घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 3: अधिनियम के अंतर्गत परिभाषाएं

Shadab Salim

10 Feb 2022 2:04 PM GMT

  • घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 3: अधिनियम के अंतर्गत परिभाषाएं

    घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) में सभी अधिनियमों की तरह धारा 2 में परिभाषा दी गई है। यह परिभाषा अधिनियम के उद्देश्य और उसके अर्थ को समझने के लिए संसद द्वारा दी गई है। इस आलेख के अंतर्गत इस अधिनियम से संबंधित शब्दों की परिभाषा प्रस्तुत की जा रही है और साथ ही उन पर सारगर्भित विवेचना भी प्रस्तुत है।

    "परिवाद"

    अजय कांत बनाम श्रीमती अल्का शर्मा, 2008 (2) के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह तर्क ग्रहण किया है कि अधिनियम की धारा 2 (थ) के परन्तुक में प्रयुक्त "परिवाद" पद, अधिनियम के अधीन किसी परिभाषा के अभाव में दण्ड प्रक्रिया संहिता में पारिभाषित रूप में समझा जाना होगा।

    न्यायाधीश के अनुसार ऐसा परिवाद किसी दाण्डिक संविधि के अधीन दण्डनीय किसी अपराध के लिए हो सकता है और चूंकि अधिनियम केवल दो अपराधों अर्थात् अधिनियम की धारा 31 के अधीन प्रत्यर्थी द्वारा संरक्षण आदेश के भंग के लिए तथा अधिनियम की धारा 33 के अधीन जैसा प्रावधानित है अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले संरक्षण अधिकारी के लिए, उपबन्ध करती है, केवल ऐसे अपराधों के कारित किये जाने के परिवाद के मामले में जो कि यदि व्यथित व्यक्ति पत्नी है या पत्नी की प्रकृति की नातेदारी में रहने वाला व्यक्ति है, प्रत्यर्थी के रूप किसी महिला को संयोजित कर सकती है।

    "स्त्री" यह सत्य है कि अभिव्यक्ति "स्त्री" का धारा 2 (थ) के परन्तुक में भी प्रयोग नहीं किया गया है, किन्तु दूसरी ओर, यदि विधायिका का आशय परिवाद की परिधि से, जो एक व्यथित पत्नी द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है, स्त्री को अपवर्जित करना था, तो स्त्रियों को विनिर्दिष्टतः अपवर्जित किया गया होता, इसके बजाय परन्तुक में यह प्रावधानित किया जा रहा है कि परिवाद पुरुष भागीदार या पति के नातेदार के विरुद्ध भी दाखिल किया जा सकता है।

    "मजिस्ट्रेट" अधिनियम के अधीन क्षेत्राधिकार मजिस्ट्रेट को प्रदत्त किया गया है तथा अभिव्यक्ति "मजिस्ट्रेट" अधिनियम की धारा 2 (झ) में प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट के अर्थ में या जैसा भी मामला हो, ऐसे क्षेत्र में, जहाँ व्यक्ति व्यक्ति अस्थायी रूप से या अन्यथा निवास करती है या प्रत्यर्थी निवास करता है या घरेलू हिंसा घटित होना अभिकथित है, क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने वाला मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट के रूप में परिभाषित है।

    'नातेदार' अधिनियम के अधीन परिभाषित नहीं है। सामान्य भाव में नातेदार का अर्थ है कोई व्यक्ति जो रक्त, विवाह या दत्तक द्वारा सम्बन्धित है। यह परन्तुक व्यथित व्यक्ति को प्रत्यर्थी के अतिरिक्त उसके पति या पुरुष भागीदार के नातेदार के विरुद्ध परिवाद दाखिल करने का विकल्प देता है। व्यथित व्यक्ति का पति या पुरुष भागीदार के नातेदार के अधीन सभी पुरुष या स्त्री नातेदार आते हैं।

    शब्द "नातेदार" - क्या सम्मिलित करता है?

    घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 2 (थ) के परन्तुक में अभिव्यक्त पुरुष भागीदार या पति के नातेदार मात्र पुरुष नातेदार तक सीमित नहीं हो सकता है, इसके अतिरिक्त यह पति की स्त्री नातेदार या पुरुष भागीदार, जैसा भी मामला हो इसके अधीन आते हैं।

    शब्द "नातेदार" के अन्तर्गत स्त्री नातेदार आती हैं यदि विधानमण्डल का आशय यह था कि परन्तुक में निर्दिष्ट पति या पुरुष भागीदार का नातेदार केवल पुरुष नातेदार है तो विधानमण्डल परन्तुक में पुरुष शब्द विनिर्दिष्टतः प्रयुक्त किया होता। धारा 2 (थ) के परन्तुक में निर्दिष्ट पति या पुरुष भागीदार के नातेदार केवल पुरुष भागीदार क्यों नहीं हो सकते हैं इसका एक अन्य कारण है।

    कथित कारण यह है कि धारा 19 की उपधारा (1) के परन्तुक में स्पष्ट रूप से विवक्षित है कि खण्ड (ख) के सिवाय धारा 19 की उपधारा (1) के किसी भी खण्ड के निबन्धनों में निवास आदेश प्रत्यर्थी, जो महिला है के विरुद्ध पारित किया जा सकता है धारा 2 (थ) के परन्तुक से यह स्पष्ट है कि महिला केवल ऐसे मामले में प्रत्यर्थी हो सकती है जहाँ व्यथित व्यक्ति धारा 2 के खण्ड (थ) के परन्तुक में विनिर्दिष्ट पत्नी या स्त्री है।

    धारा 19 की उपधारा (1) के परन्तुक से यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि धारा 2 (थ) के परन्तुक में प्रयुक्त नातेदार शब्द पति के पुरुष नातेदार या पुरुष भागीदार के पुरुष नातेदार तक सीमित नहीं है। इसलिए, धारा 2 (थ) के परन्तुक में नातेदार शब्द के अन्तर्गत स्त्री नातेदार आती है।

    "निवास करना"

    "निवास करना" आकस्मिक ठहराव से कुछ अधिक अन्तर्निहित करती है तथा एक विशिष्ट स्थान पर बने रहने के मूर्त आशय को अन्तर्निहित करती है किन्तु मात्र एक आकस्मिक या अनिश्चित यात्रा नहीं। दूसरे शब्दों में, किसी विशिष्ट स्थान के "अस्थायी निवासी" के रूप में किसी व्यक्ति को प्रास्थिति देने वाला किसी विशिष्ट स्थान पर आकस्मिक ठहराव या आकस्मिक यात्रा, जैसा विधि के अधीन अनुचितित हैं, से यह कुछ अधिक है।

    "प्रत्यर्थी"

    'प्रत्यर्थी' की परिभाषा को, परन्तुक में दिया हुआ शब्द केवल पति का पुरुष नातेदार या व्यथित व्यक्ति का पुरुष भागीदार, जिसके साथ वह घरेलू नातेदारी में है, के अर्थ में समझना होगा।

    अधिनियम की धारा 2 के खण्ड (थ) में पारिभाषित पद "प्रत्यर्थी" का तात्पर्य वयस्क पुरुष, जो व्यक्ति व्यक्ति के साथ घरेलू नातेदारी में है या रहा है तथा जिसके विरुद्ध अधिनियम के अधीन किसी अनुतोष की अपेक्षा की जाती है, से है।

    अधिनियम की धारा 2 के खण्ड (थ) का परन्तुक जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है उपबन्धित करता है कि व्यक्ति पत्नी या विवाह की प्रकृति की नातेदारी में रहने वाली स्त्री भी पति या पुरुष भागीदार के नातेदारों के विरुद्ध परिवाद दाखिल कर सकती है।

    मुख्य प्रावधान उपबन्धित करता है कि "प्रत्यर्थी" का तात्पर्य कोई वयस्क पुरुष जो व्यक्ति व्यक्ति के साथ घरेलू नातेदारी में है या रहा है तथा जिसके विरुद्ध व्यथित व्यक्ति ने घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के अधीन किसी अनुतोष की मांग

    "प्रत्यर्थी" की परिभाषा - पद "प्रत्यर्थी" की परिभाषा के अनुसार, इससे व्यस्क पुरुष व्यक्ति अभिप्रेत है। यह निर्देश, किसी व्यथित व्यक्ति द्वारा सभी मामलों में दाखिल किये गये आवेदन पर लागू होगा। व्यथित व्यक्ति, केवल पत्नी अथवा विवाह की प्रकृति में सम्बन्ध में रहने वाली महिला को शामिल नहीं करता, बल्कि गृहस्थी की अन्य महिला सदस्यों को भी शामिल करता है। अतः, माँ, बहन या पुत्री भी अधिनियम के अधीन व्यक्ति व्यक्ति हो सकती हैं।

