घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 भाग 2: अधिनियम का लागू होना
Shadab Salim
10 Feb 2022 10:00 AM IST
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 ( The Protection Of Women From Domestic Violence Act, 2005) की धारा 1 इसके लागू होने के संबंध में प्रावधान करती है। यह अधिनियम अत्यंत विस्तृत अधिनियम है कम धाराओं में लगभग सभी विषयों को साधने का प्रयास किया गया है धारा 1 के अंतर्गत अधिनियम का लागू होना और इसके नाम के संबंध में उल्लेख मिलता है इस आलेख के अंतर्गत धारा 1 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है
अधिनियम का प्रारम्भ
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005, 26 अक्टूबर 2006 को प्रवर्तित हुआ। दिनांक 17.10.2006 अधिनियम, भारतीय संविधान के अधीन प्रत्याभूत महिलाओं के अधिकारों के अधिक प्रभावी संरक्षण के लिए जो परिवार के भीतर होने वाली किसी प्रकार की हिंसा से पीड़ित हैं या उनसे आनुषंगिक या सम्बन्धित मामलों के लिए, उपबन्ध करने के लिए लाया गया। 2005 में राष्ट्रपति की सहमति मिली और 2006 से यह लागू हुआ।
जे मित्रा एण्ड कम्पनी प्रा लि बनाम असिस्टेंट कण्ट्रोलर आफ पेटेण्ट्स एण्ड डिजाइन के मामले में यह धारित किया गया कि "एक अधिनियम प्रारंभ हुआ या प्रवर्तित हुआ तब तक नहीं कहा जा सकता है जब तक कि इसे विधायी अधिनियमन के द्वारा या इसे प्रवर्तन में लाने के लिए सशक्त प्रत्यायोजितो द्वारा प्राधिकार के प्रयोग द्वारा प्रवर्तन में नहीं लाया जाता है।
उपचारी संविधि अधिनियम आवश्यकत: एक उपचारी संविधि है तथा यह पुरानी विधि है कि उपचारी विधि का इसके पीछे लाभदायक उद्देश्य को बढ़ावा देने के लिए उदारता से निर्वचन किये जाने की अपेक्षा होती है तथा कोई निर्वचन जो इसके उद्देश्य को विफल कर सकता है का परिहार करने की आवश्यकता होती है।
भूतलक्षी प्रभाव
यह विवादित नहीं है कि घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के अधीन कोई अभिव्यक्त उपबन्ध नहीं है कि यह भूतलक्षी रूप से लागू होता है जब तक कि विधायिका के आशय को दर्शित करने के लिए संविधि में पर्याप्त शब्द न हों या आवश्यक विवक्षा से भूतलक्षी प्रवर्तन न दिया गया हो, यह केवल भविष्यलक्षी समझा जाता है।
भूतलक्षी विधायन कभी उपधारित नहीं किया जाता है और इसलिए विधि केवल इसके प्रवर्तन में आने की तिथि के बाद घटित होने वाले मामलों पर लागू होती है, जब तक कि स्वयं संविधि से हो यह प्रतीत न हो कि इसका भूतलक्षी प्रभाव आशयित है। यह अधिनियम प्रकृति में भूतलक्षी है।
अधिनियम सभी समुदायों पर लागू होता है
2005 का अधिनियम सभी समुदायों पर लागू होता है तथा "संविधान के अधीन प्रत्याभूत महिलाओं के अधिकारों के अधिक प्रभावी संरक्षण के लिए जो परिवार के भीतर घटित होने वाली किसी प्रकार की हिंसा से पीड़ित है, " अधिनियमित किया गया था। निवास का अधिकार और प्रवर्तित करने के लिए तंत्र का सृजन एक सफलता का आधार बनाने वाला तरीका है जिसे न्यायालयों को जीवित रखना चाहिए।
