भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 6: विशेष न्यायाधीशों के अधिकार और प्रक्रिया

Shadab Salim

20 Aug 2022 8:37 AM GMT

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 भाग 6: विशेष न्यायाधीशों के अधिकार और प्रक्रिया

    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम,1988 (Prevention Of Corruption Act,1988) की धारा 5 विशेष न्यायाधीशों को कुछ अधिकार देती है और उनकी प्रक्रिया के संबंध में प्रावधान करती है। हालांकि किसी भी आपराधिक प्रकरण का विचारण दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार किया जाता है लेकिन कुछ विशेष आपराधिक कानून ऐसे हैं जो कुछ मामलों में विशेष प्रक्रिया देते हैं जो दंड प्रक्रिया संहिता से थोड़ी भिन्न होती है।

    ऐसा इसलिए किया गया है कि विशेष कानूनों के अधीन होने वाले प्रकरणों में विचारण शीघ्र किया जा सके और विशेष न्यायाधीशों को किसी बात की कठिनाई नहीं हो। इस आलेख में धारा पांच पर अदालती निर्णयों के साथ टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

    धारा 5

    विशेष न्यायाधीश के अधिकार एवं प्रक्रिया -

    (1) विशेष न्यायाधीश किन्हीं अपराधों का संज्ञान उसे विचारण के लिए अभियुक्त की सुपुर्दगी के बिना कर सकता है और विचारण के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट मामलों के विचारण के लिए विनिर्दिष्ट प्रक्रिया अपनाएगा।

    (2) विशेष न्यायाधीश अपराध से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध किसी व्यक्ति का साक्ष्य अभिप्राप्त करने की दृष्टि से उस व्यक्ति को इस शर्त पर क्षमादान कर सकता है कि वह अपराध के सम्बन्ध में और उसके किए जाने में चाहे कर्ता या दुष्प्रेरण के रूप में सम्बद्ध प्रत्येक अन्य व्यक्ति के सम्बन्ध में समस्त परिस्थितियों की जिनकी उसे जानकारी है पूर्ण और सत्यतः प्रकट न कर दे और तब दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 308 की उपधारा (1) से (5) तक के प्रयोजन के लिए यह समझा जाएगा कि क्षमादान उस संहिता की धारा 307 के अधीन दिया गया है।

    (3) उपधारा (1) की उपधारा (2) में किसी बात के होते हुए भी, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के प्रावधान जहाँ तक वह इस अधिनियम से असंगत न हों विशेष न्यायाधीश की कार्यवाहियों पर लागू होंगे और इन प्रावधानों के प्रयोजन के लिए विशेष न्यायाधीश का न्यायालय सत्र न्यायालय समझा जाएगा और विशेष न्यायाधीश के समक्ष अभियोजन संचालित करने वाला व्यक्ति लोक अभियोजनक समझा जायेगा।

    (4) उपधारा (3) के उपबन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 326 और 475 के प्रावधान जहाँ तक सम्भव हो, विशेष न्यायाधीश के समक्ष की कार्यवाहियों पर लागू होंगे और इन प्रावधानों के प्रयोजन के लिए विशेष न्यायाधीश मजिस्ट्रेट समझा जाएगा।

    (5) विशेष न्यायाधीश किसी दोषसिद्ध व्यक्ति को जो उस अपराध के लिए विधि द्वारा प्राधिकृत कोई भी दण्डादेश पारित कर सकता है, जिस अपराध के लिए वह व्यक्ति दोषसिद्ध हुआ है।

    (6) इस अधिनियम के अधीन दण्डनीय (संशोधन) अध्यादेश, 1944 (1944 का अध्यादेश 38 ) द्वारा जिला न्यायाधीश को प्रदत्त शक्तियों एवं कृत्यों का प्रयोग कर सकेगा।

