लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 2: अधिनियम के अंतर्गत बालक का अर्थ

Shadab Salim

7 Jun 2022 4:15 AM GMT

  • लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 2: अधिनियम के अंतर्गत बालक का अर्थ

    लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) के धारा 2 में परिभाषाएं दी गई है। इन परिभाषाओं में बालक शब्द की परिभाषा भी प्रस्तुत की गई है।

    चूंकि यह अधिनियम बालकों के इर्द गिर्द ही घूमता है एवं उनके संरक्षण के उद्देश्य से ही अधिनियमित किया गया है इसलिए बालक शब्द पर चर्चा करना इस अधिनियम को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस आलेख के अंतर्गत बालक शब्द पर प्रकाश डाला जा रहा है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि अधिनियम वास्तव में बालक किसे मान रहा है।

    बालक का सामान्य अर्थ ऐसा कोई व्यक्ति है, जो अट्ठारह वर्ष से कम आयु का हो और इसमें कोई दत्तकग्रहीत, सौतेला अथवा धात्रेय बालक शामिल है।

    "बालक" का तात्पर्य ऐसा युवा मानव है, जो अभी वयस्क न हुआ हो, जबकि बालक के अधिकारों पर अभिसमय "बालक" को निम्न प्रकार से परिभाषित करती थी :

    "प्रत्येक मानव, जो अट्ठारह वर्ष से कम आयु का हो, जब तक बालक के द्वारा प्रयोज्यनीय विधि के अधीन वयस्कता पहले ही प्राप्त न कर ली गयी हो ।" 192 देशों के द्वारा अनुसमर्थित दिनांक 20.11.1989 को आयोजित बालक के अधिकारों पर अभिसमय सी.आर.सी. (बालक के अधिकारों पर अभिसमय) का अनुच्छेद 1 बालक के अधिकारों पर अभिसमय के अधीन अधिकार के धारक को अट्ठारह वर्ष से कम आयु के मानव के रूप में परिभाषित करता है, जब तक बालक ने प्रयोज्यनीय विधि के अधीन पहले ही वयस्कता प्राप्त न कर लिया हो।

    अभिसमय स्पष्ट रूप में बाल्यावस्था के लिए 18 वर्ष के रूप में ऊपरी आयु सीमा विनिर्दिष्ट करता है, परन्तु यह मान्यता प्रदान करता है कि वयस्कता को बालक को प्रयोज्यनीय विधि के अधीन पहले प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार अनुच्छेद या तो देश की संघीय अथवा राज्य विधियों या उस देश की वैयक्तिक विधियों के अनुसार पूर्ववर्ती प्रक्रम पर वयस्कता प्राप्त करने की अवधारणा को संस्तुत करता है।

    लेकिन, बाल्यावस्था के लिए ऊपरी सीमा को यह मान्यता प्रदान करते हुए वयस्कता की अपेक्षा बाल्यावस्था के रूप में विनिर्दिष्ट किया गया है कि अधिकांश विधिक प्रणालियों में विभिन्न आयु पर विभिन्न मामलों के सम्बन्ध में पूर्ण विधिक क्षमता अर्जित कर सकता है।

    इस प्रकार, जबकि अभिसमय "बालक" को 18 वर्ष से कम आयु के प्रत्येक मानव के रूप में परिभाषित करता है. फिर भी, यह विशेष संरक्षण प्रदान करने के लिए राज्य के दायित्व के साथ बालक की विकसित क्षमताओं को सन्तुलित करते हुए विभिन्न परिस्थितियों के अधीन प्रस्तुत की जाने वाली न्यूनतम आयु को अनुज्ञात करता है। तदनुसार भारतीय विद्यायन ने बालक के अधिकारों के संरक्षण से सम्बन्धित विभिन्न विधियों के अधीन न्यूनतम आयु को परिभाषित किया है।

    यद्यपि विधायन को भारत में वयस्कता की सामान्य आयु को 18 वर्ष बनाने के लिए अधिनियमित किया गया है. फिर भी कुछ प्रयोजनों के लिए आंशिक रूप में 19वीं शताब्दी की आंग्ल विधि के प्रभाव के कारण और आंशिक रूप में वर्तमान अति आवश्यकताओं के कारण बाल्यावस्था की ऊपरी सीमा का 21 वर्ष होना जारी है।

    उदाहरणार्थ, भारत ऐसी परिस्थितियों में वयस्कता की आयु के रूप में 21 वर्ष को मान्यता प्रदान करता है, जहाँ पर 18 वर्ष से कम आयु के बालक के लिए न्यायालय के द्वारा संरक्षक नियुक्त किया गया हो।

    गर्भ में बच्चे के अधिकारों के सम्बन्ध में भारत में विधायन अभिसमय के निर्वचन के सामंजस्य में है। भारतीय संविधान में प्राण के अधिकार की अभिव्यक्ति आंग्ल सामान्य विधि के दृष्टिकोण को प्रदर्शित करती है, जिसमें यह कहा गया है कि यह अधिकार "व्यक्ति पर प्रदत्त किया गया है।

