लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 33: पॉक्सो अधिनियम में विचारण का बंद कमरे में किया जाना

Shadab Salim

4 Aug 2022 4:31 AM GMT

  • लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 33: पॉक्सो अधिनियम में विचारण का बंद कमरे में किया जाना

    लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) की धारा 37 विचारण के बंद कमरे में किए जाने के संबंध में प्रावधान करती है। कोई भी लैंगिक अपराध बालकों के मस्तिष्क पर अत्यंत गहरा प्रभाव डालता है। खुलेआम इस तरह के विचारण को किये जाने से आवश्यक ही बालक की प्रतिष्ठा और उसके परिवार की प्रतिष्ठा पर दुष्प्रभाव पड़ता है, इस समस्या से निपटने के उद्देश्य अधिनियम में विचारण को बंद कमरे में किये जाने संबंधी प्रावधान किए गए हैं। इस आलेख के अंतर्गत धारा 37 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 37

    विचारण का बंद कमरे में संचालन

    विशेष न्यायालय मामलों का विचारण बंद कमरे में और बालक के माता-पिता या किसी ऐसे अन्य व्यक्ति की उपस्थिति में करेगा, जिसमें बालक का विश्वास या भरोसा है :

    परंतु जहां विशेष न्यायालय की यह राय है कि बालक की परीक्षा न्यायालय से भिन्न किसी अन्य स्थान पर किए जाने की आवश्यकता है, वहाँ वह दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 284 के उपबंधों के अनुसरण में कमीशन निकालने के लिए कार्यवाही करेगा।

    कार्यवाही का बन्द कमरे में संचालन

    कार्यवाही बन्द कमरे में आयोजित की जाती है, यदि इसे न्यायाधीश के प्राइवेट कक्ष में सुना जाता है अथवा ऐसे न्यायालय में सुना जाता है, जिसके दरवाजे बन्द कर लिए गये हों और मामले में सम्बद्ध व्यक्तियों के अलावा अन्य व्यक्तियों को अपवर्जित कर दिया गया हो। यह अनुक्रम वहां पर अपनाया जाता है, जहाँ पर प्रचार बहुत अवांछनीय होगा और यह कतिपय वैवाहिक मामलों में अपनाया जाता है। केवल बहुत अपवादजनक रूप में, जैसे जहाँ पर युवा व्यक्ति अन्तर्ग्रस्त हो, दाण्डिक मामले को बन्द कमरे में सुना जा सकता है।

    यदि मजिस्ट्रेट यह समझता है कि मामले की परिस्थितियां ऐसा प्राधिकृत करती है और यदि कार्यवाही का कोई पक्षकार ऐसा चाहता है, तब वह इस अधिनियम के अधीन कार्यवाही बन्द कमरे में संचालित कर सकता है। यह धारा बन्द कमरे में आयोजित की जाने वाली कार्यवाही का अनुचिन्तन करती है। इस अधिनियम के अधीन मजिस्ट्रेट के निर्देश पर अथवा यदि उस कार्यवाही का पक्षकार ऐसा चाहता है, तब वह बन्द कमरे में कार्यवाही कर सकता है।

    न्यायालय को प्रत्येक व्यक्तियों के लिए खुला होना

    वह स्थान, जिसमें कोई दाण्डिक न्यायालय किसी अपराध की जांच अथवा विचारण करने के प्रयोजन के लिए आयोजित किया जाता है, को खुला न्यायालय होना समझा जाएगा, जिसमें सामान्यतः जनता को पहुंच प्राप्त हो सकती है, जहाँ तक वह सुविधाजनक रूप में उसमें अन्तर्विष्ट हो सकता है।