    अपराध का संज्ञान

    जिन अपराधों को दण्ड विधि संशोधन अधिनियम की धारा 6(1) के अन्तर्गत विनिर्दिष्ट किया गया है, उनका विचारण अधिनियम की धारा 6 के प्रावधानों के अधीन नियुक्त किये गये एक विशेष न्यायाधीश द्वारा किया जाता है। इसके अतिरिक्त विशेष न्यायाधीश एक ऐसा पीठासीन अधिकारी होता है जिसको अभियुक्त को विचारणार्थं सुपुर्द किये गये बिना ही अपराध का संज्ञान लेने की शक्ति प्रदान की गयी है।

    हालांकि ऐसे भी मामले हो सकते है जहाँ एक पुलिस रिपोर्ट के अलावा, मजिस्ट्रेट द्वारा उन सभी अपराधों के बाबत अपराध का संज्ञान किया जा सकता है। अतएव इस बात पर संदेह नहीं किया गया कि अधिनियम 1952 की धारा 6 में विनिर्दिष्ट अपराधों का संज्ञान लेने के लिए विशेष न्यायाधीश की शक्तियों व्यापक एवम् असीमित हैं।

    यह दण्ड विधि संशोधन अधिनियम, 1952 की धारा 8 को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि हालांकि यह प्रावधान करती है कि विशेष न्यायाधीश अपराध का संज्ञान अभियुक्त को उसे विचारणार्थं सुपुर्द किये बिना ही ले सकता है, फिर भी यह प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 के अधीन एक ऐसे अपराध का संज्ञान लेने से मजिस्ट्रेट को उसकी शक्तियों से वंचित नहीं करेगा। लेकिन उसके पास ऐसे अपराध का विचारण करने की शक्ति नही होगी।

    एक दाण्डिक मामले के अपराध का संज्ञान लेने और विचारण से संबंधित दण्ड प्रक्रिया संहिता की योजना तथा उसमें वर्णित प्रावधान यह प्रदर्शित करते हैं कि एक अपराध का संज्ञान लेने तथा कथित अपराध के विचारण के बीच एक भिन्नता होती है। विचारण के चरण को अपराध का संज्ञान लेने के चरण से भिन्न माना जाना होता है। दण्ड विधि संशोधन अधिनियम, 1952 की धारा 7 (1) के अधीन विशेष न्यायाधीश को दी गयी अनन्य अधिकारिता मात्र अपराध के विचारण करने से ही संबंधित होती है।

    जहाँ तक अपराध का संज्ञान लेने की अधिकारिता से संबंध होने का प्रश्न उठता है। तो निःसंदेह धारा 8 विशेष न्यायाधीश को वही शक्ति प्रदान करता है किन्तु इसे विशेष न्यायाधीश की अधिकारिता को अनन्य नहीं बनाता है। यही नहीं बल्कि एक मजिस्ट्रेट के साथ ही विशेष न्यायाधीश की न्यायालय के पास भी किसी भी अपराध का संज्ञान लेने की शक्ति होती है।

    विधिशास्त्र का यह एक सुविख्यात सिद्धान्त है कि जहाँ एक अपराध को अधिक्षमित करने वाली या सृजित करने वाली संविधि प्रतिकूल प्रभाव को उपदर्शित करती है के सिवाय कोई भी दाण्डिक विधि को गतिशील बना सकता है। परिवादी को सूने जाने का अधिकार, दाण्डिक विधि शास्त्र का एक विदेशी संकल्प है और सुरक्षा प्रदान करता है। और जहाँ परिवादी की चयन योग्यता के लिए एक अपराध का सृजन करने वाली संविधि, सामान्य सिद्धांत कि आवश्यक अनुप्रयोग द्वारा, इसके संविधिक प्रावधान का अपवर्जन करा दिया जाता है।

