भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 7 : विशेष न्यायाधीश की क्षमा प्रदान करने की शक्ति

Shadab Salim

22 Aug 2022 5:06 AM GMT

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 7 : विशेष न्यायाधीश की क्षमा प्रदान करने की शक्ति

    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 5 में विशेष न्यायाधीश की शक्तियों और अधिकार का उल्लेख है। इन अधिकारों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकार आरोपियों को क्षमा प्रदान करने का अधिकार है। यह अधिकार इस अधिनियम में विशेष रूप से उल्लेखित किया गया है। यहां एक विशेष न्यायाधीश भ्रष्टाचार अधिनियम के अधीन आरोपी बनाए गए व्यक्ति को अभियोजन की सहायता करने की शर्त पर क्षमा प्रदान कर सकता है। इस आलेख में विशेष न्यायाधीश की इस ही शक्ति पर चर्चा की जा रही है।

    विशेष न्यायाधीश की क्षमा प्रदान करने की शक्ति

    जहाँ अभियुक्त की ओर से किसी भी मामले में अपराध के दोषमार्जन करने की याचना की जाती है, वहां मजिस्ट्रेट या विशेष न्यायाधीश को संबंधित मामले के तथ्यों एवं उसकी परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए स्वविवेक का प्रयोग करके क्षमा प्रदान करना चाहिए। हालांकि इस प्रकार की प्रणाली को टालना चाहिए।

    जहाँ यह प्रश्न उद्भूत हुआ कि क्या दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन पूर्व संस्वीकृति अपराधी को क्षमा प्रदान करने से विशेष न्यायाधीश की अदालत को अनधिकृत कर देगी या नहीं? इस प्रश्न का विचारण केरल उच्च न्यायालय ने आर आर नैय्यर बनाम पुलिस अधीक्षक, (1981 क्रि लॉ ज 1424] पास्कल फर्नांडीज के मामले में विशेष न्यायालय ने सह अभियुक्तों में से एक अभियुक्त को क्षमा प्रदान किये जाने का आदेश पारित किया और इसके आलावा एक विशेष अभियुक्त द्वारा प्रस्तुत किये गये विश्वास पर तथा अभियोजक द्वारा बिना किसी अनुरोध के दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन उसके कथन को लेखबद्ध किये जाने का निर्देश दिया।

    इतने पर भी, जब मामला उच्च न्यायालय के समक्ष विचारणार्थं प्रस्तुत किया गया, तब, लोक अभियोजक ने समावेदन में भाग लिया और इसलिये आदेश की पुष्टि कर दी गयी। उच्चतम न्यायालय ने क्षमा प्रदान करने के लिये सर्वप्रथम विशेष न्यायालय की शक्ति पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया और उस भूमिका पर विशेष जोर दिया जिसे लोक अभियोजक द्वारा इस प्रकार के मामले में अदा करनी पड़ती है। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रश्नगत विवाद को अवधारित नहीं किया फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने निम्नलिखित प्रेक्षण किया

    दण्ड विधि संशोधन अधिनियम की धारा 8 समर्थ बनाने वाली है। बिना इसका आश्रय लिये ही एक अभियुक्त व्यक्ति को किसी दूसरे अभियुक्त के विरुद्ध एक ही मामले में बतौर साक्षी परीक्षित नहीं किया जा सकता है। यह अवधारित करना कि एक स्वीकृतकर्ता होने के रूप में अभियुक्त का साक्ष्य न्याय के हित को अग्रसारित करने की सम्भावना रखता है, विशेष न्यायाधीश के समक्ष यह प्रदर्शित करने के लिए अवश्यमेव कुछ तात्विकता होनी चाहिए कि साक्ष्य की क्या प्रकृति होगी।"

    गागूज के मामले में (1975 क्रि लॉ ज 670) गुजरात उच्च न्यायालय की एकल खण्डपीठ ने उस मजिस्ट्रेट द्वारा प्रदान किया गया क्षमा की वैधानिकता पर विचार किया जिसने संहिता की धारा 164 के अधीन स्वीकृतिकर्ता के कथन को लेखबद्ध किये जाने का निर्देश दिया था।

    उच्च न्यायालय ने इस मामले में जो विवाद पैदा हुआ उसे निर्णीत नहीं किया। लेकिन धारा 337 (संहिता की धारा 306 के समानान्तर) के अधीन एक मजिस्ट्रेट द्वारा अभिलिखित एक कथन की ग्राह्यता को निर्देशित करते हुए, संहिता की धारा 336 के निर्देश के साथ, विशेष न्यायाधीश ने निम्नलिखित प्रेक्षण किये लेकिन यह इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये यह आवश्यक नहीं होता है कि एक साक्षी के रूप में एक अभियुक्त के परीक्षित किये जाने के पूर्व एक कथन को अभिलिखित किया जाना चाहिए। उपधारा (2) में प्रयुक्त कथन शब्द आवश्यक तौर पर संहिता की धारा 164 के अधीन अभिलिखित किये गये एक कथन का अर्थ रखेगा तथा यह उसे क्षमा प्रदान किये जाने के पश्चात् एक मजिस्ट्रेट द्वारा अभिलिखित किये गये कथन का भी अर्थ नहीं रखेगा।

