घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 10: मजिस्ट्रेट द्वारा निवास आदेश
Shadab Salim
17 Feb 2022 7:00 PM IST
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) की धारा 19 किसी पीड़ित महिला के संबंध में मजिस्ट्रेट को निवास आदेश जारी करने की शक्ति प्रदान करती है।
अगर कोई महिला पारिवारिक नातेदारी में किसी घर में रह रही है और उस महिला को घर से निकाल दिया जाता है, ऐसी स्थिति में मजिस्ट्रेट निवास आदेश जारी कर सकता है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 19 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है और साथ ही उससे संबंधित कुछ न्याय निर्णय प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
अधिनियम की धारा 19 निवास आदेश से सम्बन्धित है एवं मजिस्ट्रेट को प्रत्यर्थी को साझी गृहस्थी से किसी व्यक्ति के कब्जे को बेकब्जा करने से या किसी अन्य रीति से उस कब्जे में विघ्न डालने से अवरुद्ध करने, प्रत्यर्थी को, उस साझी गृहस्थी से स्वयं को हटाने का निर्देश देने, प्रत्यर्थी या उसके किसी नातेदारों को साझी गृहस्थी के किसी भाग में, जिसमें व्यथित व्यक्ति निवास करता है, प्रवेश करने से अवरुद्ध करने इत्यादि जैसे आदेश को पारित करने की अनुमति देती है।
धारा 19 की उपधारा (1) का खण्ड (ख) विशेषतः "प्रत्यर्थी को, उस साझी गृहस्थी से स्वयं को हटाने का निर्देश देता है।" धारा 19 की उपधारा (1) का परन्तुक, हालांकि, कथित करता है कि "परन्तु यह कि खण्ड (ख) के अधीन कोई आदेश किसी व्यक्ति, जो महिला है, के विरुद्ध पारित नहीं किया जायेगा।
घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 19 प्रावधानित करती है कि मजिस्ट्रेट, यह समाधान होने पर कि घरेलू हिंसा हुई है, प्रत्यर्थी को साझी गृहस्थी से, किसी व्यक्ति के कब्जे को बेकब्जा करने से या किसी अन्य रीति से उस कब्जे में विघ्न डालने से अवरुद्ध करने, प्रत्यर्थी को, उस साझी गृहस्थी से स्वयं को हटाने का निदेश देने, प्रत्यर्थी या उसके किसी नातेदारों को साझी गृहस्थी के किसी भाग में प्रवेश करने से अवरुद्ध करने, साझी गृहस्थी को अन्य संक्रान्त करने या व्ययनित करने या उसे विल्लंगमित करने से अवरुद्ध करने, प्रत्यर्थी को मजिस्ट्रेट की इजाजत के सिवाय, साझी गृहस्थी में अपने अधिकार त्यजन से, अवरुद्ध करने, प्रत्यर्थी को, व्यथित व्यक्ति के लिए उसी स्तर की आनुकल्पिक वास सुविधा जैसी वह साझी गृहस्थी में उपयोग कर रही थी या उसके लिए किराये का संदाय करने का आदेश पारित कर सकता है।
इस धारा में यह भी प्रावधानित है कि किसी व्यक्ति, जो महिला है, के विरुद्ध कोई आदेश पारित नहीं किया जायेगा। उपधारा (2) मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त शर्त अधिरोपित करने एवं व्यथित व्यक्ति या उसके संतान की सुरक्षा के लिए कोई अन्य आदेश करने के लिए सशक्त करती है। उपधारा (3) प्रत्यर्थी द्वारा घरेलू हिंसा किये जाने का निवारण करने के लिए बन्धपत्र निष्पादित करने के लिए प्रावधान करती है।