    कार्यवाही को प्रारम्भ करने का अधिकार समाज की वृहत अच्छाई के लिए अधिनियमित की गयी दाण्डिक विधियों के पीछे का उद्देश्य होने के कारण समाजिक हित में अपराधकर्ता के दण्ड को सुरक्षा प्रदान करने वाली दाण्डिक विधिशास्त्र के अज्ञात सुने जाने का अधिकार (locus tandi) को एक स्टेट जैकेट फार्मूला में पेश करके और सिवाय विशिष्ट कानूनी अपवाद के परिसीमित नहीं किया जा सकता है।

    इकबालिया साक्षी के साक्ष्य का मूल्यांकन

    पियारा सिंह बनाम पंजाब राज्य, ए आई आर 1969 उच्चतम न्यायालय 961 के वाद में कहा गया है कि यह निर्विवाद है कि एक सह अभियुक्त साक्ष्य अधिनियम के अधीन एक सक्षम साक्षी होता है। इतने पर भी यह सन्देह करने योग्य बात नहीं होती है कि वही तथ्य जिसमें उसने अपराध के कारित किए जाने में भाग लिया है उसके साक्ष्य में एक गम्भीर कलुषिता की प्रस्तावना करता है और न्यायालय ऐसे साक्ष्य पर कार्यवाही के लिये स्वाभाविक तौर पर अरुचि जाहिर करता है जब तक कि इसकी सम्पुष्टि अन्य स्वतन्त्र साक्षियों के साक्ष्य द्वारा महत्वपूर्ण विशिष्टियों के संदर्भ में नहीं कर दो जाती। इतने पर भी यह प्रत्याशा करना सही होगा कि ऐसी स्वतन्त्र सम्पुष्टि को सम्पूर्ण अभियोजन मामले को या उसके सम्पूर्ण महत्वपूर्ण विशिष्टियों को ही आच्छादित करना चाहिए।

    यदि इस प्रकार के दृष्टिकोण को अंगीकार किया जाता है तो यह सहअभियुक्त के साक्ष्य को पूर्णतया अत्यधिक बना देगी। दूसरी ओर, मात्र ऐसे साक्ष्य पर कार्यवाही करना सुरक्षित नहीं होगा क्योंकि इसकी सम्पुष्टि तुच्छ विशिष्टियों या अनुषंगिक विवरणों से की जाती है। कारण कि इस प्रकार के मामले में सम्पुष्टि यह आवश्यक आवश्वासन नहीं देता है कि इकबालिया साक्षी द्वारा प्रकट की गयी मुख्य कहानी को युक्तियुक्त पूर्ण एवम् सत्य होने के रूप में सुरक्षित तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है। यह सुस्थापित है कि इकबालिया साक्षी के साक्ष्य को मूल्यांकन के दोहरे परीक्षण का समाधान करना पड़ता है।

    उसके साक्ष्य को अवश्यमेव यह प्रदर्शित करना होता है कि वह एक विश्वसनीय साक्षी है और यह वही एक परीक्षण होता है। सभी साक्षियों के लिये सामान्य बात होती है। यदि इस परीक्षण का समाधान कर दिया जाता है तो वित्तीय परीक्षण जिसे अभी भी लागू किया जाना होता है, वह यह होता है कि इकबालिया साक्षी के साक्ष्य की पर्यामरूपेण निश्चित तौर पर सम्पुष्टि की जानी चाहिए।

    परिवाद पर एक अपराध का संज्ञान लिया जाना

    विशेष न्यायाधीश ऐसे तथ्यों पर आधारित परिवाद का संज्ञान ले सकता है जो अपराध का गठन करते हैं या स्वतः की जानकारी या संदेह के आधार पर कि अपराध कारित किया गया है, वैसा होने के कारण सर्किल निरीक्षक द्वारा संस्थित किये गये परिवाद के आधार पर विशेष न्यायाधीश द्वारा अपराध का संज्ञान लिया जाना अवैधानिक या अधिकारिता के बगैर नहीं किया होना कहा जा सकता है। इसी दृष्टिकोण की पुष्टि नील माधव पटनायक बनाम राज्य, (ए आई आर 1955 पटना) के अधिनिर्धारण से की जाती है जिसमें अपराध का संज्ञान दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 190 की उपधारा (1) के खण्ड (ग) में अन्तर्विष्ट की गयी विधि के प्रावधानों के अनुसार विशेष न्यायाधीश द्वारा संज्ञान लिया गया समझा जाता है।

    पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता 1898 की धारा 193 (1) संहिता द्वारा अभिव्यक्त तौर पर अन्यथा प्रावधान किया गया है के सिवाय या तत्सयम प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा, कोई भी न्यायालय आरम्भिक अधिकारिता की एक न्यायालय की हैसियत से किसी अपराध का संज्ञान नहीं लेगा जब तक अभियुक्त को उसकी ओर से सम्यक् रूप से प्राधिकृत किये गये एक मजिस्ट्रेट द्वारा इसको विचारणार्थं सुपुर्द नहीं कर दिया जाता है।

    अतएव, दण्ड विधि संशोधन अधिनियम की धारा 8 (1) का खण्ड, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1989 की धारा 193 (1) में अनुध्यात एक दूसरी विधि है और यह इस सामान्य नियम के अपवाद के रूप में प्रवर्तनीय रहती है कि सत्र न्यायालय को सामान्य तौर पर विचारणार्थं सुपुर्द किये गये होने पर ही मात्र मामलों का विचारण करना चाहिए। उपर्युक्त दशा में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अन्तर्गत आने वाले अपराध के भी सन्दर्भ में एक परिवाद दायर करने वाले को सीमा शुल्क कलेक्टर का कोई आक्षेप नहीं होता है।

    मजिस्ट्रेट की वे शक्तियाँ जिन्हें प्रभावित नहीं किया जा सकता है

    दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 337 की उपधारा (2-ख) के अधीन एक मजिस्ट्रेट के पास न केवल एक सह-अभियुक्त को क्षमा प्रदान करने की शक्ति प्रदान की गयी है बल्कि वह उस दशा में भी मामले के सह-अभियुक्त को क्षमा प्रदान करने की शक्ति रखेगा जहाँ कथित मामला उपधारा (2) के अन्तर्गत अनन्य रूप से विशेष न्यायालय द्वारा विचारणीय माना जायेगा।

    काशीनाथ कृष्ण सपद बनाम मैसूर राज्य, (1963 (1) क्रि ला ज 547 :1964 के मामले में न्यायालय द्वारा अभियुक्त को क्षमा प्रदान करने के लिए जिला मजिस्ट्रेट एवम् विशेष न्यायाधीश की समवर्ती शक्तियों पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया तथा कान्ता प्रसाद बनाम दिल्ली प्रशासन, (ए आई आर 1958 सुप्रीम कोर्ट 350) के मामले के अभिनिर्धारण पर भी ध्यान दिया गया।

    उस मामले में दूसरे अभियुक्त ने 17 फरवरी, 1962 को विशेष न्यायालय में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 337 के अधीन क्षमा प्रदान किये जाने के एक आवेदन पत्र प्रस्तुत किया, मामले में एक इकबालिया साक्षी के रूप में संव्यवहार किया कारण कि वह तैयार था तथा लम्बित अभियोजन मामले के वास्तविक तथ्यों एवम् परिस्थितियों का पूर्णतया प्रकटन करने के लिए इच्छा कर रहा था।

    अभियुक्त क्रमांक-1 ने उस पत्र पर आपत्ति जाहिर किया जबकि लोक अभियोजक ने याचिकाकर्ता द्वारा किये गये निवेदन के लिए 26 फरवरी, 1962 को स्वयमेव की अभिव्यक्त सहमति जाहिर किया। विशेष न्यायालय द्वारा प्रश्नगत आवेदन पत्र की सुनवाई 1 मार्च सन् 1962 की तिथि पर की गयी।