    साक्ष्य अधिनियम की धारा 30 यह कथन करती है कि जहाँ एक से अधिक अभियुक्तों का विचारण एक ही अपराध के लिये संयुक्त रूप से किया जाता है और उनमें से एक अभियुक्त द्वारा की गयी संस्वीकृति जो कि स्वयमेव उसको तथा सहअभियुक्त को प्रभावित करने वाली होती है, को साबित कर दिया जाता है, वहाँ न्यायालय उस व्यक्ति के साथ-साथ दूसरे ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध ऐसी संस्वीकृति को विचारणार्थं ग्रहण कर सकता है। संहिता की धारा 164 उसमें उपबंधित तरीके से एक सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा लेखबद्ध किये जाने वाली संस्वीकृति को प्राधिकृत कर देती है।

    दोनों प्रावधानों को एक साथ पढ़ने से यह तर्क करने की गुंजाइश पैदा हो जाती है कि इस मामले में अभियुक्त क्रमांक 5 एवं 6 की संस्वीकृति जिसे संहिता की धारा 164 के अधीन सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा पहले से ही लेखबद्ध किया जा चुका है, उसका प्रयोग विशेष न्यायाधीश द्वारा अभिनिर्धारित किये जाने वाले विचारण में अभियुक्त के विरुद्ध बतौर साक्ष्य प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है और इसलिये समवर्ती सम्पूर्ण परिस्थितियों का पूर्ण एवं सत्य प्रकरण को उद्धृत करने वाली तात्विकता न्यायालय के समक्ष पहले से ही उपलब्ध थी। परिणामस्वरूप व्यक्ति का साक्ष्य लेने के एक दृष्टिकोण से क्षमा प्रदान करने वाले विशेष न्यायाधीश का कोई प्रश्न ही नहीं उठता और इसी वजह से क्षमा प्रदान करने की अधिकारिता का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

    हालांकि सामान्य भाव में एक पूर्व संस्वीकृति को साक्ष्य कहा जा सकता है फिर भी भारतीय साक्ष्य अधिनियम में इसे बतौर साक्ष्य परिभाषित नहीं किया जाता है इस दृष्टिकोण को साक्ष्य अधिनियम की धारा 133 द्वारा मजबूती प्रदान की गयी है जिसका अर्थ यह होता है कि एक सहअभियुक्त का साक्ष्य (इकबाली साक्षी का साक्ष्य जिसे वह न्यायालय में प्रस्तुत करता है उसे सहअभियुक्त का साक्ष्य कहते हैं।) सारभूत साक्ष्य होता है और हालांकि मनघडंत प्रकृति का होने के बावजूद भी जिसे धारा 3 में परिभाषित किया गया।

    काश्मीर सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए आई आर 1952 उच्चतम न्यायालय 159 क्रि लॉ ज 839 के मामले के अभिनिर्धारणों के अनुसार यह नहीं कहा जा सकता है कि अभिलेख में अभियुक्त क्रमांक 5 एवं 6 के इकबालिया कथनों के कारण, उनके साक्ष्य न्यायालय में उपलब्ध हैं।

    अधिनियम की धारा 8 को स्पष्ट रूप से पढ़ने से यह प्रदर्शित नहीं होता है कि जहाँ एक अभियुक्त की पूर्व संस्वीकृति एक मामले में सुलभ होती है वहाँ यह उसे क्षमा प्रदान करने से विशेष न्यायालय को अनधिकृत कर देगी। क्षमा उस व्यक्ति के साक्ष्य को प्राप्त करने के दृष्टिकोण से मात्र प्रदान किया जा सकता है। यहाँ एक अभियुक्त का साक्ष्य प्राप्त करने का अर्थ "न्यायालय में उसके मौखिक साक्ष्य को प्राप्त करना होता है।" यही कारण है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 306 का उपखण्ड (4) यह अपेक्षा करता है कि क्षमा प्राप्त करने के बाद अभियुक्त को न्यायालय में बतौर साक्षी परीक्षित किया जायेगा। क्षमा प्रदान करने में न्यायालय का उद्देश्य मात्र उसके साक्ष्य को प्राप्त करना होता है।

    यह कि संहिता की धारा 306 (4) के अधीन एक साक्षी के हैसियत से न्यायालय में उसके परीक्षण का कथित साक्ष्य परिणाम होता है। इसका अर्थ न्यायालय में उसका अभिसाक्ष्य माना जाता है जब इसका उद्देश्य इस प्रकार का होता है तब यह नहीं कहा जा सकता है कि ऐसे एक व्यक्ति द्वारा पूर्व संस्वीकृति की जानी चाहिए। अधिनियम की धारा 8 या संहिता की धारा 306 यह नहीं प्रदर्शित करती है कि जहाँ संस्वीकृति पहले से ही की गयी होती है, वहाँ, क्षमा प्रदान करने के लिए न्यायालय की अधिकारिता नहीं होगी या छीन ली गयी होगी। यह सत्य है कि कानून के इन सभी प्रावधानों के अधीन क्षमा ही नहीं प्रदान की जाती है, वहाँ लिखित तौर पर या तो न्यायिक या बाह्य न्यायिक या मौखिक, पूर्व संस्वीकृति संहिता तथा साक्ष्य अधिनियम द्वारा अनुध्यात किये गये तरीके से प्रयोग किये जाने के लिए उपलब्ध होती है।