    "प्रत्यर्धी" की परिभाषा जैसी की धारा 2 (थ) में अन्तर्विष्ट है यह है कि कोई व्यस्क पुरुष व्यक्ति जो व्यक्ति व्यक्ति के साथ घरेलू नातेदारी में है या रहा है और जिसके विरुद्ध, अधिनियम के अधीन व्यथित व्यक्ति के द्वारा कोई अनुतोष चाहा गया है, परन्तु यह कि कोई व्यक्ति पत्नी या विवाह की प्रकृति में नातेदारी में रखने वाली महिला भी पती या पुरुष भागीदार के सम्बन्धियों के विरुद्ध परिवाद दाखिल कर सकती हैं।

    "प्रत्यर्थी" की परिभाषा अधिनियम की धारा 2, खण्ड (थ) के अधीन परिभाषित है। "प्रत्यर्थी" से कोई व्यस्क पुरुष व्यक्ति अभिप्रेत है जो व्यक्ति व्यक्ति के साथ घरेलू नातेदारी में हो या रहा हो और जिसके विरुद्ध अधिनियम के अधीन व्यथित व्यक्ति ने कोई अनुतोष मांगा हो। परन्तु यह कि, कोई व्यथित पत्नी या महिला जो विवाह की प्रकृति में नातेदारी में रह रही है पति या पुरुष भागीदार के नातेदारों के विरुद्ध भी परिवाद दाखिल कर सकती है।

    अधिनियम में सम्मिलित शब्द "प्रत्यर्थी" की परिभाषा स्पष्ट रूप से यह प्रकट करती है कि घरेलू हिंसा की पीड़ित महिला, एक व्यथित व्यक्ति, उस व्यक्ति के विरुद्ध जो उसके साथ घरेलू नातेदारी में है या रहा है, के विरुद्ध विभिन्न प्रकार के प्रावधानित अनुतोषों के लिए कार्यवाही करने के लिए हकदार है।

    इसके अलावा, धारा 2 (थ) का परन्तुक स्पष्ट करता है कि व्यथित पत्नी या महिला जो विवाह की प्रकृति में नातेदारी में रह रही है वह पति या पुरुष भागीदार के नातेदारों, पति या पुरुष भागीदार के परिवार की महिला सदस्य को शामिल करते हुए के विरुद्ध भी परिवाद दाखिल कर सकती है।

    किन्तु परिभाषा से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यथित व्यक्ति और प्रत्यर्थी के बीच घरेलू नातेदारों के अस्तित्व की विद्यमानता अधिनियम के अधीन प्रावधानित विभिन्न उपचारात्मक उपायों का आश्रय लेने के लिए शर्त है।

    "व्यथित व्यक्ति"

    "व्यथित व्यक्ति" से ऐसी कोई महिला अभिप्रेत है जो प्रत्यर्थी की घरेलू नातेदारी में है या रही है और जिसका अभिकथन है कि वह प्रत्यर्थी द्वारा किसी घरेलू हिंसा की शिकार रही है।

    "व्यथित व्यक्ति" की परिभाषा के पठन से यह इंगित होता है कि महिला जो प्रत्यर्थी के साथ घरेलू नातेदारी में है या रही है एवं जो प्रत्यर्थी द्वारा घरेलू हिंसा के किसी कृत्य का शिकार है अधिनियम के प्रावधानों के अधीन संरक्षण की वांछा करने के लिए व्यथित व्यक्ति को महिला होना चाहिए और प्रत्यर्थी के साथ वह घरेलू नातेदारी में हो या रह चुकी हो एवं घरेलू हिंसा की शिकार हो।

    धारा 2 (क) परिभाषित करती है कि "व्यथित व्यक्ति" से कोई ऐसी महिला अभिप्रेत है जो प्रत्यर्थी की घरेलू नातेदारी में है या रही है जिसका अभिकथन है कि वह प्रत्यर्थी द्वारा किसी घरेलू हिंसा का शिकार रही है।

    धारा 2 (क) के अधीन यथापरिभाषित "व्यथित व्यक्ति" से कोई ऐसी महिला अभिप्रेत है जो प्रत्यर्थी की घरेलू नातेदारी में है या रही है और जिसका अभिकथन है कि वह प्रत्यर्थी द्वारा किसी घरेलू हिंसा का शिकार रही है।

