Transfer Of Property Act में Lis Pendens का सिद्धांत
Shadab Salim
23 Jan 2025 9:02 AM IST

संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 52 किसी संपत्ति के ऐसे अंतरण पर रोक लगाती है जिस के संबंध में कोई वाद कोर्ट में लंबित है। इस धारा का मूल अर्थ यह है कि जब भी किसी संपत्ति पर कोई विवाद कोर्ट के समक्ष पंजीकृत हो तब उस संपत्ति का अंतरण नहीं किया जाए और यदि ऐसा अन्तरण किया जाता है तब उस अंतरण को अवैध और शून्य करार दिया जाएगा। अधिनियम कि यह धारा 52 इसकी अवधारणा पर स्पष्ट रूप से प्रावधान करती है तथा उससे संबंधित नियमों को प्रस्तुत करती है।
इस धारा में वर्णित सिद्धान्त इस सूत्र पर आधारित है कि अचल सम्पत्ति से सम्बन्धित किसी वाद के लम्बन के दौरान उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होना चाहिए। यह सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि किसी वाद के लम्बन के दौरान, जिसमें अचल सम्पत्ति से सम्बन्धित कोई अधिकार विवादित है, विवाद का कोई भी पक्षकार उक्त सम्पत्ति को इस प्रकार अन्तरित या अन्यथा व्ययनित नहीं करेगा जिससे कि उसके प्रतिपक्षी पर विपरीत प्रभाव पड़े। इस सिद्धान्त का उद्भव आवश्यकता के सिद्धान्त से हुआ।
लम्बित वाद के सिद्धान्त को लाई टर्नर ने बेलामी बनाम साबिन के मामले में इस प्रकार व्यक्त किया था:
"जैसा कि मैं सोचता हूँ, यह सिद्धान्त विधि तथा साम्या दोनों ही कोर्ट के लिए सामान्य है और जैसा कि मैं महसूस करता हूँ, इस तथ्य पर आधारित है कि यदि वाद के लम्बन के दौरान उक्त सम्पत्ति के अन्तरण की अनुमति दे दी जाए तो विवादों का सफलतापूर्वक निपटारा कभी भी सम्भव नहीं हो सकेगा। प्रत्येक मामले में वादी प्रतिवादी द्वारा किए गये अन्तरण के कारण विफल हो जाएगा यदि अन्तरण निर्णय या डिक्री से पूर्ण कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में वादी बार-बार वाद संस्थित करने के लिए बाध्य होगा और हर बार अन्तरण का उसी प्रक्रिया द्वारा विफल हो जाएगा।"
इस वाद का निर्णय सन् 1857 में हुआ था जबकि इससे पूर्व इंग्लैण्ड में जजमेण्ट्स एक्ट 1839 पारित हो चुका था जिससे यह अपेक्षा की गयी थी कि लम्बित वाद से प्रभावित होने के लिए यह आवश्यक है कि वाद पंजीकृत किया गया हो। यदि वाद पंजीकृत है तो वाद के लम्बन की अवधि में विवादित सम्पत्ति का अन्तरण, इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा। उक्त अधिनियम को अब लैण्ड चार्जेज एक्ट, 1925 से प्रतिस्थापित कर दिया गया है। एक बार कराया गया पंजीकरण पाँच वर्ष तक प्रभावी रहता है और इस अवधि में यदि विवाद का निर्णय नहीं हुआ तो वाद को पुनः पाँच वर्ष के लिए पंजीकृत कराया जा सकेगा।
भारत में इस सिद्धान्त को लेकर फैय्याज हुसेन बनाम प्राग नारायण का महत्वपूर्ण वाद निर्णीत हुआ है। इस मामले में एक बंधककर्ता ने अपने बन्धक को प्रवर्तित कराने के लिए वाद संस्थित किया, पर समन की तामील होने से पूर्व ही बन्धककर्ता ने उसी सम्पत्ति का पुनः बन्धक करने की साज़िश की पूर्व बन्धकों ने अपना वाद जारी रखा, पर पाश्चिक बन्धको को पक्षकार नहीं बनाया प्रश्न यह था कि क्या पाश्चिक अन्तरिती लम्बित वाद के सिद्धान्त से प्रभावित होगा?