उपधारा (5) मजिस्ट्रेट को सम्बन्धित थाने के भार साधक अधिकारी को व्यथित व्यक्ति को संरक्षण देने के लिए या निवास आदेश के क्रियान्वयन में उसकी सहायता के लिए निर्देश देने की आज्ञा देने हेतु सशक्त करती है। इस धारा में यह भी प्रावधानित है कि मजिस्ट्रेट प्रत्यर्थी को किराया एवं अन्य भुगतान करने एवं व्यथित व्यक्ति को उसके स्त्रीधन या मूल्यवान प्रतिभूति जिसकी वह अधिकारिणी है, देने की बाध्यता भी अधिरोपित कर सकता है।
यह तथ्य कि धारा 19 को उपधारा (1) के लिए अधिनियमित परन्तुक प्रदर्शित करता है कि धारा 19 को उपधारा (1) के कुछ अन्य खण्डों के अधीन, खण्ड (ख) के सिवाय, ऐसी महिला के विरुद्ध, आदेश पारित किया जा सकता है, जो पति या पुरुष भागीदार की नातेदार है जिसको धारा 2 (घ) का परन्तुक प्रयोज्य है। यदि धारा 2 (घ) के परन्तुक का इस प्रभाव का संकीर्ण निर्वचन किया जाय कि इसमें निर्दिष्ट नातेदार केवल पुरुष नातेदार होंगे तो धारा 19 को उपधारा (1) का उपरोक्त परन्तुक अर्थहीन हो जाएगा।
यदि इसे स्वीकृत कर लिया जाता है कि यदि धारा 19 के अधीन, किसी भी मामले में अनुतोष महिला के विरुद्ध अनुदत्त नहीं किया जा सकता है, तब उपधारा (1) का उक्त परन्तुक अर्थहीन हो जाता है।
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 को धारा 2 (थ) के परन्तुक में निर्दिष्ट "नातेदार" में पुरुष शब्द कभी प्रयुक्त नहीं रहा है जबकि मुख्य प्रावधान में "पुरुष" शब्द प्रयुक्त किया गया है। इसलिए यह निष्कर्पित करने में कोई परेशानी नहीं होगी कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 2 (घ) के परन्तुक में प्रयुक्त पति के नातेदार" शब्द महिला नातेदार को भी शामिल करेगा।
इस अवधारणा को अग्रेतर घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 19 की उपधारा (1) के परन्तुक से प्रबल मिलता है जहाँ विधानमण्डल ने यह स्पष्ट किया है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 19 की उपधारा (1) के खण्ड (ख) के निबन्धनों में किसी व्यक्ति के विरुद्ध जो महिला है आदेश पारित नहीं किया जा सकता है।
मजिस्ट्रेट की शक्ति
जयदीपसिन्ह प्रभातसिन्ह झाला बनाम स्टेट ऑफ गुजरात, 2010 के मामले में कहा गया है कि धारा 19 की उपधारा (1) के खण्ड (ख) के अधीन मजिस्ट्रेट को साझी गृहस्थी से स्वयं को हटाने के लिए प्रत्यर्थी को निर्देशित करने की शक्ति है। उपधारा (1) का परन्तुक, हालांकि कथित करता है कि अधिनियम के खण्ड (ख) के अधीन कोई आदेश ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध पारित नहीं किया जायेगा जो कि महिला हो।