    'व्यथित व्यक्ति' की परिभाषा अपेक्षा करती है कि महिला को प्रत्यर्थी के साथ घरेलू नातेदारी में होना चाहिए एवं घरेलू नातेदारी, दो व्यक्तियों की अपेक्षा करती है जो साझी गृहस्थी में रह रहें हैं या रह चुके हैं।

    परन्तुक की दृष्टि से यदि व्यथित व्यक्ति पत्नी है या विवाह की प्रकृति की नातेदारी में कोई व्यक्ति है तो प्रत्यर्थी को ऐसा व्यक्ति होने की आवश्यकता नहीं है जो उसके साथ घरेलू नातेदारी में है या रहा है।

    अधिनियम की धारा (थ) का परन्तुक में ऐसी महिला या विवाह की प्रकृति की नातेदारी में रह रही महिला को किसी पुरुष के विरुद्ध परिवाद दाखिल करने पर ऐसे व्यथित व्यक्ति के साथ घरेलू नातेदारी में नहीं है, तार्किक दोष की ओर अग्रसर करेगी। व्यथित व्यक्ति पद को स्पष्ट करने के लिए आवश्यक रूप से अपेक्षा होती है कि ऐसी महिला होनी चाहिए जो प्रत्यर्थी के साथ घरेलू नातेदारी में हो या रही हो।

    "व्यथित व्यक्ति" की परिभाषा ऐसी महिला तक सीमित नहीं है जो केवल 'पत्नी' को क्षमता में हो। आवश्यकता मात्र इतनी है कि व्यथित व्यक्ति प्रत्यर्थी के साथ 'घरेलू सम्बन्ध' में है या रही है। इस प्रकार इस परिभाषा की भाषा स्पष्ट रूप से इंगित करती है कि अधिनियम केवल पति या पत्नी या इससे मिलते-जुलते सम्बन्ध तदा सीमित नहीं है जबकि जैसा अधिनियम के उद्देश्य और कारण में कथित है कि यह किसी महिला की हर क्षमता एवं भूमिका में बेहतर अनुतोष प्रदान करने के लिए अधिनियमित की गई है जिसे सिविल कानून में विधि निर्माताओं ने अस्तित्व में नहीं या अपर्याप्त पाया।

    "व्यक्ति व्यक्ति" की परिभाषा जैसा कि धारा 2 (क) में अन्तर्विष्ट है, जब तक यह विशेष रूप से मात्र पत्नी/पुत्रवधू के लिए तात्पर्यित न हो जब तक यह अन्य महिला को, जो पति की नातेदार है, अपवर्जित न करता हो, यह धारित करना गलत है कि धारा 2 (घ) में यथापरिभाषित "प्रत्यर्थी" की परिभाषा के अन्तर्गत पत्नी / पुत्रवधू नहीं आएगी।

    यह उल्लिखित करना सुसंगत होता है कि व्यक्ति व्यक्ति की परिभाषा किसी महिला या पुरुष की वैवाहिक प्रास्थिति पर आधारित नहीं होती है। इसलिए "व्यक्ति व्यक्ति" की परिभाषा को केवल पत्नी के सीमित अर्थों में निर्विचित नहीं किया जा सकता है।

    "व्यथित व्यक्ति" की परिभाषा किसी स्त्री को जो प्रत्यर्थी के साथ घरेलू नातेदारी में है या रह चुकी है एवं प्रत्यर्थी का तात्पर्य किसी ऐसे वयस्क पुरुष व्यक्ति से है जो व्यक्ति व्यक्ति के साथ घरेलू नातेदारी में है या रह चुका है।

    दीपक उर्फ गजानन रामराव कानेगांवकर बनाम महाराष्ट्र राज्य, 2015 के मामले में प्रत्यर्थी संख्या 2 जानती थी कि आवेदक विवाहित व्यक्ति था और उसकी पत्नी से बच्चे थे। प्रत्यर्थी संख्या 2 यह भी जानती थी कि आवेदक अपनी पत्नी के साथ रह रहा था। इसके बावजूद, वह आवेदक से सम्बन्ध बनाये रखी थी। इस प्रकार, उक्त सम्बन्ध को विवाह की प्रकृति में सम्बन्ध होना नहीं कहा जा सकता। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि प्रत्यर्थी संख्या 2 अधिनियम की धारा 2 (थ) के अर्थान्तर्गत "व्यथित व्यक्ति" थी।

