्रिया का पालन करने के लिए आमंत्रित करें।

    अंत में, निश्चित रूप से हम यह कह सकते हैं कि मजिस्ट्रेट को नाराजी याचिका को परिवाद के रूप में मानकर मामले का संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। तथ्य यह है कि वह नाराजी याचिका को एक परिवाद के रूप में मानने का अधिकार क्षेत्र रख सकता है, पर अनिवार्य रूप से वह ऐसा करे यह जरुरी नहीं। निस्संदेह, अगर वह नाराजी याचिका को परिवाद के रूप में मानता है, तो उसे दंड प्रकिया संहिता, 1973 की धारा 200 और 202 के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन करना होगा।

    हालाँकि, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जब नाराजी याचिका दाखिल करने वाले व्यक्ति द्वारा मजिस्ट्रेट को कुछ ऐसी सामग्री उपलब्ध कराई जाती है, जो सामग्री ऐसी है कि वह अदालत को अन्वेषण अधिकारी द्वारा दिए गए निष्कर्षों से असहमत होने के लिए मजबूर करती है, तो दंड प्रकिया संहिता, 1973 की धारा 190 (1) (बी) के तहत उसके द्वारा संज्ञान लिया जा सकता है। हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा नारायणम्मा बनाम चिक्का वेंकटेशैया CRL. OP. No. 336 of 2015 के मामले में भी यह आयोजित किया गया था।

    साफ़ है कि नाराजी याचिका को परिवाद के रूप में स्वीकार न करने के बावजूद एक मजिस्ट्रेट के पास यह अधिकार है कि वह नाराजी याचिका को अहम् मानते हुए एवं उसमे मौजूद तर्कों के मद्देनजर, पुलिस रिपोर्ट पर ही संज्ञान ले ले, भले ही पूर्व में उसने पुलिस रिपोर्ट के आधार पर मामला बंद करने का एक शुरूआती विचार किया था।

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