दूसरे शब्दों में, अधिनियम की धारा 19 की उपधारा (1) के खण्ड (क) एवं (ग) से (च) के अधीन अन्य आदेश किसी व्यक्ति के विरुद्ध प्रस्तुत मामले में महिला के विरुद्ध पारित किये जा सकते हैं। इसे भी इंगित किया जा सकता है कि धारा 19 की उपधारा (1) के (क) से (च) के सभी खण्ड के अधीन मजिस्ट्रेट को, प्रत्यर्थी को कतिपय निर्देश देने को शक्ति है। इस प्रकार, धारा 19 की उपधारा (1) के खण्ड (ख) के अलावा सभी मामलों में, मजिस्ट्रेट प्रत्यर्थी के विरुद्ध समुचित आदेश पारित कर सकता है भले ही प्रत्यर्थी महिला हो।
निवास आदेश पारित करने की मजिस्ट्रेट की शक्ति अधिनियम की धारा 19 मजिस्ट्रेट पर यह समाधान होने पर कि घरेलू हिंसा घटित हुई है निवास आदेश पारित करने को शक्ति प्रदत्त करती है। ऐसा आदेश प्रत्यर्थी को व्यथित व्यक्ति को साझी गृहस्थी से बेकब्जा करने या उसके कब्जे को व्यवधानित करने से रोकने, उसे या उसके नातेदार को साझी गृहस्थी के उस भाग में जाने से जहां व्यक्ति रहता है उसे रोकने, साझी गृहस्थी के अन्य संक्रामण करने या व्ययनित करने, साझी गृहस्थी में अपने अधिकार त्यजन से अवरुद्ध करने का आदेश एवं प्रत्यर्थी का साझी गृहस्थी से हटाने का निर्देश या व्यथित व्यक्ति के उसी स्तर की वैकल्पिक वास सुविधा सुनिश्चित करना जो वह साझी गृहस्थी में उपयोग कर रही थी या उसके लिए किराये के भुगतान का निर्देश दे सकती है।
व्यथित व्यक्ति के लिए वैकल्पिक आवास अधिनियम की धारा 19 के अधीन, धारा 12 की उपधारा (1) के अधीन आवेदन पर विचार करते समय, मजिस्ट्रेट यह समाधान होने पर, कि घरेलू हिंसा हुई है, उक्त धारा के खण्ड (क) से (च) तक के अधीन निवास आदेश पारित कर सकता है। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर, वह प्रत्यर्थी व्यथित व्यक्ति के लिए वैकल्पिक आवास के उसी स्तर को सुनिश्चित करने के लिए, जैसा कि उसके द्वारा साझी गृहस्थी में उपभोग किया गया था या उसके लिए किराये का भुगतान करने के लिए निर्देश देते हुए आदेश पारित कर सकेगा।
समीर विद्यासागर भरद्वाज बनाम नन्दिता समीर भरद्वाज के वाद में कहा गया है कि मजिस्ट्रेट दम्पत्ति को साझी गृहस्थी से हटा सकता है मजिस्ट्रेट इस बात का समाधान हो जाने पर कि घरेलू हिंसा हुई है, दम्पत्ति को साझी गृहस्थों से हटा सकता है।
भले ही अधिनियम के लागू होने के पूर्व पक्षकारगण के मध्य अलगाव हो चुका था, व्यथित व्यक्ति को निवास करने के अधिकार एवं भरण-पोषण के अधिकार इत्यादि के आर्थिक दुरुपयोग की वंचना अधिनियम के पूर्व एवं बाद में जारी थी एवं इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि माँ को अधिनियम के लागू होने के बाद घरेलू हिंसा के बाद को जारी रखने का कोई वाद हेतुक नहीं था।
शिकायत दाखिल करने का व्यथित व्यक्ति का अधिकार