    हालांकि भारत ने वर्ष 1971 में अधिनियमित विधायन के माध्यम से गर्भावस्था के चिकित्सीय परिसमापन को अनुज्ञात किया है, फिर भी इसका आश्रय केवल निम्नलिखित मामलों में ही लिया जा सकता है-

    (i) गर्भावस्था को जारी रखने में गर्भवती महिला के जीवन का जोखिम अन्तर्ग्रस्त होगा अथवा उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में घोर क्षति अन्तर्ग्रस्त होगी: अथवा

    (ii) ऐसा सारवान जोखिम है कि यदि बालक पैदा होता है, तो वह ऐसी शारीरिक अथवा मानसिक असामान्यताओं से अन्तर्ग्रस्त होगा कि वह गंभीर रूप में विकलांग होगा। महत्वपूर्ण रूप में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम का अनुच्छेद 20 गर्भ में बच्चे, जिसके माता-पिता की मृत्यु हो जाती है. को सम्पत्ति का अधिकार प्रदान करती है और जो तत्पश्चात् जीवित पैदा होता है उसे दाय का वही अधिकार प्राप्त होगा, यदि वह माता-पिता की मृत्यु के पहले पैदा हुआ होता।

    विवाह की संविदा करने की सक्षमता की आयु लड़के के लिए 21 वर्ष और लड़की के लिए 18 वर्ष सभी समुदायों के लिए है। बाल विवाह अवरोध अधिनियम, 1929 बालक को ऐसे व्यक्ति, यदि वह पुरुष हो, जो 21 वर्ष की आयु पूरी न किया हो और यदि वह स्त्री हो, तो 18 वर्ष की आयु पूरी न की हो, के रूप में परिभाषित करता है। इस अधिनियम की धारा 5 के अधीन, जो कोई किसी बाल विवाह को सम्पन्न, संचालित अथवा निर्देशित करता है, ऐसे कारावास से, जो तीन मास तक का हो सकेगा, दण्डनीय होगा और जुर्माने के लिए दायी होगा, जब तक यह साबित नहीं कर दिया जाता है कि उसे यह विश्वास करने का कारण प्राप्त है कि विवाह बाल विवाह नहीं था। यह एकसमान विधायन वैयक्तिक विधियों के अधीन बाल विवाह को हतोत्साहित करने का प्रयत्न है।

    लेकिन, कतिपय पक्षों, जो समाज में गहन रूप में मूलित हैं तथा ऐतिहासिक निर्धनता तथा संवेद्य सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के द्वारा संयुक्त हैं, के सम्बन्ध में विधियों तथा उनके प्रवर्तन के बीच अन्तराल है। उदाहरणार्थ, बाल श्रम ऐसा तथ्य है, जो हमारे देश में विद्यमान है और हमारे निरन्तर प्रयत्नों के बावजूद, बाल विवाह अभी भी विद्यमान है। सरकार ने बलात्संग और लैंगिक सम्मति से सम्बन्धित विधियों की पुनर्समीक्षा करने तथा संशोधित करने के लिए कार्यवाही पहले ही प्रारम्भ किया है, जिससे कि लड़कियों तथा लड़कों के बीच किसी कमी को दूर किया जा सके।

    ब्लैक के विधि शब्दकोश, आठवां संस्करण, 2004, पृष्ठ 254 के अनुसार, "बालक" का तात्पर्य वयस्कता की आयु के अधीन व्यक्ति है।

    हिन्दू विधि के अधीन उस विवाह, जो अकृत और शून्य हो, से पैदा हुए बच्चे को माता-पिता का धर्मज बालक होना समझा जायेगा। उन्हें केवल अपने माता-पिता के द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति में ही अधिकार प्राप्त होगा और उससे अधिक कुछ भी नहीं रंगासामी बनाम कासप्पा गौण्डर, 2003 (12) एआईसी 472 (मद्रास) के मामले में कहा गया है कि हिन्दू विधि के अधीन उस विवाह, जो अकृत और शून्य हो, से पैदा हुए बच्चे को माता-पिता का धर्मज बालक होना समझा जायेगा। उन्हें केवल अपने माता-पिता के द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति में ही अधिकार प्राप्त होगा और उससे अधिक कुछ भी नहीं।

    राजेश के गुप्ता बनाम राम गोपाल अग्रवाल, एआईआर 2005 एससी 2425 (2005) 5 एससीसी 359 दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका पिता के द्वारा अवयस्क बालक की अभिरक्षा के लिए उस समय दाखिल की गयी थी जब बालक माँ की अभिरक्षा में पूर्ण तथा अच्छी दशा में था। याची अधिवक्ता होने के कारण व्यवसाय में बहुत व्यस्त था। पत्नी का पिता शिक्षित और वित्तीय रूप में ठीक था। न्यायालय ने माँ के पक्ष में पारित किये गये आदेश में हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया।

    निष्कर्ष यह कहता है कि कोई भी 18 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति बालक कहलायेगा। ऐसा बालक नर नारी कोई भी हो सकता है।

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