भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 9 : अधिनियम के अंतर्गत परितोषण क्या है

Shadab Salim

25 Aug 2022 4:43 AM GMT

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 9 : अधिनियम के अंतर्गत परितोषण क्या है

    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 7 रिश्वत के अपराध को विस्तारपूर्वक प्रावधानित करती है। शायद कोई ऐसा तथ्य रह गया है जिसे रिश्वत के अपराध के संबंध में पार्लियामेंट द्वारा छोड़ा गया हो। यह अधिनियम अपने आप में परिपूर्ण है। परितोषण शब्द के संबंध में न्यायालय समय समय पर अपने विचार देता रहा है। यह शब्द इस अधिनियम के अंतर्गत महत्वपूर्ण है। इस आलेख में इस ही शब्द पर चर्चा की जा रही है।

    परितोषण

    जहाँ तक 'परितोषण' शब्द का प्रश्न है, तो इसको भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में कही भी परिभाषित नहीं किया गया है। हालांकि दंड संहिता की धारा 161 अपने तृतीय पैराग्राफ में यह कथन करती है कि 'परितोषण' शब्द को धन के रूप में प्रगति करने योग्य परितोषण तक या धन संबंधी परितोषण तक ही नहीं प्रतिबन्धित किया जाता है कि कठोरता पूर्वक कहते हुए 'परितोषण' शब्द की एक परिभाषा नहीं होती है। इसकी शब्दावली अर्थ में, परितोषण' शब्द में सभी प्रकार की इच्छायें या अरमानों का संपूर्ण समाधान शामिल है।

    इसके अतिरिक्त ऐसे किसी भाव में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 में कथित शब्द का प्रयोग किया जाता है जो प्राप्तकर्त्ता को संतोष प्रदान करता है। इसलिए एक लोक सेवक द्वारा धन की एक रकम या एक मूल्यावान वस्तु की स्वैच्छिक स्वीकृति परितोषण की स्वीकृति का अर्थ रखेगी।

    राज्य बनाम पुंडलीक अहिर, ए आई आर 1959 बम्बई क्रि लॉ ज 1921 के विनिश्चय का अनुसरण किया गया है

    यदि विधानमंडल का आशय मात्र घन संदाय करना था तो यह घूस के सबूत के एक लोकसेवक को यह साबित करना होता है कि उसने कोई रिश्वत नहीं प्राप्त की रूप में है अर्थात् साबित करके का भार इस प्रकार से एक लोकसेवक के ऊपर ही चला है। कारण कि रिश्वत के रूप में इसका कोई कारण नहीं होता है कि क्यों, परितोषण शब्द का प्रयोग भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 4 (1) के प्रथम भाग में प्रयोग किया जाना चाहिए। यदि विधान मंडल का ऐसा ही आशय था, तो 'परितोषण' शब्द के स्थान पर 'धन' शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए।

    'परितोषण' शब्द का प्रयोग ऐसे किसी अर्थ में व्यक्त करने वाले के रूप में इसके व्यापक भाव में किया जाता है जो मानसिक इच्छा या 'परितोषण' संतुष्टीकरण या सुख प्रदान करने का भाव रखता है। वास्तव में धन उतना अधिक सुख प्रदान करने का श्रोत है।

    जितना कि ऐसी किसी चीज पर आदेश को विवक्षित करता है जो सुख देता है लेकिन ऐसे अनेक दूसरे उद्देश्य होते हैं जो 'परितोषण' से संबंध रखते है किसी एक की इच्छाओं का समाधान चाहे वह शारीरिक या मानसिक हो, शब्द के वास्तविक भाव में एक 'परितोषण' ही है। एक अवैतनिक विशेषता के लिए या लैंगिक सम्भोग के लिए खोज करना मानसिक एवम् शारीरिक इच्छाओं एक उदाहरण है, जिसका समाधान धन के रूप में प्राकलित करने योग्य 'परितोषण' नहीं होता है।

    एक व्यक्ति अपने पुत्र की शादी एक दूसरे व्यक्ति की पुत्री से करने की इच्छा कर सकता है जो उसको कुछ साशकीय कृपा प्रदान करने में स्वमेव द्वारा प्रस्तुत की गयी शर्त के समाधान हो जाने पर सहमति प्रदान कर सकता है। यह संव्यवहार भी रिश्वत की कोटि में आता है। यदि एक व्यक्ति उसके पुनः प्रवेश के लिए एक हेतुक या परितोषण के रूप में एक शासकीय कार्य को करने का वचन दे सकता है तो यह रिश्वत संक्षेपतः परितोषण एक कार्यालय में किसी एक के दुर्व्यवहार में किसी एक के प्रभाव के परिणामस्वरूप दिया गया परितोषण या किसी प्रकार का लाभ है और यह ईमानदारी एवम् सत्यनिष्ठा के नियमों के विरुद्ध किसी एक व्यक्ति को कार्य करने के मोड़ता है।