यह अभिनिर्णीत हुआ कि विक्रय के पश्चात् पाश्चिक अन्तरिती का पूर्विक अन्तरिती को मोचित करने का अधिकार समाप्त हो जाता है। पाश्चिक अन्तरिती पूर्विक अन्तरण से प्रभावित होगा। दूसरे शब्दों में लम्बित वाद के सिद्धान्त को लागू किया गया।
सिद्धान्त का प्रभाव- इस सिद्धान्त का प्रभाव जैसा कि धारा 52 में वर्णित है, पाश्चिक अन्तरण को शून्य या शून्यकरणीय बनाना नहीं है। यह उस अन्तरण को केवल कोर्ट के निर्णय के अध्यधीन बना देता है।
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि लम्बित वाद के दौरान अन्तरित सम्पत्ति पर अधिकार उस व्यक्ति का होगा जिसके पक्ष में कोर्ट का निर्णय होगा। यह स्थिति तब भी रहेगी, जबकि सम्पत्ति का अन्तरण इन्जंक्शन आदेश जिसके द्वारा सम्पत्ति के अन्तरण को प्रतिषेधित किया गया था का उल्लंघन करते हुए किया गया हो। उल्लंघन का प्रभाव केवल यह होगा कि दोषी पक्षकार उल्लंघन के लिए दोषी होगा।
वाद के लम्बित रहने के दौरान अन्तरित सम्पत्ति का अन्तरिती सम्पत्ति में तब तक स्वत्व नहीं प्राप्त करता है जब तक कि कोर्ट द्वारा उसके अन्तरण के पक्ष में अन्तिम डिक्री न पारित हो जाए। डिक्री धारक के पक्ष में होने वाली निष्पादन प्रक्रिया को भी ऐसा अन्तरिती नहीं रोक सकता। वाद के लम्बन के दौरान ऐसी सम्पत्ति का अन्तरिती सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने का भी अधिकारी नहीं होता है।
विशेष कर तब जब कि उक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में पारित निष्पादन की कार्यवाही लम्बित हो। पर वाद के लम्बन के दौरान सम्पत्ति क्रय करने के वाला अन्तरिती सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के अन्तर्गत सम्पत्ति का कब्जा प्राप्त करने हेतु अन्तरक के विरुद्ध कार्यवाही कर सकेगा, यदि सम्पत्ति अन्तरक को प्राप्त होती है। वह अपने अधिकार को, यदि कोई हो, को प्रवर्तित कराने हेतु वाद संस्थित कर सकेगा।
मेसर्स सुप्रीम र फिल्म एक्सचेंज लिमिटेड बनाम बाजनाथ सिंह के मामले में एक थियेटर को, थियेटर स्वामी के विरुद्ध पारित डिक्री के निष्पादन में कुर्क कर लिया गया। कुर्की के दौरान स्वामी ने उक्त थियेटर को अपीलार्थी के पक्ष में पट्टे द्वारा अन्तरित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्णत किया कि सम्पत्ति का पट्टा लम्बित वाद के सिद्धान्त से प्रभावित होगा।
इस धारा मुख्य तत्व - इस धारा के निम्नलिखित प्रमुख तत्व है-
किसी वाद अथवा कार्यवाही का लम्बित होना।
वाद अथवा कार्यवाही एक ऐसे कोर्ट में लंबित हो जिसे उस पर विचार करने की शक्ति प्राप्त हो।
वाद अथवा कार्यवाही दुरभिसन्धि पूर्ण न हो।
उक्त वाद में किसी अचल सम्पत्ति से सम्बन्धित कोई प्रश्न प्रत्यक्षतः और विशिष्टत: वादग्रस्त हो।
विवादग्रस्त सम्पत्ति विवाद के किसी अन्य पक्षकार द्वारा अन्तरित की गयी हो या अन्यथा व्ययनित की गयी हो।
अन्तरण विवाद के किसी अन्य पक्षकार को प्रभावित करे।