निःसन्देह प्रत्यर्थी को परिभाषा में परन्तुक है। परन्तुक व्यथित व्यक्ति नातेदार के विरुद्ध शिकायत करने का विकल्प प्रदान करता है। 'नातेदार' शब्द अधिनियम की धारा 19 की उपधारा (1) के खण्ड (ग) के अलावा, जिसमें न्यायालय को प्रत्यर्थी या उसके किसी नातेदार को साझी गृहस्थों के किसी भाग में जहां व्यथित व्यक्ति रहता है प्रवेश करने से अवरुद्ध करने की शक्ति प्राप्त है, अधिनियम के किसी अन्य प्रावधानों में निर्दिष्ट नहीं है।
धारा 19 की उपधारा (1) के खण्ड (ग) एवं धारा 19 की उपधारा (1) के परन्तुक के प्रावधान के वाचन से, जो धारा 19 (1) (ख) के अधीन किसी महिला के विरुद्ध आदेश पारित करने से प्रतिषिद्ध करती है, साझी गृहस्थी से प्रत्यर्थी को हटाने का निर्देश जारी करने से सम्बन्धित है, परन्तु यह परन्तुक के आधार पर महिला को छोड़ती है।
अधिनियम की धारा 17 साझी गृहस्थी में रहने का अधिकार को व्यवहत करती हैं एवं अधिनियम की धारा 17 के अधीन प्रत्येक महिला, जो घरेलू नातेदारी में है उसे साझी गृहस्थी में रहने का अधिकार है।
इन प्रावधानों का समेकित निर्वाचन प्रदर्शित करता है कि महिला साझी गृहस्थी में निकाले जाने से संरक्षित की गई है, उसे निवास का अधिकार एवं अधिनियम की धारा 18, 20, 21 एवं 22 के अधीन अन्य अनुतोष जो दिये जा सकते हैं।
प्रत्यर्थी के विरुद्ध निर्देशित है जिससे व्यथित व्यक्ति के घरेलू नातेदारी का वयस्क पुरुष सदस्य तात्पर्यित है न कि कोई अन्य इस प्रकार, अधिनियम के प्रावधानों के निर्वाचन से जैसा कि इसका साधारण प्रावधान प्रदर्शित करता है कि प्रावधान व्यथित व्यक्ति को किसी अन्य महिला के विरुद्ध शिकायत दाखिल करने का कोई अधिकार प्रदान नहीं करता है।
निवास करने के लिए दावा
श्रीमती विजया वसन्त सावन्त बनाम शुभांगी शिवलिंग परब, 2013 के वाद में आवेदन में लगाये गये विभिन्न आरोप अस्पष्ट हैं एवं अभिकथन में प्रत्यर्थी संख्या-2 से 4 के विरुद्ध प्रताड़ना का कोई स्पष्ट कृत्य अन्तर्विष्ट नहीं है। आरोप प्रत्यर्थी संख्या-1 एवं पति को प्रताड़ित करने के लिए उकसाने और दहेज की मांग तक ही सीमित है। सत्र न्यायालय ने इसे भी इंगित किया कि सभी दृष्टान्त सितम्बर, 2004 को अवधि से सम्बन्धित हैं जब याची ने वैवाहिक गृह छोड़ दिया था। इसके बाद किसी प्रकार की कोई घटना का आरोप नहीं है।
यह मत है कि यद्यपि वर्ष 2006 में अधिनियम लागू हुआ याची साधारण विधि चाहे वह सिविल हो या आपराधिक कार्यवाही के अधीन किसी का सहारा लेने में स्वतन्त्र था। अग्रेतर, याची द्वारा परिवाद दाखिल करने में तीन वर्षों के विलम्य को स्पष्ट नहीं किया गया था। स्पष्ट रूप से, शिकायत का दाखिल किया जाना पति द्वारा तलाक याचिका का प्रतिशोध है।
शिकायत का परिशीलन सत्र न्यायालय द्वारा लिये गये मत का समर्थन करता है इसमें किया गया आरोप अस्पष्ट है और किसी आवश्यक विशिष्टियों से विहीन है। इसके अलावा याची शिकायत दाखिल करने से पहले चार वर्ष से अधिक समय से पति से दूर रह रही है जो तथ्य विचारण न्यायालय द्वारा विचारित नहीं किया गया बोरीवली स्थित प्रत्यर्थी सं० 1 के घर के लिए याची द्वारा किये गये दावे के सम्बन्ध में सत्र न्यायाधीश ने यह उचित रूप से धारित किया था कि याची का इसमें कोई हक नहीं है चूँकि उसके पति का इसमें स्वयं कोई विधिक अधिकार नहीं है।