साझी गृहस्थी में निवास के अधिकार को सम्मिलित करते हुए उपचार क्षेत्र को सीमित करना इस अधिनियमन के प्रयोजन को दुर्बल करेगा। इसलिए यह अधिनियम के उद्देश्यों और योजना के प्रतिकूल है साथ ही धारा 2 (ध) के असंदिग्ध पाठ के भी प्रतिकूल है, 2005 के अधिनियम की प्रयुक्ति केवल ऐसे मामलों तक जिसमें पति अकेले कुछ सम्पत्ति धारित करता है या इसमें अंश रखता है, तक सीमित करना है।
निर्णायक रूप से, सास (या ससुर, या उस मामले के लिए "पति का नातेदार ") 2005 के अधिनियम के अधीन कार्यवाहियों में प्रत्यर्थी भी हो सकता है तथा उस अधिनियम में उपलब्ध उपचार उनके विरुद्ध आवश्यक रूप से प्रवर्तित करना अपेक्षित होगा।
विशेष संविधि की प्रयोज्यता का प्रश्न
वहाँ कोई विवाद नहीं हो सकता है कि उपचारी संविधियाँ जिनका अधिक शाब्दिक निर्वचन किया जाता है कभी-कभी भूतलक्षी प्रभाव अनुज्ञात करती हैं। दूसरे शब्दों में, संसद द्वारा आशयित भूतलक्षिता के क्षेत्र को विनिश्चित करने के लिए सांविधिक प्रावधानों की भाषा पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए।
भूतपूर्व घटनाओं को एक विशिष्ट संविधि की प्रयोग्यता के प्रश्न को निर्णीत करने में ध्यान में रखे जाने के लिए निःसन्देह प्रयुक्त भाषा अत्यधिक महत्वपूर्ण कारक है, किन्तु एक अनम्य नियम के रूप में नहीं कहा जा सकता है कि वर्तमान काल या पूर्ण वर्तमान काल का प्रयोग मामले का निर्णायक है कि संविधि अपने प्रवर्तन के लिए पूर्व की घटनाओं पर नहीं बनाई जाती है।
अधिनियम की धारा 2 के खण्ड (क) में 'जो है' या 'रही है', खण्ड (च) में 'रहते हैं या किसी समय रह चुके हैं। खण्ड (थ) में 'है या रहा है' घटनाओं को दर्शित करता है जो अधिनियम के प्रवर्तन में आने के पूर्व या पश्चात् घटित हुई। आवश्यक यह है कि संविधि के अधीन उसके लिए जब कार्य किया गया उस समय घटना अवश्य घटित हो जानी चाहिए।
अधिनियम का अवलम्य लेना
एक मामले में, याची जो पीड़ित व्यक्ति है तथा प्रत्युत्तरदाता संख्या-1 साथ-साथ साझी गृहस्थी में रहे जब ये दाम्पत्य से बंधे थे। हालांकि याची का विवाह विच्छेद हो गया था तब भी साझी गृहस्थी में तब तक रहना जारी रखा, जब तक प्रत्युत्तरदाता संख्या-1 द्वारा अभिकथित रूप से बलपूर्वक निष्कासित नहीं कर दिया गया इसलिए वह अभिकथित अधिनियम के उपबन्धों का अवलम्ब लेने के लिए हकदार होगी, क्योंकि याची तथा प्रत्युत्तरदाता संख्या-1 अभिकथित अधिनियम के प्रावधानों द्वारा पूर्णतः आच्छादित हैं।
विवाह विच्छेदित (तलाकशुदा) पत्नी अधिनियम के प्रावधानों का अवलम्य लेने की हकदार होती है
एक मामले में, यह प्रतीत होता है कि याची ने उसे प्रयोज्य स्थानीय विधि के निबन्धनों में आस्तियों की सहभागिता के विभाजन के लिये सूची कार्यवाहियों के माध्यम से एक आवेदन प्रस्तुत किया है। याची का मामला यह है कि वह आस्तियों की सहभागिता के निबन्धनों में आस्तियों की 50% की हकदार है।
इसलिए, याची ने समुचित मंच के समक्ष आस्तियों को सहभागिता के सम्बन्ध में अपने अधिकार को प्रख्यान करने के लिये आवेदन किया है। फिर भी चूँकि अभिकथित अधिनियम के प्रावधानों के निर्वाचन पर साझी गृहस्थी में निवास करने के लिये उसके द्वारा आवेदन प्रस्तुत किया गया, यह धारित किया जाना होगा कि क्या विवाह-विच्छेदित पत्नी भी अभिकथित अधिनियम के प्रावधनों का अवलम्ब लेने की हकदार है। क्या वह दिये गये तथ्य एवं स्थिति में संरक्षण की हकदार है या नहीं यह प्रश्न सम्बन्धित न्यायालय के निर्णय के लिए होगा।