    परन्तु यह कि पीठासीन न्यायाधीश अथवा मजिस्ट्रेट, यदि वह उपयुक्त समझता है, तब किसी विशेष मामले में किसी जांच अथवा विचारण के किसी प्रक्रम पर यह आदेश दे सकेगा कि सामान्य रूप में जनता अथवा किसी विशेष व्यक्ति को न्यायालय के द्वारा प्रयोग किए जाने वाले कक्ष अथवा भवन में पहुंच प्राप्त नहीं होगी अथवा उसे नहीं होना होगा अथवा रहना होगा। यह प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 327 में पहले से उपलब्ध भी है।

    प्रत्येक न्यायालय को सभी व्यक्तियों के लिए खुला होना है। गोपनीयता अनुदेशकारी प्रक्रिया से यथाभिन्न न्यायपालिका का प्रमाणिक मापदण्ड है। जनता की वास्तविक उपस्थिति आवश्यक नहीं है, न्यायालय को किसी ऐसे व्यक्ति के लिए खुला होना चाहिए, जो प्रवेश के लिए स्वयं उपस्थित हो सकेगा।

    निर्णय पर पहुंचने के पहले उपयुक्त सलाह

    मजिस्ट्रेट के प्राइवेट निवास पर कारबार का संव्यवहार वर्जित किया गया है। मजिस्ट्रेट को निःसंदेह स्थान को स्वयं निश्चित करना है। परन्तु उसे अपने वरिष्ठ अधिकारी अथवा अन्य व्यक्तियों से भी, जो उसके निर्णय पर पहुंचने के पहले उसे उपयुक्त सलाह देने के लिए संभाव्य हो, से परामर्श करने के लिए निवारित करने हेतु विधि में कुछ भी नहीं है।

    इन री वेंकटरमन, ए आई आर 1950 मदास 441, के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि एम आर मजिस्ट्रेट के लिए जेल परिसर के अन्दर अथवा किसी अन्य स्थान पर उचित मामले में जांच करना अवैध नहीं होता है, परन्तु यह कि वह स्थान, जहाँ पर जांच की जाती है, को खुला न्यायालय होना समझा जाना चाहिए, जहाँ पर इसके कारण जनता को उपस्थित होने का अधिकार प्राप्त हो, यद्यपि ऐसा अधिकार विशेष आधारों पर उपयुक्त मामलों में नियंत्रित किया जा सकता है और यह कि मजिस्ट्रेट यह देखने के लिए कर्तव्यबद्ध होता है कि न्यायालय के सदस्यों तथा जनता के सदस्यों को उचित सुविधाएं प्रदान की गयी है. जिन्हें जेल के नियमों के द्वारा अथवा जेल के भारसाधक अधिकारी के द्वारा निर्बन्धित नहीं किया जा सकता है।

    पुलिस अधिकारी उस समय अनुज्ञात नहीं, जब मजिस्ट्रेट संस्वीकृति अभिलिखित करता है

    नाथ सिंह बनाम क्राओन, एआईआर 1925 के मामले में कहा गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 327 न्यायालय को यह आदेश देने के लिए शक्ति प्रदान करती है कि किसी विशेष व्यक्ति को न्यायालय में नहीं रहना चाहिए। यह पुलिस अधिकारियों के मामले में कोई अपवाद नहीं बनाती है। पुलिस अधिकारी, जिसने मामले का अन्वेषण किया था, को न्यायालय भवन में उस समय उपस्थित होने के लिए अनुज्ञात नहीं किया जाना चाहिए, जब मजिस्ट्रेट अभियुक्त के द्वारा की गयी संस्वीकृति को अभिलिखित करता है।

    बलात्संग की जांच तथा विचारण बन्द कमरे में

    यह अभिव्यक्ति कि बलात्संग की जांच तथा विचारण "बन्द कमरे में किया जाएगा, जैसा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 327 की उपधारा (2) में विद्यमान है. यह न केवल प्रासंगिक, वरन् बहुत महत्वपूर्ण है। यह न्यायालय पर बलात्संग के मामलों, आदि का विचारण सदैव बन्द कमरे में करने के लिए कर्तव्य अधिरोपित करता है।