निवास का आदेश
अधिनियम की धारा 19 के अधीन मजिस्ट्रेट अधिनियम की धारा 12 (1) के अधीन आवेदन को निस्तारित करते समय व्यथित व्यक्ति के पक्ष में निवास का आदेश पारित कर सकता है। अधिनियम की धारा 19 (1) (ग) प्रावधान के अलावा अधिनियम की धारा 19 (1) के अन्य सभी खण्डों के अधीन प्रत्यर्थी के विरुद्ध आदेश पारित किया जा सकता है परन्तु अधिनियम की धारा 19 (1) (ग) के अधीन मजिस्ट्रेट प्रत्यर्थी या उसके किसी नातेदार को साझी गृहस्थी के किसी भाग में जहाँ व्यथित व्यक्ति रहता है, अवरुद्ध करने का आदेश पारित कर सकती है। परन्तु धारा 19 (1) का परन्तुक मजिस्ट्रेट को साझी गृहस्थी से महिला को हटाने के लिए किसी आदेश को पारित करने से निरुद्ध करता है।
विधानमण्डल ने अनुज्ञप्ति किया कि धारा 19 को उपधारा (1) के अधीन निवास आदेश किसी महिला के विरुद्ध भी पारित किया जा सकता था, जो धारा 2 (थ) के परन्तुक में निर्दिष्ट पति या पुरुष भागोदार की नातेदार है इसलिए, उपधारा (1) के परन्तुक को उपखण्ड (ख) के अधीन पति या पुरुष भागीदार के महिला नातेदार को बेकब्जा करने से निवारित करने के लिए अधिनियमित किया गया है।
कब्जा हेतु वाद
न्यायालय को उनके दृष्टिकोण में, कब्जे के लिए वाद को विचारित और टालते समय, जो वादी पुत्रवधू के विरुद्ध निर्दिष्ट है, जो प्रभाव में हैं, सावधान रहना होगा या साझी गृहस्थी में निवास के अन्य अधिकार, परेशान करने वाले भ्रम होंगे जो विधि गृहत रूप से वचन देती है किन्तु कभी-कभार, यदि कभी, प्रयोज्यनीय होती है। वास्तव में पुत्रों के स्वामित्व को जनसूचना या विज्ञापन द्वारा समाप्त करने को हल्के में नहीं लिया जाता।
उदाहरण के लिय, भले पुत्र चाहे माता-पिता में से किसके द्वारा स्वामित्वविहीन किया जाता है तो माता-पिता की मृत्यु यदि निर्वसीयता की स्थिति में हुई है तो सम्पत्ति का स्वामित्व पुत्र की ओर अग्रसरित हो जायेगा। वास्तव में, केवल उद्घोषणा का, सभी विधि पूर्ण संगत पारिवारिक सम्बन्ध को तोड़कर कोई विधिक प्रभाव नहीं होता।
साझी गृहस्थी का कब्जा धारा 19 की उपधारा (1) के खण्ड (क) के अधीन प्रत्यर्थी को व्यथित व्यक्ति को साझी गृहस्थी में कब्जे को व्यवधानित करने से अवरुद्ध किया जा सकता है भले ही प्रत्यर्थी का साझी गृहस्थी में विधिक या साधारण रूप से हित हो या न हो।
ऐसे मामले में जहाँ व्यथित व्यक्ति धारा 2 (थ) के परन्तुक में निर्दिष्ट पत्नी या महिला हो, वहाँ यदि पति या पुरुष भागीदार का मात्र पुरुष नातेदार ही शामिल था तो उपखण्ड (क) के अधीन निवास का आदेश कोई उद्देश्य नहीं पूरा करेगा एवं अर्थहीन हो जायेगा इस प्रकार आदेश पति या पुरुष भागीदार के महिला नातेदार जो साझी गृहस्थी में रह रही है, को आबद्ध नहीं करेगा। यही बाद उपधारा (1) के खण्ड (ग) के अधीन निवास आदेश से सम्बन्धित है।