वाद अथवा कार्यवाही का लम्बित होना- प्रथम तत्व यह है कि कोई वाद अथवा कार्यवाही लम्बित हो। इस धारा के अन्त में दिया गया स्पष्टीकरण उपबन्धित करता है कि किसी वाद अथवा कार्यवाही का लम्बन इस धारा के प्रयोजनों के लिए उस तारीख से प्रारम्भ हुआ समझा जाएगा, जिस तारीख को सक्षम अधिकारिता वाले कोर्ट में वह वाद-पत्र प्रस्तुत किया गया हो या वह कार्यवाही संस्थित की गयी हो और तब तक चलता हुआ समझा जाएगा जब तक कि उस वाद या कार्यवाही का निपटारा अन्तिम डिक्री या आदेश द्वारा न हो गया हो और ऐसी डिक्री या आदेश की पूरी तुष्टि या उन्मोचन न अभिप्राप्त कर लिया गया हो या तत्समय प्रवृत्त विधि द्वारा उसके निष्पादन के लिए विहित किसी अवधि के अवसान के कारण वह अनभिप्राय न हो गया हो।
अतः स्पष्ट है कि वाद अथवा कार्यवाही का लम्बन उसकी प्रस्तुति की तिथि से माना जाएगा, किन्तु वाद अथवा कार्यवाही की प्रस्तुति मात्र ही पर्याप्त नहीं है। यह भी आवश्यक है कि सक्षम प्राधिकारिता वाले कोर्ट ने विचारण हेतु उसे स्वीकार कर लिया हो। उदाहरणस्वरूप, यदि वादी अकिंचन के रूप में, वाद संस्थित करना चाहता है तो उसे कोर्ट की पूर्वानुमति लेनी होगी। यदि कोर्ट इस आशय की अनुमति प्रदान कर दें तो अकिंचन वाद उस तिथि से ही लम्बित माना जाएगा जिस तिथि को अकिंचन के रूप में वाद संस्थित करने हेतु आवेदन प्रस्तुत किया गया था।
विवारण हेतु वाद अथवा कार्यवाही साधारणतया कनिष्ठ कोर्ट में प्रस्तुत की जाती है यदि कनिष्ठ कोर्ट में न प्रस्तुत कर, उसे वरिष्ठ कोर्ट में प्रस्तुत किया गया है और वरिष्ठ कोर्ट विचारण हेतु उसे कनिष्ठ कोर्ट को सुपुर्द कर देता है तो वाद या कार्यवाही उसी तिथि से लम्बित मानी जाएगी जिस तिथि को वरिष्ठ कोर्ट ने उसे विचारण हेतु स्वीकार किया था। इसका कारण यह है कि वरिष्ठ कोर्ट द्वारा प्रथम दृष्टया विचारण केवल एक अनियमितता है अवैधता नहीं, किन्तु यदि वरिष्ठ कोर्ट बाद अथवा कार्यवाहों को स्वीकार नहीं करता है। केवल
यह निर्देश देता है कि उसे कनिष्ठ कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया जाए तो बाद कनिष्ठ कोर्ट में प्रस्तुति को तिथि से लम्बित माना जाएगा न कि वरिष्ठ कोर्ट में प्रस्तुति को तिथि में किन्तु यदि वरिष्ठ कोर्ट के पास क्षेत्राधिकार ही नहीं था, तो बाद लम्बित नहीं माना जाएगा और ऐसी स्थिति में सम्पत्ति का अन्तरण इस नियम से प्रभावित नहीं होगा। इसी प्रकार यदि बाद उचित कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया था और कोर्ट ने वाद को समुचित या सक्षम कोर्ट में प्रस्तुत करने के लिए वापस कर दिया है तो सक्षम कोर्ट में प्रस्तुति की तिथि से हो वाद लम्बित माना जाएगा। सम्पत्ति का अन्तरण इस कालावधि में इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा।