    न्यायालय विधायिका के द्वारा अभिव्यक्त आशय के अग्रसरण में, न कि उसके समादेश की उपेक्षा करते हुए कार्य करने के लिए आबद्ध होते हैं और सदैव उन्हें दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 327 (2) और (3) के प्रावधानों का आश्रय लेना चाहिए और बलात्संग के मामलों का विचारण बन्द कमरे में करना चाहिए।

    इस संबंध में भारत के उच्चतम न्यायालय के विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह एवं अन्य 1996 क्रि लॉ ज 1728 एआईआर 1996 एससी में कहा है कि यह अपराध की पीडिता को थोड़ा आरामदायक होने और आस-पास से अधिक अवगत न होने वाले प्रश्नों का उत्तर बहुत आसानी से देने के लिए समर्थ बनाएगा। बन्द कमरे में विचारण न केवल अपराध की पीड़िता के आत्मसम्मान को ध्यान में रखते हुए वरन् विधायी आशय के अनुरूप होगा, परन्तु यह अभियोक्त्री के साक्ष्य की गुणवत्ता को सुधारने के लिए भी संभाव्य है, क्योंकि वह उस तरह से स्पष्ट रूप में अनिसाक्ष्य देने में नहीं हिचकिचाएगी अथवा संकोच करेगी, जैसे वह जनता की आड में खुले न्यायालय में कर सकती है। उसके साक्ष्य की सुधरी हुई गुणवत्ता न्यायालयों को सच्चाई पर पहुंचने में और सच्चाई को झूठ से छानबीन करने में सहायता प्रदान करेगी।

    इसलिए उच्च न्यायालयों को दण्ड प्रक्रिया सहिता की धारा 327 के संशोधित प्रावधानों के प्रति विचारण न्यायालयों का ध्यान आकर्षित करने और पीठासीन अधिकारियों को बलात्संग के मामलों का विचारण सदैव दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 327 (2) के द्वारा यथाअनुचिन्तित खुले न्यायालय की अपेक्षा बन्द कमरे में करने के लिए प्रेरित करने की सलाह दी जाएगी।

    जब विचारण बन्द कमरे में किया जाता है, तब किसी व्यक्ति के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 327 (3) के द्वारा यथाअनुचिन्तित न्यायालय की पूर्व अनुमति के सिवाय मामले में कार्यवाही के सम्बन्ध में किसी विषय को मुद्रित करना अथवा प्रकाशित करना विधिपूर्ण नहीं होगा। यह लैंगिक अपराध की पीडिता को कारित किए जाने वाले किसी अग्रिम संकट से बचाएगा।

    जब कभी संभाव्य हो तब यह भी विचार करने योग्य हो सकेगा कि क्या यह अधिक वांछनीय नहीं होगा कि महिलाओं पर लैंगिक हमलों के मामलों का विचारण महिला न्यायाधीशों, जहाँ पर उपलब्ध हो, के द्वारा किया जाए, जिससे कि अभियोक्त्री अपना कथन बहुत आसानी से करे और न्यायालयों की ऐसे मामलों में साक्ष्य का मूल्यांकन करते समय कठोर तकनीकियों को परिवर्तित करने के लिए बलिदान की जाने वाली सच्चाई को अनुज्ञात किए बिना अपने कर्तव्यों का उचित रूप में निर्वहन करने में सहायता प्रदान कर सके।

    न्यायालयों को यथासंभव लैंगिक अपराध की पीड़िता को अग्रिम संकट से बचाने के लिए अपने आदेशों में अभियोक्त्री का नाम प्रकट करने की उपेक्षा करनी चाहिए। अपराध की पीडिता की अनामता यथासंभव सर्वत्र बनाए रखी जानी चाहिए।