घर के किराये का अनुदान
जहाँ घरेलू हिंसा के सभी आवश्यक तत्व साबित थे एवं पत्नी किराये के मकान में रह रही थी एवं पति किसी अन्य स्त्री साथ रह रहा था जिससे उसका विवाहेत्तर सम्बन्ध था, पत्नी उस मकान के किराये की हकदार थी जहाँ वह रह रही थी।
मजिस्ट्रेट द्वारा आवेदन का निस्तारण अधिनियम की धारा 19, मजिस्ट्रेट द्वारा, धारा 12 की उपधारा (1) के अधीन किये गये आवेदनों के निस्तारण को प्रावधानित करती है। धारा 19 की उपधारा (1) के अधीन, मजिस्ट्रेट खण्ड (ख) के अधीन आदेशों के अलावा किसी महिला के विरुद्ध कोई आदेश पारित कर सकता है। जबकि धारा 19 की उपधारा (1) का परन्तुक धारा 19 (1) (ख) के अधीन किसी व्यक्ति जो महिला है, के विरुद्ध आदेश पारित करने से प्रतिबन्धित करती है।
अन्य शब्दों में धारा 19 (1) (ख) के अधीन, निवास आदेश के अलावा, मजिस्ट्रेट को, पति के नातेदार जिसमें महिला भी शामिल है, के विरुद्ध धारा 19 (1) (ग) के अधीन अर्थात् प्रत्यर्थी या उसके नातेदार से साझी गृहस्थी जिसमें व्यथित व्यक्ति निवास करता है उसके किसी भाग में प्रवेश करने से प्रतिबन्धित करने के लिए आदेश पारित करने के लिए सक्षम बनाती है।
उदाहरण के लिए, यदि व्यथित व्यक्ति अपने पति के साथ संयुक्त परिवार द्वारा स्वामित्व के घर में, प्रत्यर्थी के माता-पिता, भाई बहन, यदि हों, को शामिल करते हुए, रहती है चाहे प्रत्यर्थी, कोई विधिक या साम्यापूर्ण हित रखता है या हक रखता है या नहीं, यह व्यथित व्यक्ति को बेकब्जा करने से रोका जा सकता है।
यदि सम्पत्ति व्यथित व्यक्ति के ससुराल वालों के नाम की हो, संयुक्त परिवार के बीच बंटवारा हो चुका हो एवं उसका एक भाग प्रत्यर्थी के कब्जे में हो तो जिसके नाम पर, अर्थात् प्रत्यर्थी के नातेदार, यो सम्पत्ति हो, को भी सम्पत्ति से व्यथित व्यक्ति को कब्जा करने या साझी के किसी भाग में जिसमें व्यथित व्यक्ति रहता है प्रवेश करने से अवरुद्ध किया जा सकता है।
अग्रेतर धारा 19 की उपधारा (8) के अधीन यदि व्यथित व्यक्ति को उसके स्त्रीधन के रूप में निवास गृह प्रदान किया गया था, जो पति के नातेदारों के अध्यासन में है या मूल्यवान प्रतिभूति नामतः सोने के आभूषण इत्यादि, जो कि पति के महिला नातेदार के कब्जे में हो उसे वापस करने का निर्देश दे सकती है।
घरेलू हिंसा के वाद की पोषणीयता
घरेलू हिंसा के बाद के दाखिले की तिथि पर पुरुष एवं स्त्री के बीच व्यथित व्यक्ति एवं प्रत्यर्थी के विधिक सम्बन्ध का अस्तित्व घरेलू हिंसा के बाद की पोषणीयता के लिए अनिवार्य नहीं है न ही यह आवश्यक है कि घरेलू हिंसा का कृत्य अधिनियम के लागू होने के बाद हो।
भरण-पोषण का भुगतान न करना क्या घरेलू हिंसा की कोटि का है