क्या विधायिका द्वारा पारित अधिनियमिति भविष्यलक्षी है या नहीं का प्रश्न क्या विधायिका द्वारा पारित अधिनियमिति भविष्यलक्षी है या नहीं, के पहलू पर जिले सिंह बनाम स्टेट आफ हरियाणा, (2004) में निर्णय को सन्दर्भित करना प्रासंगिक है, जिसमें यह इस प्रकार धारित किया गया :
"अर्थान्वयन का यह मुख्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक संविधि प्रथम दृष्ट्या भविष्यलक्षी है जब तक कि यह व्यक्त रूप से या आवश्यक विवक्षा से भविष्यलक्षी प्रवर्तन रखने वाली न निर्मित की जाये। किन्तु सामान्य नियम प्रयोग्य है जहाँ संविधि का उद्देश्य निहित अधिकारों को प्रभावित करना है या नये भार अधिरोपित करना है या वर्तमान बाध्यताओं का हास करना है। जब तक कि संविधि में शब्द वर्तमान अधिकारों को प्रभावी करने के लिए विधायिका का आशय दर्शित करने के लिए पर्याप्त न हों यह केवल तभी भविष्यलक्षी समझा जाता है 'नवीन विधि का प्रभाव भविष्यलक्षी होना चाहिए न कि भूतलक्षी'- नवीन विधि जो करना है, उसको विनियमित करने के लिए होनी चाहिए, न कि जो हो चुका उसको। यह आवश्यक नहीं है कि किसी संविधि को भूतलक्षी बनाने के लिए एक अभिव्यक्त प्रावधान बनाया जाय तथा भूतलक्षिता के विरुद्ध उपधारणा आवश्यक विवक्षा द्वारा खण्डित हो सकती है विशेष रूप से ऐसे मामले में जहाँ सम्पूर्ण समुदाय के लाभ के लिए एक अभिस्वीकृत बुराई को दूर करने के लिए एक नवीन विधि बनायी जाती है।"
संविधि के निर्वाचन के मूलभूत सिद्धान्त
संविधि के निर्वाचन के में से एक यह है कि विधायिका शब्दों का अपव्यय नहीं करती है तथा प्रावधानों का ऐसा कोई निर्वाचन अंगीकृत नहीं किया जाना चाहिए, जो किसी धारा या उसके भाग को मूलभूत सिद्धान्तों अनावश्यक बना दे।
अश्वनी कुमार बनाम अरविन्द बोस, के मामले में, यह सम्प्रेक्षित किया गया कि "अनुचित अधिशेष के रूप में होने के कारण संविधि के शब्दों की उपेक्षा करना निर्वचन का एक दृढ़ सिद्धान्त नहीं है, यदि वे संविधि के चिंतन के भीतर कल्पनीय रूप से परिस्थितियों में समुचित प्रयोज्यता रखते हैं।"
राम शिव बहादुर सिंह बनाम द स्टेट आफ विन्ध्य प्रदेश, के मामले में यह सम्प्रेक्षित किया गया कि "अर्थान्वयन की उपेक्षा करना न्यायालय के लिए आवश्यक है यदि भाषा पर युक्तियुक्त रूप से अनुज्ञेय हैं, जो संविधि के एक भाग को किसी अर्थ या प्रयोज्यता से रहित बना देगा।"
संविधि के निर्वचन का उद्देश्य संसद के आशय की खोज करना है- डोयपैक सिस्टम्स प्रा लि बनाम यूनियन आफ इण्डिया (1988) 2 एस सी सी 299, के मामले में निर्णय में यह धारित किया गया कि :
"संविधि में शब्दों को प्रथम दृष्ट्या उनके सामान्य अर्थ ही दिया जाना चाहिए। जहाँ वैयाकरणिक निर्वाचन स्पष्ट, प्रत्यक्ष तथा असंदिग्ध है, तो वह निर्वाचन अधिभावी होना चाहिए जब तक कि इसके प्रतिकूल कुछ सशक्त तथा स्पष्ट कारण न हो।"