    इस मामले में विचारण न्यायालय ने अपील के अधीन अपने आदेश में उस समय पीडिता के नाम का बार-बार प्रयोग किया था, जब वह उसे मात्र अभियोक्त्री के रूप में निर्दिष्ट कर सकता था न्यायालय इस पक्ष पर कुछ अधिक कहे बिना यह आशा रखता है कि विधारण न्यायालय उदारतापूर्वक दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 327 (2) और (3) के प्रावधानों का आश्रय लेंगे। बन्द कमरे में बलात्संग के मामले का विचारण नियम होना चाहिए और ऐसे मामलों में खुला विचारण अपवाद होना चाहिए।

    कब साक्षियों को हाजिर होने से अभिमुक्ति दी जाए और कमीशन जारी किया जाएगा-

    (1) जब कभी इस संहिता के अधीन किसी जाँच, विचारण या अन्य कार्यवाही के अनुक्रम में, न्यायालय या मजिस्ट्रेट को प्रतीत होता है कि न्याय के उद्देश्यों के लिए यह आवश्यक है कि किसी साक्षी की परीक्षा दी जाए और ऐसे साक्षी की हाजिरी इतने विलम्ब व्यय या असुविधा के बिना, जितनी मामले की परिस्थितियों में अनुचित होगी, नहीं कराई जा सकती है तब न्यायालय या मजिस्ट्रेट ऐसी हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकता है और साक्षी की परीक्षा की जाने के लिए इस अध्याय के उपबंधों के अनुसार कमीशन जारी कर सकता है।

    परन्तु जहाँ न्याय के उद्देश्यों के लिए भारत के राष्ट्रपति या उप-राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल या किसी संघ राज्यक्षेत्र के प्रशासक की साक्षी के रूप में परीक्षा करना आवश्यक है, वहाँ ऐसे साक्षी की परीक्षा करने के लिए कमीशन जारी किया जाएगा।

    (2) न्यायालय अभियोजन के किसी साक्षी की परीक्षा के लिए कमीशन जारी करते समय यह निदेश दे सकता है कि प्लीडर की फीस सहित ऐसी रकम जो न्यायालय अभियुक्त के व्ययों की पूर्ति के लिए उचित समझे, अभियोजन द्वारा दी जाए।

    अभियोक्त्री के साक्ष्य को खुले न्यायालय परिसर में अभिलिखित किए जाने के लिए अनुज्ञात किया जाए

    चूंकि विचारण न्यायालय का चैम्बर बहुत छोटा था इसलिए छोटे चैम्बर में अभियुक्त, अन्य अभियोजन साक्षियों, बचाव पक्ष के अधिवक्ता और स्टॉफ को समायोजित करना संभव नहीं था अभियोक्त्री का साक्ष्य जन-सामान्य और उन अधिवक्ताओं, जो मामले से असम्बन्धित थे, को भेजने के पश्चात् दरवाजों और खिड़कियों को बन्द करके खुले न्यायालय परिसर में अभिलिखित किए जाने के लिए अनुज्ञात किया जा सकता था।

    (1) साक्षियों की परीक्षा के लिए कमीशन कौन जारी कर सकता है

    ऐसा कोई न्यायालय, जिसके पास मामला हो, कमीशन जारी कर सकता है। दाण्डिक विधि (संशोधन) अधिनियम, 1952 के प्रावधानों के अधीन नियुक्त किया गया विशेष न्यायाधीश दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 503 के अधीन प्रदत्त शक्ति के प्रयोग में कमीशन जारी कर सकता है।

    (2) कमीशन जारी करना औपचारिक साक्षियों तक ही निर्बन्धित अभियोजन के महत्वपूर्ण साक्षियों का साक्ष्य इस आधार पर कमीशन पर लिए जाने के लिए अनुज्ञात करना उचित नहीं है कि साक्षी को न्यायालय में उपस्थित करना असुविधाजनक होगा।