    यह स्पष्ट है कि विवाह-विच्छेद के लिए डिक्री और न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के बीच अन्तर है; पूर्ववर्ती में प्रास्थिति का पृथक्करण है और पक्षकार पति और पत्नी नहीं रह जाते, जबकि पश्चात्वर्ती में पति और पत्नी के बीच सम्बन्ध जारी रहता है और विधिक सम्बन्ध जारी रहता है, जैसे यह विच्छेदित नहीं हुआ है।

    इस प्रकार समझे जाने पर, अवर न्यायालयों द्वारा अभिलिखित निष्कर्ष, जिससे उच्च न्यायालय सहमत है कि पक्षकार न्यायिक पृथक्करण किए हैं, इसलिए अपीलार्थी पत्नी "व्यथित व्यक्ति" नहीं रह गयी है, यह पूर्णतया असमर्थनीय है।

    व्यथित व्यक्ति केवल महिला हो सकती है न कि पुरुष- परिभाषा से यह देखा जा सकता है कि "व्यथित व्यक्ति" केवल महिला हो सकती है न कि पुरुष जिसके लिए घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम को अधिनियमित किया गया है। इसी प्रकार प्रत्यर्थी जिसके विरुद्ध अनुतोष की वांछा की गयी है उस मामले के अलावा जहाँ पत्नी या विवाह की प्रकृति की नातेदारी में रहने वाली महिला द्वारा अनुतोष की वांछा की गयी है कोई पुरुष हो सकता है।

    "घरेलू नातेदारी"

    "घरेलू नातेदारी" का तात्पर्य दो व्यक्तियों के बीच का सम्बन्ध होता है जो साझी गृहस्थी में किसी समय एक साथ रहते हों या रह चुके हों जब वे समरक्तता, विवाह या विवाह की प्रकृति की नातेदारी द्वारा सम्बन्धित हो या संयुक्त परिवार के रूप में पारिवारिक सदस्य की तरह रह रहे हों।

    धारा 2 (च) "घरेलू नातेदारी" को परिभाषित करता है जिसका तात्पर्य ऐसे दो व्यक्तियों के बीच नातेदारी से है, जो साझी गृहस्थी में एक साथ रहते हैं या किसी समय एक साथ रह चुके हैं, जब वे समरक्तता, विवाह द्वारा या विवाह, दत्तक ग्रहण की प्रकृति की किसी नातेदारी द्वारा सम्बन्धित हैं या एक अविभक्त कुटुम्ब के रूप में एक साथ रहने वाले कुटुम्ब के सदस्य हैं।

    "घरेलू नातेदारी" की परिभाषा "दो व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध" शब्दों से प्रारम्भ होती है। यदि घरेलू नातेदारी धारा 2 (च) के अधीन वर्णित किसी प्रकार की क्षमता वालें दो व्यक्तियों के सम्बन्ध तक सीमित किया जाए एवं व्यथित व्यक्ति के अर्थों से केवल प्रत्यर्थी के साथ घरेलू नातेदारी को संदर्भित किया जाय तो वह केवल प्रत्यर्थी जो (वयस्क पुरुष सदस्य) है उसी के विरुद्ध घरेलू हिंसा की शिकायत की जा सकती है।

    "व्यथित व्यक्ति" एवं "प्रत्यर्थी" दोनों का उभयनिष्ठ आवश्यक तत्व अभिव्यक्ति "घरेलू नातेदारी" है। व्यक्ति व्यक्ति एवं घरेलू हिंसा कारित करने वाले के बीच पारिवारिक या वैवाहिक सम्बन्ध धारा 12 के अधीन आवेदन करने के पहले होना चाहिए।

    धारा 2 (च) के अधीन यथापरिभाषित "घरेलू नातेदारी" की परिभाषा अपने संदर्भों की प्रयोज्यता में एवं घरेलू हिंसा अधिनियम के कई महत्वपूर्ण प्रावधानों को आकर्षित करने के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। परिभाषा प्रदर्शित करती है कि यह अपनी प्रयोग्यता के लिए दो व्यक्तियों के बीच के सम्बन्ध की परिकल्पना करती है जो एक साथ साझी गृहस्थी में वर्तमान में रह रहे हैं या पूर्व में साथ-साथ रह चुके हैं, उनके बीच अतिरिक्त अपेक्षा होती है।

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