किशोर श्रीरामपंत काले बनाम शालिनी किशोर काले, 2010 के वाद में, यह विवादित नहीं है कि दोनों प्रत्यर्थी वर्ष 1996 से कई कार्यवाहियों में पारित न्यायालय के आदेश के अनुसार भरण-पोषण प्राप्त कर रहे हैं, एवं इस प्रकार यह कहना कि याची ने किसी भरण-पोषण का भुगतान न करके घरेलू हिंसा कारित किया है, उचित नहीं है।
प्रत्यर्थी द्वारा जो चाहा गया है वह यह है कि प्रत्यर्थी जीविका की बढ़ती कीमत के कारण भरण-पोषण की उच्चतर राशि चाहती है परन्तु अभिलेख पर यह शिकायत प्रदर्शित करने के लिए कुछ भी नहीं है कि भरण-पोषण की उच्चतर राशि किसी अच्छे कारण के लिए उनसे मांगी गयी थी एवं ऐसी मांग को मानने से उसने इन्कार या लोप किया था किराये के लिये भी यही मामला है।
चूंकि यह स्वीकृत तथ्य है कि परिवाद में इस आशय का कोई भी कथन नहीं है कि दोनों के द्वारा याची के घर में जगह की मांग की गयी थी या याची ने कोई ऐसा कृत्य किया था जिससे वे निवास से वंचित हुए हो एवं/या उसमें विफलता के कारण उसके बदले वास स्थान के किराये के पारिणामिक भुगतान के हकदार थे।
2005 के अधिनियम की धारा 3 के उपखण्ड (ग) के स्पष्टीकरण 1 (iv) को देखते हुए यह प्रदर्शित करता है कि संसाधनों जिसका प्रयोग एवं उपयोग करने के लिए व्यथित व्यक्ति हकदार है, उस पर अनवरत रोक या प्रतिबन्ध होना चाहिए।
याची द्वारा कहीं भी परिवाद में किसी प्रकार का यह कथन नहीं है कि उसने उसके प्रयोग के लिए पूर्णतया या अंशत: कोई प्रतिबन्ध लगाया था न ही परिवाद दाखिल करने के ठीक पहले या परिवाद के ठीक बाद प्रत्ययोगण द्वारा उसकी अनवरतता याची द्वारा खण्डित की गई थी। इसके विपरीत, यह स्वीकृत स्थिति है कि विगत 15 वर्षों से उनके बीच कोई सम्बन्ध या नातेदारी नहीं रही है।
आय की हानि के कारण प्रतिकर
एक मामले में जहाँ पत्नी नर्संरी विद्यालय में अध्यापिका की तरह कार्य कर रही थी एवं ट्यूशन पढ़ाकर अपनी आय की वृद्धि कर रही थी यदि पति ने पत्नी को ट्यूशन पढ़ाने से रोक दिया हो और परिसर के लिए प्रश्नगत किराया दे रहा हो और वह घर में किसी और व्यक्ति को पसन्द न करता हो, तो पत्नी आय कि हानि के लिए रु० 10,000 पाने की हकदार होगी।
आज्ञापक व्यादेश के लिए प्रार्थना
समीर विद्यासागर भरद्वाज बनाम नन्दिता समीर भरद्वाज के मामले में पत्नी पति के विरुद्ध वैवाहिक घर से बाहर चले जाने और घर का खाली तथा शान्तिपूर्वक कब्जा सौंपने के लिए आज्ञापक व्यादेश जारी करने के लिए प्रार्थना कर रही है। पति घर के सहस्वामी के रूप में पत्नी अपनी माँ के साथ संयुक्त रूप से फ्लैट की स्वामिनी पुत्रियों का शपथ पत्र माँ का समर्थन करता था।
पत्नी विमान परिचारिका के रूप में कार्य कर रही थी। व्यथित पक्षकार को अविक्षुब्ध निवास प्रदान किया था। अभिनिर्धारित यह कि, मजिस्ट्रेट, का यह समाधान हो जाने पर कि घरेलू हिंसा घटित हुई है, दम्पत्ति को साझी गृहस्थी से हटा सकता है।