    यहाँ तक भोजन कराने के दावत देना, फलों से युक्त एक टोकरी की भेंट एवम् दवायें उपलब्ध कराना भी एक प्रकार का परितोषण है, हालांकि इन सभी भेंटो को प्राप्त करने वालों को उनके परिणामस्वरूप दंडित नहीं किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त यदि किसी लोक सेवक द्वारा धन की माँग या अनुनय किया जाता है तो यह संव्यवहार भारतीय दंड संहिता की धारा 161 के अधीन एक अपराध के कारित किये जाने का अर्थ रखता है।

    एक मामले में कहा गया है कि जब उस कतिपय माल के लिए एक रेलवे कर्मचारी ने एक रेलवे की पावती या रसीद की तैयार कर चुका था जिसका समनुदेशन किया गया और तदुपरान्त या इनाम के रूप में कुछ धन का संदाय उसको किया जा चुका था, तब यह प्रेक्षण किया गया कि यदि तथ्यों से यह पता भी चल जाय कि एक छोटी सी रकम जिसे अभियुक्त के पास छोड़ दिया गया था।

    उसे अभियुक्त के कब्जे से बरामद किया जाय तो इस प्रश्न के होते हुए भी कि क्या उसने एक लोक सेवक की हैसियत से भ्रष्ट या अवैधानिक साधनों में या अन्यथा अपनी स्थिति का दुरुपयोग करके उस छोटी सी रकम को स्वतः के लिए प्राप्त किया था या नहीं? तो इस मामले में जिस व्यक्ति द्वारा धन छोड़ा गया उसके स्वयं के कथनानुसार अपने कार्य में उसके द्वारा सुविधा उपलब्ध कराये जाने के लिए रेलवे सेवकों को एक छोटी सी भेंट मात्र देने की बात थी जिसके वे आदी हो चुके थे।

    अभियुक्त ने जमानत को मंजूर करने के संपूर्ण कार्य को समाप्त करने के पहले अनुतोष या रिश्वत या 'परितोषण' के माध्यम से किसी रकम की माँग किये बिना ही परिवादी को जमानत मंजूर कर दी, लेकिन तदुपरान्त टिप (Tips) की उस कार्य के लिए उसके द्वारा माँग की गयी जिसे उसने परिवादी के लिए किया। यह अभिनिर्धारित किया गया कि यह सत्य है कि कार्य करने के पश्चात् टिप (Tips) या इनाम की माँग करने की आदत को संभवत: प्रोत्साहित किया जा सकता है लेकिन यह निर्णीत करना कठिन होता है कि यह भारतीय दंड संहिता की धारा 16 के अधीन एक अपराध का गठन करेगा।

    यदि भारतीय दंड संहिता की धारा 161 के पैरा 3 को पढ़ा जाय तो यह स्पष्ट हो अतएव जाता है कि (परितोषण) शब्द को धन संबंधी 'परितोषण' या वे 'परितोषण' जिन्हें धन के रूप में प्राकलन करने योग्य प्रतिभूति तक ही नहीं प्रतिबंधित किया जा सकता यह कहा जा सकता है कि अधिनियम की धारा 20 की उपधारा 4 (i) में वर्णित 'परितोषण' शब्द को मात्र धन के संदाय तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है। जिस किसी तथ्य को एक अभियुक्त के विरुद्ध उपधारणा के उद्देभूत होने के लिए न्यायालय से याचना करने के पहले साबित करना होता है, वह यह कि अभियुक्त व्यक्ति ने विधिक पारिश्रमिक से भिन्न 'परितोषण' प्राप्त किया है।

    यदि यह प्रदर्शित कर दिया जाता है कि अभियुक्त ने कथित धनराशि को प्राप्त किया है और कथित रकम या धनराशि कोई विधिक पारिश्रमिक नहीं थी तो धारा द्वारा विहित शर्त का समाधान कर दिया जाता है। एक लोक सेवक द्वारा प्राप्त करने योग्य तथा उसको विधिक रूप से बतौर पारिश्रमिक संदेय होने के प्रसंग में यह अभिनिर्धारित करने में कोई कठिनाई नहीं होती है कि जहाँ ऐसे लोकसेवक द्वारा धन का संदाय किया जाना प्रदर्शित कर दिया जाता है और या उसके द्वारा प्राप्त कर लिया जाता है तथा कवित धन उसकी विधिक पारिश्रमिक का गठन नहीं करता है, वहाँ उपचारण ठीक उसी प्रकार से की जानी होती है जैसे की धारा द्वारा अपेक्षित हो।

