जानिए कब किसी सिद्धदोष अपराधी को बगैर कारावास के सदाचरण की परिवीक्षा ( Probation) और भर्त्सना (Admonition) पर छोड़ा जा सकता है
Shadab Salim
26 July 2020 6:21 PM IST
भारतीय दंड प्रणाली का अधिकांश स्वरूप सुधारात्मक प्रकृति का है। इस विचार पर बल दिया गया है कि आंख के बदले आंख लेने से सारी दुनिया अंधी हो जाएगी, इसीलिए भारतीय दंड प्रणाली को भी सुधारात्मक प्रकृति का बनाया गया है। इस दंड प्रणाली में किसी अपराधी को सुधारने के प्रयास किए जाते हैं न कि उसके किए गए अपराध के बदले, उससे बदला लिया जाता है।
भारतवर्ष एक लोकतांत्रिक देश है, जहां बदले जैसा न्याय नहीं होता है तथा सुधार के आधुनिक विचार को अपनाया गया है, परंतु ये सुधार केवल छोटे मामलों में और ऐसे अपराध जिन्हें कोई व्यक्ति प्रथम बार करता है, तब ही संभव हैं। अभ्यस्त/आदतन अपराधियों के लिए इस प्रकार के सुधारात्मक विचार को नहीं रखा जाता है। इस सिद्धांत को यहां पर नहीं माना जाता है या फिर गंभीर प्रकृति के अपराधों के मामले में सुधार के विचार को दरकिनार कर दिया जाता है तथा अपराधी को दंडित किया जाता है।
इस संबंध में भारतीय दंड प्रणाली में अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 ( Probation of Offenders Act, 1958) के साथ ही भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 360 का भी उल्लेख है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 इस संदर्भ में संपूर्ण उल्लेख करती है कि किसी अपराधी को परिवीक्षा ( Probation) पर या फिर भर्त्सना (Admonition) के पश्चात कब छोड़ा जा सकता है!
धारा 360- (CrPC Section 360)
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 निम्न परिस्थितियों में किसी अपराधी को सदाचरण की परिवीक्षा पर या फिर भर्त्सना के पश्चात छोड़ देने का आदेश देने हेतु न्यायालय को सशक्त करती है। न्यायालय के पास में यह अधिकार विवेक के अधीन रहता है। कोई भी अपराधी अधिकार पूर्वक न्यायालय से सदाचरण की परिवीक्षा पर या फिर भर्त्सना (Admonition) के पश्चात छोड़ देने हेतु मांग नहीं कर सकता। जिन परिस्थितियों में छोड़ा जा सकता है, वे परिस्थितियां निम्न हैं-
1)- जब कोई व्यक्ति जो 21 वर्ष से कम आयु का नहीं है और केवल जुर्माने से या 7 वर्ष या उससे कम अवधि के कारावास से दंडित अपराध के लिए दोषसिद्ध किया जाता है।
2)- जब कोई व्यक्ति जो 21 वर्ष से कम आयु का है या कोई स्त्री ऐसे अपराध के लिए जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं है, दोषसिद्ध की जाती है।
3)- जब अपराधी पर पूर्व कोई दोषसिद्धि नहीं हुई है।
ये तीन शर्ते दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 के अंतर्गत किसी सिद्धदोष अपराधी को सदाचरण की परिवीक्षा पर या फिर भर्त्सना के पश्चात छोड़ देने का आदेश देने हेतु न्यायालय को सशक्त करती हैं।
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कोई व्यक्ति यदि 21 वर्ष से अधिक उम्र का है और पूर्व दोषसिद्ध नहीं किया जाता है और उसने पहले कोई अपराध नहीं किया है जिसमें उसको दोषसिद्धि हुई हो तो ऐसी दशा में वह किसी ऐसे अपराध में जिसमें 7 वर्ष तक के कारावास का उपबंध है, सिद्धदोष किया जाता है तो इस परिस्थिति में न्यायालय अपने विवेक के आधार पर उसकी आयु, उसकी शील को ध्यान में रखते हुए सदाचरण की परिवीक्षा और केवल भर्त्सना पर छोड़ सकता है।