यदि वाद अथवा कार्यवाही को अपर्याप्त स्टाम्प के साथ कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है और कोर्ट इस आधार पर आवेदन को इस निर्देश के साथ वापस कर देता है कि पर्याप्त स्टाम्प के साथ उसे प्रस्तुत किया जाए तो वाद लम्बित नहीं माना जाएगा किन्तु यदि कोर्ट आवेदन वापस करने के बजाय केवल यह निर्देश देता है कि उचित मात्रा में स्टाम्प आवेदन पर लगा दिया जाए तो वाद उसी प्रकार से लम्बित होगा जब से कोर्ट ने उसे स्वीकार किया था।
यदि वाद एक पक्षकार के कोर्ट में उपस्थित न होने के कारण खारिज हो जाता है और तत्पश्चात् वाद को पुनस्थापित करने के लिए आवेदन प्रस्तुत किया जाता है और कोर्ट इस आशय का आदेश दे देता है तो वाद उसी तिथि से लम्बित समझ लिया जाएगा जिस तिथि को कोर्ट ने पहली बार उसे विचारण के लिए स्वीकार किया था न कि उस तिथि से जिस तिथि को उसे पुनस्थापित करने का आदेश हुआ था अतः वाद खारिज होने और पुनस्थापित होने के बीच की कालावधि में सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा।
वहाँ तक वाद के संशोधन का प्रश्न है न्यायिक निर्णय एक मत के नहीं है। रंगास्वामी बनान उप्पराजों के वाद में यह मत व्यक्त किया गया था कि वाद पत्र में संशोधन, वाद दाखिल करने की तिथि से प्रभाव नहीं होगा किन्तु कुमार बनाम याग्निक के वाद में यह अभिनित हुआ था कि वाद-पत्र में संशोधन कर उसमें कतिपय सम्पत्तियों का उल्लेख करने के लिए प्रस्तुत आवेदन की तिथि तथा इस आशय हेतु कोर्ट द्वारा पारित आदेश के बीच सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा, क्योंकि संशोधन इसी तिथि से प्रभावी माना जाएगा जिस तिथि को आवेदन प्रस्तुत किया गया था।
अपील तथा निष्पादन की कार्यवाही किसी वाद के निरन्तरता की प्रतीक होती हैं। अत: इस कालावधि में सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा। परन्तु पुनर्विलोकन या पुनर्विचारण की कार्यवाही स्वतंत्र कार्यवाही होती है। वाद के निरन्तरता की प्रतीक नहीं है। अतः अंतिम आज्ञप्ति और उसके पुनर्विचारण के बीच की कालावधि में सम्पत्ति का अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित नहीं होगा। किन्तु यदि पुनर्विलोकन या पुनर्विचारण कार्यवाही प्रारम्भ हो चुकी है और उसके बाद सम्पत्ति अन्तरित हो रही है तो यह अन्तरण इस सिद्धान्त से प्रभावित होगा।
एक पत्नी ने अपने पति के माध्यम से, जिसके पास पावर ऑफ अटानी था, ने एक मकान रु० 30,000/- मात्र में बेचने की संविदा की। इसमें से रु० 5000/- का भुगतान उसे अग्रिम रूप में कर दिया गया तथा शेष रु० 25,000/- का भुगतान 31-7-1974 से पूर्व कर दिया जाना था। पर उक्त तिथि तक रकम भुगतान नहीं हो सका। पत्नी ने तत्पश्चात् उक्त सम्पत्ति को दूसरे क्रेता गुरुस्वामी नाडार को रु० 45,000/- में 15-5-1975 को बेच दिया। इसके साथ ही मकान का कब्जा भी गुरुस्वामी नाडार को दे किया गया।