    यदि 'प्रतितोषण' शब्द का अर्थान्चयन एक रिश्वत माध्यम से संदाय किये गये धन का अर्थ लगाने के लिए किया जाता है, तो ऐसी उपधारणा को उद्भूत करने लिए प्रावधान करना निरर्थक होगा।

    तकनीक तौर पर इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यह सुझाव जा सकता है कि उद्देश्य जिसे कानूनी उपधारणा इस संरचना पर तामील करती है, वह यह कि न्यायालय तभी यह उपधारणा कर सकेगा कि धन का संदाय संहिता की धारा 161 यथा-अपेक्षित तक हेतुक या इनाम के रूप में एक रिश्वत के माध्यम से किया गया। अधिनियम की धारा 4 (1) के अधीन कानूनी उपधारणा का उल्लेख करने में विधायिका का वही उद्देश्य या आशय हो सकता था। इस प्रसंग में इसके शाब्दिक अर्थ के अनुसार 'परितोषण' शब्द का अर्थ न प्रदान करने में कोई न्यायनुमोदन नहीं है।

    इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कि क्या एक विशेष वचन या कार्य अधिनियम के अर्थ के अन्दर 'परितोषण' का अभिप्राय रखता है या नहीं, के लिए दो परीक्षण किये जाने होते हैं- प्रथम यह कि 'परितोषण' को अवश्यमेव ऐसी वस्तु के रूप में होना चाहिए जिसकी व्यक्ति के उद्देश्य या इच्छा या लक्ष्य का समाधान करने के लिए गणना की जाती है। दूसरे, इस प्रकार के 'परितोषण' का अवश्यमेव कुछ मूल्य होना चाहिए, हालांकि यह आवश्यक नहीं होता है कि वह ऐसी कोई वस्तु हो जिसका प्राकलन धन के रूप में किया जा सके।

    'परितोषण' शब्द एक ऐसा शब्द है जिसे न तो भारतीय दंड संहिता में न तो भष्टाचार निवारण अधिनियम में ही कही परिभाषित किया गया है। परन्तु 'परितोषण' शब्द को इसके भाव में उस स्पष्टीकरण द्वारा विस्तारित किया जाता है जो यह कहती है कि प्रश्नगत शब्द को "धनीय 'परितोषण' या धन के रूप में प्राकलित करने योग्य 'परितोषण' तक प्रतिबंधित नहीं किया जाता है।" अर्थात् 'परितोषण' शब्द को इसके शाब्दिक अर्थ तक शब्दावली के अनुसार विस्तारित किया जा सकता है।

    किशोर भक्तानी बनाम स्टेट आफ राजस्थान, 2009 क्रि लॉ ज 1172 के मामले में यह अभिकथन किया गया कि षड्यंत्र के अनुसरण में बी एस एन एल के याची कर्मचारियों ने अपने अस्पताल के पैनल में सम्मिलित होने के लिए परिवादी से रिश्वत की मांग की तथा उसको प्रतिगृहीत किया। याचियों के विरुद्ध संतोषजनक साक्ष्य था और इसलिए विचारण न्यायालय ने साक्ष्य का मूल्यांकन करने के पश्चात् आरोप विरचित किया और भारतीय दंड संहिता की धारा 120ख सपठित अधिनियम की धारा 7 एवं 13(1) (घ) की सहायता से आरोप को विरचित करने का आदेश उचित माना गया।

    एम एम चन्द्रन बनाम राज्य, 2003 क्रि लॉ ज 3376 (मद्रास) के मामले में क्योंकि अभियोजन ने यह स्थापित कर दिया कि मुख्य अभियुक्त अपने शासकीय कर्तव्य के निर्वहन में एक अवैध परितोषण के रूप में परिवादी से 500/- रुपये की मांग की थी अतएव, मुख्य अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित थी।

    दर्शनलाल नाम स्टेट, 2006 क्रि लॉ ज 402 (जम्मू एवं काश्मीर के मामले में अभिकथित मांग द्विवार्षिक हाई स्कूल परीक्षा से प्रवेश के निवेदन के लिए गत फीस के बहाने पर की गयी थी आवेदनपत्र के पृष्ठ पर अभियुक्त के हस्ताक्षर के बारे में हस्तलेख विशेषज्ञ से किसी सम्पुष्टि के बिना परिवादी का एकमात्र साक्ष्य था। यह दोषसिद्धि के लिए आधार की विरचना नहीं कर सकता था। जब ऐसे मामले में परिवादी धारा 165 क भारतीय दंड संहिता को ध्यान में रखते हुए एक सह-अपराधी था।