कोई व्यक्ति 21 वर्ष से कम उम्र का है अथवा वह स्त्री है तो ऐसी परिस्थिति में उसे मृत्यु या आजीवन कारावास के दंड से कम दंड वाले अपराध में सिद्धदोष होने पर भी अच्छे चाल चलन की परिवीक्षा और भर्त्सना के पश्चात छोड़ दिए जाने की शक्ति न्यायालय को दी गयी है। यहां पर 21 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को मृत्युदंड और आजीवन कारावास के सिवाय सभी प्रकार के अपराध में छोड़ दिए जाने का प्रावधान कर दिया गया है, यही नियम स्त्रियों के संबंध में भी है।
इस धारा के अधीन अपराधी को कारावास में रखे जाने के बजाय परिवीक्षा पर छोड़ देने की व्यवस्था है। इस धारा के अधीन कतिपय परिस्थितियों में न्यायालय सिद्धदोष अभियुक्त को सदाचरण की परीक्षा पर छोड़ सकता है।
सोमभाई बनाम गुजरात राज्य के वाद में अभियुक्त द्वारा अंधाधुन गति से वाहन चलाए जाने के कारण एक 10 वर्षीय बालिका की मृत्यु कारित हो गयी थी। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि ऐसी परिस्थिति में किसी अभियुक्त को सिद्धदोष होने पर केवल सदाचरण की परिवीक्षा के आधार पर छोड़ देना उचित नहीं है।
हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम शीलन देवी 1986 के मामले में एक महत्वपूर्ण बात कही गयी है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 के अनुसार ऐसे सभी अपराधों के अभियुक्तों को जिनके लिए 2 वर्ष से अधिक कारावास की सजा या जुर्माने के दंड का प्रावधान है परिवीक्षा पर छोड़े जाने का लाभ दिया जा सकता है, बशर्ते कि उनकी पूर्व दोषसिद्धि नहीं हुई हो तथा उनके अपराध का स्वरूप गंभीर न हो।
अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 तथा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 के अंतर्गत दोनों में से किसे उपयोग में लिया जाए इस हेतु उच्चतम न्यायालय में छन्नी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एआईआर 2006 उच्चतम न्यायालय 3051 के मामले में बहस हुई।
इस पर न्यायालय ने कहा कि साधारण खंड अधिनियम (जनरल क्लॉज़ एक्ट) धारा 8(1) में स्पष्ट लेख है कि जहां अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 लागू नहीं किया गया हो, वहां दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 के उपबंध लागू होंगे। इसका सीधा अर्थ है कि जिस भू प्रदेश में अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 लागू हो वह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 के उपबंध लागू नहीं होंगे।
उपेंद्र उपाध्याय बनाम बिहार राज्य के वाद में उच्च न्यायालय ने अभिकथन किया कि अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 की धारा 19 के संदर्भ में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 राज्य में लागू होना बंद हो गया है। अभियुक्तों को परिवीक्षा अधिनियम की धारा 34 का लाभ देकर परिवीक्षा पर छोड़े जाने में कोई अड़चन नहीं थी। अतः न्यायालय ने पिटीशनर को भारतीय दंड संहिता की धारा 147, 323, 341 एवं 390 के अधीन दिए गए दंड को अपास्त करते हुए उसे 1 महीने के भीतर विचारण न्यायालय में हाजिर होने के निर्देश दिए ताकि न्यायालय अभियुक्तों को परिवीक्षा अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत परिवीक्षा पर छोड़े जाने हेतु आदेश पारित कर सके।
इस मुकदमे में यह तय हुआ है कि जिस राज्य में अपराधी परिवीक्षा अधिनियम लागू नहीं है उस राज्य में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 से ही काम लिया जाएगा।
सुरेंद्र कुमार बनाम राजस्थान राज्य एआईआर 1990 मामले में यह कहा गया है कि इस धारा के आज्ञापक उपबंध के अनुसार जहां अपराध 7 वर्ष या इससे कम अवधि के कारावास से अथवा केवल जुर्माने से दंडित नहीं हो तथा अभियुक्त की आयु 21 वर्ष से कम हो ऐसे अभियुक्त को परिवीक्षा का लाभ दिया जाना चाहिए।