"यह दोहराना आवश्यक है कि संविधि के निर्वाचन का उद्देश्य अधिनियम में अभिव्यक्त संसद के आशय की खोज करना है। संविधि का अर्थान्वयन करने में प्रभावो उद्देश्य, इसके सन्दर्भ में तथा इसका सम्पूर्णता में विचार करते हुए, संविधि में अभिव्यक्त विधायिका के आशय को अभिनिश्चित करना है। अतः वह आशय तथा संविधि का अर्थ स्वयं संविधि में प्रयुक्त शब्दों में मूलरूप से इप्सित किया जाना होता है, जो, यदि वे स्पष्ट तथा असंदिग्ध हों, जैसा वे समझे जाते हैं प्रयोज्य होंगे।
निर्वचन का मुख्य सिद्धान्त
निर्वचन के मुख्य सिद्धान्तों में से एक यह है कि जब किसी विशिष्ट उपबन्ध की भाषा सरल तथा असंदिग्ध है, तब ऐसी दशा में वह उसे विदेशो शब्दों का वाचन किये बिना पढ़ा जाना चाहिए। इसलिए किसी संविधि के अर्थान्वयन का मुख्य नियम यह भी है कि इसको स्वयं संविधि में अभिव्यक्त आशय के अनुसार निर्वाचित किया जाना चाहिए।
सूक्ति 'यदि संदिग्धता नहीं है तो शब्दों का पालन करना चाहिए'- निर्वाचन के नियम के सम्बन्ध में लैटिन सूक्ति "वेर्विस स्टेण्डम अवी नल्ला एम्बीगाइटस" जिसका अर्थ है "यदि संदिग्धता नहीं है तो शब्दों का पालन करना चाहिए" सुसंगत है।
यह सूक्ति जहाँ संविधि के शब्द संदिग्ध है, वहाँ अर्थान्वयन के नियम अभिव्यक्त करती है उनके अर्थ तथा आशय को निश्चित करने के क्रम में यह आवश्यक हो जाता है कि उन परिस्थितियों पर विचार किया जाय जिनमें संविधि प्रवर्तित हुई, इसका उद्देश्य ध्यान में था, बुराई जिसको दूर करने का आशय था, या अधिकार जिसको प्रदान करने का आशय था तथा इस आलोक में प्रदत्त निर्वाचन या अर्थान्वयन संदिग्ध शब्द या वाक्यांश पर होता है।
सभी उपबन्धों को प्रभाव देने का प्रयास विधि का यह सुस्थापित सिद्धान्त है कि, संविधि के निर्वाचन के लिए सभी उपबन्धों को प्रभाव देने का प्रयास अवश्य किया जाना चाहिए। किसी भी उपबन्ध को अतिरिक्त (फालतू) नहीं समझना चाहिए।
धारा का अर्थान्वयन
धारा का अर्थान्वयन सभी भागों के साथ-साथ किया जाना है। उसी धारा के विभिन्न भागों को साथ-साथ हो पढ़ा जाना चाहिए।
संविधि की भाषा
न्यायालय इस धारणा पर कार्यवाही नहीं कर सकती है कि संविधि अधिनियमित करते हुए विधायिका ने त्रुटि कारित की है तथा जहाँ संविधि की भाषा सरल तथा असंदिग्ध है तो न्यायालय विधायिका के बुद्धिमान अधिवक्ता का या राजनीतिक सुधारक की भूमिका निभाते हुए शब्द को जोड़ने या घटाने के लिए संविधि की भाषा के पीछे नहीं जा सकती है।
न्यायालय को इस आधार पर कार्यवाही करनी पड़ती है कि विधायिका ने जो कुछ कहा वह उसका आशय है एवं यद्यपि कि पद विन्यास, आदि में कुछ त्रुटि है, यह कोर्ट की अपेक्षा अन्य का कार्य है कि वह उस त्रुटि को दूर करे
विधायी आशय
संविधि में कोई भी शब्द फालतू निर्वाचित नहीं होता है। कोई भी शब्द अप्रभावी या प्रयोजनहीन नहीं छोड़ा जा सकता है। न्यायालयों से विधायी आशय का पूर्णतया पालन करने की अपेक्षा होती हैं।
किसी उपबन्ध का अर्थान्वयन करते समय उसमें प्रयुक्त भाषा को सन्दर्भ तथा संविधि के अन्य उपबन्धों को सन्दर्भित करते हुए पूर्ण प्रभाव दिया जाना होता है। अर्थान्वयन द्वारा प्रावधान "मृतपत्र" या "अनुपयोगी काण्ठ" नहीं बनाया जा सकता है।