    सामान्य नियम के रूप में यह कहा जा सकता है कि महत्वपूर्ण साक्षीगण, जिनके अभिसाक्ष्य पर अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध मामले को साबित किया जाना है की न्यायालय में परीक्षा की जानी चाहिए और सामान्यतः कमीशन जारी करने को औपचारिक साक्षियों अथवा ऐसा साक्षियों तक ही निर्बन्धित होना चाहिए, जिन्हें मामले की परिस्थितियों में विलम्ब अथवा अयुक्तियुक्त असुविधा के बिना प्रस्तुत नहीं किया जा सकता था कमीशन पर साक्षियों की परीक्षा करने का विचार मुख्य रूप में परिवादी अथवा किसी व्यक्ति, जिसका अमिसाक्ष्य अभियोजन मामले को साबित करने के लिए पूर्ण रूप में आवश्यक हो, जैसे प्रमुख रूप में हितबद्ध पक्षकारों से भिन्न साक्षियों का साक्ष्य प्राप्त करने के लिए आशयित होता है।

    संक्षेप में दाण्डिक मामले में साक्षियों की परीक्षा अत्यधिक मामलों में विलम्ब व्यय अथवा असुविधा के सिवाय कमीशन पर नहीं की जानी चाहिए और विशेष रूप में अनुपेक्षणीय स्थितियों में पूछताछ के माध्यम से प्रक्रिया का आश्रय लिया जाना चाहिए प्रयोग किए जाने का विवेकाधिकार न्यायिक होता है और उसका प्रयोग हल्के से अथवा मनमाने ढंग से नहीं किया जाना चाहिए

    (3) न्यायालय उपस्थिति को निर्मुक्त कर सकता है और साक्षी की परीक्षा के लिए कमीशन जारी कर सकता है

    ऐसे मामलों में, जहाँ पर साक्षी न्याय के उद्देश्यों के लिए आवश्यक हो और ऐसे साक्षी की उपस्थिति ऐसे विलम्ब व्यय अथवा असुविधा, जो मामले की परिस्थितियों में अयुक्तियुक्त होगी, के बिना सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है, न्यायालय ऐसी उपस्थिति को निर्मुक्त कर सकता है और साक्षी की परीक्षा के लिए कमीशन जारी कर सकता है। डॉक्टर ग्रीनबर्ग ने साक्ष्य देने के लिए भारत आने से इन्कार कर दिया है। उसका साक्ष्य न्याय के उद्देश्यों के लिए आवश्यक होना प्रतीत होता है भारत में न्यायालय उसकी उपस्थिति सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं। अन्यथा भी दूरस्थ विदेश, जैसे सयुक्त राज्य अमेरिका से साक्षी की उपस्थिति सुनिश्चित करने में सामान्यतः विलम्ब व्यय और/अथवा असुविधा अन्तर्ग्रस्त होगी ऐसे मामलों में उस स्थान जहाँ पर साक्षी हो, पर साक्ष्य अभिलिखित करने के लिए कमीशन जारी किया जा सकता है। लेकिन विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति ने अब उस नगर शहर, जहाँ पर न्यायालय हो, मे विडियो कांफ्रेसिंग के माध्यम से ऐसे साक्ष्य को अभिलिखित करना संभाव्य बना दिया है। इस प्रकार ऐसे मामलों में, जहाँ पर विलम्ब व्यय अथवा असुविधा के बिना साक्षी की उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की जा सकती है, न्यायालय विडियो कांफ्रेसिंग के माध्यम से साक्ष्य अभिलिखित करने के लिए कमीशन जारी करने पर विचार कर सकता है।

    (4) साक्षी की आयु अथवा शैथिल्यता के द्वारा कारित असुविधा

    असुविधा का तात्पर्य साक्षी की आयु अथवा शैथिल्यता के द्वारा कारित असुविधा के रूप में कुछ चीज होती है अथवा यह तथ्य कि वह न्यायालय से दूर किसी स्थान पर रहता है अथवा यह तथ्य कि उसे न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने के लिए लम्बे समय तक अपना व्यवसाय छोडना है। असुविधा में पक्षकारों तथा साक्षी दोनों की असुविधा शामिल होती है।

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