    जब एक लोक सेवक के कब्जे में फिनाल्फेथिलिन पाउडर से युक्त करेंस नोटे पायी गयी तब अवैध पारितोषण को ग्रहण करने उपधारणा उसके विरुद्ध की जा सकती है।

    जहां इस अभिकथन को सह-अभियुक्त के परिसाक्ष्य द्वारा साबित कर दिया गया कि अभियुक्त तथा सह-अभियुक्त दोनों ने परिवादी को रोजगार उपलब्ध कर पाने के लिए धन/रकम की मांग की थी जैसा कि इस षड्यंत्र के मामले में सह-अभियुक्त की न्यायातिरिक्त संस्वीकृति से स्पष्ट था वहां कथित न्यायातिरिक्त संस्वीकृति साक्ष्य अधिनियम की धाराएं 10 एवं 30 के अधीन उपरोक्त सह-अभियुक्त तथा अभियुक्त दोनों के विरुद्ध प्राह्य मानी गयी।

    के मनी नाम इनस्पेक्टर ऑफ पुलिस स्पेशल सी बी आई कोची, 2016 लॉ ज 1644 (केरल) के मामले में जहां यह अभियुक्त व्यक्तियों के विरुद्ध अभिकथन था कि उन्होंने साक्ष्य अधिनियम की धाराएं 10 एवं 30 को ध्यान में रखते हुए उसको रोजगार प्रदान करने के लिए परिवादी से रकम प्राप्त की थी वहां परिवादी के भवन जाने और उसको रोजगार देने के लिए दोनों अभियुक्तों की ओर ले जाने वाली परिस्थितियों के अपनी पुत्री से दूसरी अभियुक्त की गयी न्यायातिरिक्त संस्वीकृति को न केवल दूसरे अभियुक्त के विरुद्ध ग्राह्य माना गया। अपितु पड्यंत्रकारी और परिवादी से पहले मांग करने के तथ्य को भी साबित करने के लिए प्रथम अभियुक्त के विरुद्ध भी।

    हेतुक या परितोषिक का अर्थ

    मात्र धन की स्वीकृति ही इस धारा के अधीन परितोषण नहीं हो जायेगी। इस प्रसंग में एक शासकीय कार्य के लिए एक हेतुक या परितोषिक को विद्यमान होना चाहिए। अतएव यदि एक व्यक्ति एक ऐसे कार्य को करने के लिए एक हेतुक या परितोषिक के रूप में धन स्वीकार करता है जिसे एक शासकीय कार्य कहा जा सकता है, तो वह इस धारा के अधीन एक अपराध को कारित करने का दोषी नहीं माना जायेगा।

    वाक्यांश में 'परितोषिक' शब्द प्रत्यक्षतः एक गत सेवा के प्रति लागू होने के लिए आशयित है जिस बात को साधारण तौर पर छिपाया जाता है, वह किसी भी कार्य कराने के लिए एक हेतुक या 'पारितोषिक' के रूप में कोई 'परितोषण' प्राप्त करना है। जिसे परिभाषा में उल्लिखित किया गया है इसके अलावा अन्य कोई धारणा होगी। उपर्युक्त दृष्टिकोण से संदाय तभी एक रिश्वत होगी यदि यह शासकीय कार्य के किए जाने या उसकी कृपा प्राप्त कर लिए जाने के पश्चात् संदाय की गयी हो।

    ऐसी दशा में शासकीय कार्य के किए जाने या संबंधित व्यक्ति का पक्षपात किए जाने के पश्चात् तत्काल संदाय के लिए अनुबंध करने के लिए इस प्रकार की एक स्थिति में एक व्यक्ति के लिए बड़ा आसान होगा लेकिन इसकी रचना दंड संहिता की राय गठित करेगा।

    दीपचन्द जाटराम बनाम राज्य, ए आई आर 1966 पंजाब 302 1966 क्रि लॉ ज 796 के मामले में अभियुक्त एक पुलिस कान्सटेबिल पुरस्कार के माध्यम से किसी भी रकम की माँग किस बिना ही जमानत मंजूर कर दी और न ही वैसा करने के मामले में किसी भी रिश्वत की भेंट द्वारा उसे प्रेरित किया गया और यही केवल पश्चातवर्ती मामला पैदा हुआ कि उसने एक छोटी सी भेंट के लिए कहा जिसे उसे दिया गया, वहाँ यह अवधारित किया गया कि अभियुक्त की कार्यवाही भारतीय दंड संहिता की धारा 161 के अधीन किसी भी अपराध का गठन नहीं करती थी।