किन्तु 3-5-1975 को प्रथम क्रेता ने संविदा के विशिष्ट अनुपालन हेतु वाद संस्थित कर दिया। इस वाद को विचारण कोर्ट ने खारिज कर दिया पर विचारण कोर्ट के आदेश को हाईकोर्ट की एकल पीठ ने पलट दिया तथा प्रथम क्रेता के पक्ष में आदेश पारित कर दिया। अपील में हाईकोर्ट की खण्डपीठ ने एकल पीठ के आदेश को खारिज कर दिया जिसके फलस्वरूप सुप्रीम कोर्ट में अपील विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से प्रस्तुत की गयी। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह विचारणीय प्रश्न है कि क्या द्वितीय अन्तरिती "लम्बित वाद" के सिद्धान्त से प्रभावित होगा।
कोर्ट ने यह अभिमत दिया कि क्योंकि द्वितीय विक्रय से पूर्व ही प्रथम क्रेता ने संविदा के विशिष्ट अनुपालन हेतु वाद संस्थित कर दिया था अतः द्वितीय विक्रय 'लम्बित वाद' के सिद्धान्त से प्रभावित होगा। प्रथम विक्रय पर यह अधिभावी प्रभाव प्रवर्तनीय नहीं होगा। इस वाद को निर्णीत करते समय कोर्ट ने आर० के० मोहम्मद ओबैदुल्ला एवं अन्य बनाम हाजी अब्दुल वहाब (मृ०) द्वारा विधिक प्रतिनिधि एवं अन्य को भी संज्ञान में रखा।
एक डॉ० एस० आर० बावा मकान नं० 169 खण्ड 11 क, चण्डीगढ़ के स्वामी थे। इस मकान के सम्बन्ध में संविदा के विशिष्ट अनुपालन हेतु दो वाद संस्थित किए गये। एक वाद वर्तमान अपीलार्थी द्वारा तथा दूसरा संजीव शर्मा नामक व्यक्ति द्वारा क्रमश: 20-11-1995 तथा 1-2-1996 को संस्थित (दायर) किए गए। कालान्तर में डॉ० बाबा एवं संजीव शर्मा के बीच एक सम्पत्ति डिक्री 19-2-2003 को पारित की गयी जिसके अनुसरण में डॉ० बावा ने पुनीत अहलूवालिया नामक व्यक्ति जो संजीव शर्मा का नामिनी था, के पक्ष में एक विक्रय विलेख निष्पादित किया। इन तथ्यों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने यह अभिनिर्णीत किया कि संजीव शर्मा यथा पुनीत अहलूवालिया के पक्ष में किया गया द्वितीय विक्रय लम्बित वाद के सिद्धान्त से प्रभावित होगा।
संजीव शर्मा एवं पुनीत अहलूवालिया के सन्दर्भ में यह समझा जाएगा कि उन्हें वर्तमान अपीलार्थी एवं डॉ० बावा के बीच लम्बित वाद की सूचना थी. इसके बावजूद भी उन्होंने द्वितीय विक्रय को प्रभावी कराया। अतः उनके पक्ष में हुआ विक्रय कोर्ट के निर्णय के अध्यधीन होगा। उन्हें सम्पत्ति में वैध अधिकार नहीं प्राप्त होगा। कोर्ट ने यह भी अभिप्रेक्षित किया कि सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 को धारा 52 तथा विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 19 के अन्तर्गत के आलोक में विक्रय विलेख का अपना स्वयं का प्रभाव होगा।
यदि बन्धक सम्पत्ति के मोचन हेतु वाद संस्थित किया गया है तथा वाद लम्बित है, विचाराधीन है, उसी समय बन्धकदार बन्धक सम्पत्ति की किसी अन्य व्यक्ति को बेच देता है और कालान्तर में उक्त वाद का निर्णय बन्धककर्ता के पक्ष में होता है तो सम्पत्ति का विक्रय अवैध माना जाएगा एवं प्रभावहीन होगा। यदि वाद लम्बे अन्तराल के उपरान्त निर्णीत होता है तो कोर्ट परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विक्रेता को आदेश कर सकेगा कि प्रतिफल की रकम क्रेता को वापस कर दी जाए अन्यथा क्रेता के साथ अन्याय होगा, बशर्तें क्रेता ने युक्तियुक्त सावधानी बरतते हुए उक्त सम्पत्ति को क्रय किया रहा हो।