    संस्वीकृति भूतलक्षी प्रयोग के लिए भी उपलब्ध होती है। विधि के इन सभी प्रावधानों का कोई भी निर्देश पूर्ववर्ती संस्वीकृति के प्रति नहीं होता है। विधायिका के इन सभी उल्लिखित प्रावधानों का आशय सहअभियुक्त के साक्ष्य को प्राप्त करना होता है और वह न्यायालय में सह अभियुक्त का मौखिक साक्ष्य होता है। यह तथ्य कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के अधीन एक संस्वीकृति को पहले से ही लेखबद्ध किया जाता है, को क्षमा प्रदान करने के विरुद्ध एक मूल्यांकन करने वाले कारक के रूप में नहीं माना जा सकता है।

    क्षमा प्रदान करने के विरुद्ध मूल्यांकन करने वाले एक कारक होने के कारण या क्षमा प्रदान करने के लिए न्यायालय में अधिकारिता के अभाव को विवक्षित करने वाली एक पूर्वं संस्वीकृति से दूर इन सभी प्रावधानों की पृष्ठिभूमि तथा उच्चतम न्यायालय के प्रेक्षणों के रूप में प्रक्रिया का अनुसरण किया जाना तथा गुजरात उच्च न्यायालय ने जो उपरोक्त उद्धरण प्रस्तुत किये, वह यह प्रदर्शित करेगा कि यह वांछित है कि सहअभियुक्त का एक कथन अभियोजक को यह सोचने के लिए न केवल समर्थ बनाता है कि क्या क्षमा प्रदान किये जाने के लिए अवश्यमेव अनुरोध करना चाहिए या क्षमा के लिए सहअभियुक्त के अनुरोध को सम्मिलित करने के लिए अनुरोध करना चाहिए बल्कि प्रतिरक्षा के हितों की सुरक्षा करनी चाहिए जो द्वारा ऐसी परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त करता है जिसकी इकबालिया साक्षी से न्यायालय में कथन करने की अपेक्षा की जाती है।

    यदि उपरोक्त प्रयोजनों के लिए इस प्रकार की एक संस्वीकृति का वह अस्तित्व नहीं हो सकता है जो न्यायालय को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 306 के अधीन अधिकारिता का प्रयोग करने से न्यायालय को अनधिकृत कर देगा या क्षमा प्रदान करने के लिए एक नकारात्मक कारक होगा।

    राज्य बनाम हंसराज, 1982 क्रि लॉ ज 517 (पंजाब) के मामले में विशेष न्यायाधीश उसके समक्ष एक मामले से उद्भूत होने वाले एक विधिक प्रश्न पर एक निर्देश देने के लिए सक्षम है। धारा 5 की उपधारा (3) की दृष्टिकोण से कानूनी दृष्टिकोण से, विशेष न्यायालय को न्यायाधीश जिसकी नियुक्ति उपधारा 3 (क) या कोई अन्यविधि में निष्कर्षित अपवादों का वर्णन करने वाली सत्र न्यायालय के समान होने वाली पूर्णतया दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम के अधीन की गयी होती है। वैसा होने के कारण. यह दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम के उस प्रावधान के समान उपधारा (3) द्वारा समान रूपेण जो प्रावधान किया जाता है, वह उपधारा (1) एवं (2) के प्रावधानों के अध्यधीन लागू होंगे।

    परिणामस्वरूप दोनों संविधियों के बीच असंगति नहीं होती है और न ही जहाँ तक उच्च न्यायालय की विशेष न्यायाधीश द्वारा कानून के प्रश्न के निर्देश का संबंध है, तो किसी भी ढंग से धारा 5 की उपधारा (1) एवं (2) के प्रावधानों की सुरक्षा करने वाले हो होते हैं। परिणामस्वरूप यह इसका अनुसरण करेंगे कि विशेष न्यायाधीश को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 395 (2) द्वारा एक सत्र न्यायालय की शक्तिया प्राप्त हो जायेंगी और इसलिए वैधानिकता कानून की एक बिन्दु पर एक निर्देश दे सकता है।

    क्षमा देने की शक्ति विशेष न्यायाधीश को अभियोजन पक्ष की ओर से प्रारम्भ होती है और वह अपने आप स्वयं नहीं देता अपितु अभियोजन पक्ष की ओर से किसी अभियुक्त की बावत क्षमा प्रदान करने का आवेदन अभियोजन पक्ष की ओर से नहीं दिया जाता वहाँ विशेष न्यायाधीश क्षमा प्रदान करने में सक्षम नहीं है।

    जब किसी अभियुक्त को क्षमा दिए जाने से संबंधित विचार किया जाता है तो माफी देने के लिए यह आवश्यक है कि माफी देने वाले अभियुक्त का बयान विशेष न्यायाधीश के समक्ष होना चाहिए।

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