ओमप्रकाश बनाम मध्यप्रदेश राज्य के मामले में कहा गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 323 के अंतर्गत दोषसिद्धि की दशा में अभियुक्त को जेल भेजने के बजाय उसे परीक्षा का लाभ देकर छोड़ा जाना उचित होगा।
कैलाश बनाम हरियाणा राज्य के वाद में जो कि एआईआर 2004 का मामला है पंजाब उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 तथा परिवीक्षा अधिनियम 1958 की धारा 34 के उपबंधों से यह स्पष्ट है कि परिवीक्षा का लाभ ऐसे दोषसिद्ध अभियुक्त को नहीं दिया जा सकता है जिसका अपराध 10 वर्ष से अधिक कारावास से दंडनीय हो, अभियुक्त की अपील निरस्त कर दी गयी।
रमेश दास बनाम रघुनाथ तथा अन्य एआईआर 2008 उच्चतम न्यायालय 1298 के प्रकरण में अभियुक्त कि भारतीय दंड संहिता की धारा 326 के अपराध के लिए दोषसिद्धि हुई तथा उसे 5 वर्ष के कारावास से दंडित कर आदेशित किया गया कि वह अपराध के कारण जख्मी हुए दो पीड़ितों को क्रमश: 20000 तथा ₹5000 जुर्माने के रूप में भुगतान करे।
इस दंड के विरुद्ध अभियुक्त ने पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका दायर की जबकि राज्य ने दंड में वृद्धि के लिए अपील की थी।
उच्च न्यायालय ने राज्य की अपील खारिज कर दी तथा अभियुक्त को धारा 360 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत परिवीक्षा पर छोड़े जाने का निर्णय दिया तथा जुर्माने की राशि में वृद्धि कर दी।
उच्च न्यायालय ने उक्त आदेश के विरुद्ध अपील में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय किया कि धारा 326 एवं 149 भारतीय दंड संहिता का अपराध आजीवन कारावास से दंडनीय होने के कारण इस प्रकरण में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 की परिवीक्षा संबंधी प्रावधान लागू नहीं होते हैं, अपितु इसमें अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 के उपबंधों के आधार पर विचार किया जाना चाहिए था। अतः उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त करते हुए उच्चतम न्यायालय ने प्रकरण को उच्च न्यायालय के पुनः विचारार्थ लौटा दिया।
न्यायालय द्वारा धारा 360 के अंतर्गत कार्यवाही नहीं किए जाने के अपने कारणों को अभिलिखित करना-
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 360 के अंतर्गत और अपराधी परिवीक्षा अधिनियम 1958 के अंतर्गत यदि कार्यवाही की जा सकती थी और अभियुक्त को परिवीक्षा पर छोड़ा जा सकता या भर्त्सना के पश्चात छोड़ा जा सकता था किंतु नहीं छोड़ा गया तथा धारा 360 की कार्यवाही नहीं की गयी तो कोई कार्यवाही नहीं किए जाने के अपने कारणों को अभिलिखित करना होगा। न्यायालय ऐसी कार्यवाही नहीं किए जाने के अपने कारणों को अपने निर्णय में अभिलिखित करेगा।
जहां किसी किशोर आयु के अभियुक्त की दोषसिद्धि किसी गंभीर अपराध जैसे बलात्कार या हत्या इत्यादि में हुई हो तो उसे 10 वर्ष के सश्रम कारावास का दंड दिया जाना अनुचित होगा क्योंकि उसके मामले में धारा 361 के प्रावधानों को लागू किया जाना आवश्यक होगा।
हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम लाड सिंह के मामले में विनिश्चय किया गया है की दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 361 तथा अपराधी परिवीक्षा अधिनियम के उपबंधों में कोई विरोधाभास नहीं है बल्कि धारा 361 परिवीक्षा अधिनियम के उपबंध की पूरक है। इस धारा के उपबंधों की प्रकृति आज्ञापक होने के कारण न्यायालय द्वारा इसका अनुपालन किया जाना अनिवार्य है।
धारा 361 आज्ञापक धारा है। न्यायालय को अपने ऐसे कारण अभिलिखित करने ही होंगे कि वह किसी मामले में सिद्धदोष पर धारा 360 की कार्यवाही कर सकता था किंतु क्यों नहीं की।