    इसमें आगे यह भी अभिनिर्धारित किया गया कि कार्य करने के पश्चात् इनाम या भेंट की मांग करने की आदत को संभवतः प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता है किन्तु यह निर्णीत करना बड़ा कठिन है कि यह भारतीय दंड संहिता की धारा 161 के अधीन किसी भी अपराध का गठन करेगा।

    यदि साक्ष्य यह प्रदर्शित करता है कि न तो अभियुक्त उन व्यक्तियों का कोई शासकीय कृपा को प्रदर्शित करने के लिए आशक्ति जिससे वे धन मूल्यवान वस्तुयें बलात् ग्रहण किये और न ही उन सभी व्यक्तियों ने उनसे कोई शासकीय कृपा प्राप्त करने की प्रत्याशा को ले धारा 161 की या तो भाषाओं या विचार को दृष्टिगत रखते हुए की जानी चाहिए।

    भारतीय दंड संहिता की धारा 161 को न केवल उन मामलो तक सीमित किया जा सकता है जिनमें अवैध 'परितोषण' एक शासकीय कार्य करने के लिए लिया जाता है बल्कि किसी एक लोक सेवक साथ कोई सेवा प्रदान करने या प्रदान करने का प्रयास करने के लिए एक हेतुक या पुरस्कार के रूप में विधिक पारिश्रमिक से भिन्न किसी भी परितोषिक को स्वीकार करना भी इस धारा के अधीन एक अपराध माना जायेगा।

    एक व्यक्ति को उसके शासकीय कृत्य के अभ्यास का स्वतन्त्रपूर्वक दोषी इस धारा के अधीन भी हो सकता है, यदि वह किसी दूसरे लोक सेवक के साथ कोई सेवा करने के लिए या सेवा करने का प्रयास करने के लिए एक पुरस्कार प्राप्त करता है।

    इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक लोक अधिकारी के पास कोई रिश्वत मांगने क अधिकार नहीं होता है बल्कि जब उसे एक दांडिक न्यायालय के समक्ष अवैध 'परितोषण' के ग्रहण किये जाने से संबंधित एक आरोप का उत्तर देने के लिए समन किया जाता है तो जहाँ तक इस मुद्दे की प्रासंगिकता का सवाल उठता है कि क्या एक दम घूस प्रश्नगत मामले से भिन्न निर्णय दिया गया।

    नित्यानंद प्रेमलाल बनाम राज्य, ए आई आर 1954 पंजाब 89, क्रि लॉ ज 545 के मामले में जहां एक रेलवे कर्मचारी ने कतिपय उन मामलों के लिये एक रेलवे रसीद तैयार किया या जिन्हें समनुदेशित किया और इनाम के रूप में बाद में, उसे कुछ धन दिया गया वहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि तथ्यों से यह भी प्राप्त हो कि वह छोटा सी रकम जिसे अभियुक्त के पास छोड़ दिया गया था।

    उसके कब्जे से उसे बरामद किया जा चुका था, तो ऐसी दशा में भी इस बात के होते हुए भी कि क्या उसने एक लोक सेवक की हैसियत से भ्रष्ट या अवैधानिक साधनों से या अन्यथा अपनी स्थिति का दुरपयोग करके धन की उस छोटी सी रकम को स्वयमेव प्राप्त किया था या नहीं। इसके अतिरिक्त मान लें कि कथित रकम को एक ऐसे व्यक्ति द्वारा छोड़ दिया गया है जिसने अपनी इच्छा से उसे अनुदत किया, और अपने काम को आसानी से कराने के लिए रेलवे सेवकों को छोटी सी कम को भेंट करने का आदी हो गया था।

    नित्यानंद प्रेमलाल बनाम राज्य, ए आई आर 1954 पंजाब 89, क्रि लॉ ज 545 के एक प्रकरण में एक लोक सेवक को किसी एक धनराशि का भुगतान चाहे शासकीय कार्य कराने के पहले या कराने के बाद किया गया हो फिर भी वह भारतीय दंड संहिता की धारा 161 के अधीन एक रिश्वत के अपराध के संदाय या स्वीकार का कोई हेतुक अस्तित्वशील था या नहीं? तो यह एक निश्चित तौर पर सुसंगत एवम् विचार करने के लिए एक महत्वपूर्ण मामला है।

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