    उस याचिका के लम्बित रहने के दौरान दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 337 के अधीन क्षमा के लिए याचना करते हुए तथा इकबालिया साक्षी की हैसियत प्रस्तुत से मामले के सभी तथ्यों को प्रकटन करने के लिए अपनी इच्छा अभिव्यक्त करते हुए 27 फरवरी सन् 1962 को एक आवेदन पत्र एक जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष विचारणार्थ किया गया। 2 मार्च सन् 1962 को जिला मजिस्ट्रेट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 337 (1) के परन्तुक के अधीन कार्यवाही करने के लिए, यदि आवश्यक हो, सहायक पुलिस अधीक्षक को याचिका को भेज दिया।

    उसी दिन ही जिला मजिस्ट्रेट के पास यह अनुरोध करते हुए आवेदन-पत्र को उप पुलिस अधीक्षक ने वापस भेज दिया कि याचिकाकर्ता को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 337 (1) के प्रावधानों के अन्तर्गत क्षमा प्रदान किया जा सकता है। अगले दिन जिला मजिस्ट्रेट ने इस तथ्य की ओर उसके ध्यान को आकर्षित करते हुए आवेदन पत्र को समुचित कार्यवाही करने के प्रयोजन से कवित उपपुलिस अधीक्षक, बेलगाम को वापस पुनः भेज दिया कि मामले का विचारण लम्बित है।

    लेकिन ऐसी दशा में प्रश्नगत आवेदन पत्र को इस टिप्पणी के साथ पुनः उपपुलिस अधीक्षक ने वापस भेज दिया कि विचारण प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के न्यायालय में नहीं बल्कि विशेष न्यायाधीश के न्यायालय में लम्बित है और इसलिए संहिता की धारा 337 (1) का परन्तुक उस मामले के प्रति लागू होता था। इसके अलावा, यह कि न्यायहित एवम् अभियोजन के मामले के यथोचित निस्तारण के लिए जिला मजिस्ट्रेट अधिकारिता की कल्पना कर सकता है तथा प्रश्नगत अभियुक्त को क्षमा प्रदान कर सकता है। परिणामतः जिला मजिस्ट्रेट ने 16 मार्च सन् 1962 को अभियुक्त के कथन को लेखबद्ध किया तथा याचिकाकर्ता को क्षमा प्रदान करने वाला एक आदेश पारित किया।

    लोक अभियोजक ने 22 मार्च सन् 1962 को यह निवेदन करते हुए राज्य सरकार की ओर से विशेष न्यायाधीश के समक्ष एक फर्द अपराध के मामले से सम्बन्धित जानकारी के भीतर सम्पूर्ण परिस्थितियों का पूर्णतया एवम् वास्तविक प्रकटन करने वाली दशाओं के सन्दर्भ मे वास्तविक साक्ष्य प्राप्त करने के लिए याचिकाकर्ता को जिला मजिस्ट्रेट द्वारा क्षमा प्रदान कर दी गयी। जब इस मामले की सुनवाई विशेष न्यायालय के समक्ष की गयी तब प्रथम अभियुक्त की ओर से यह प्रतिपादना की गयी कि जिला मजिस्ट्रेट के पास कथित अभियुक्त को क्षमा प्रदान करने की शक्ति नहीं थी, क्योंकि यह मामला दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम, 1952 के अन्तर्गत गठित की गयी।

    विशेष न्यायाधीश की न्यायालय द्वारा विचारणीय वह जबकि अभियोजन ने जिला मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किये गये आदेश को पारित कर दिया। न्यायाधीश ने इस आधार पर जिला मजिस्ट्रेट के आदेश को अपास्त कर दिया कि जब वह मामला उसके समक्ष लम्बित था, तब जिला मजिस्ट्रेट मात्र विशेष न्यायाधीश के निर्देश पर ही कार्य कर सकता था और इसलिए यह अभिनिर्धारित किया गया कि उसके द्वारा पारित किया गया आदेश अधिकारिता के परे था।

    यदि किसी भी मामले का विचारण विशेष न्यायाधीश की न्यायालय द्वारा किया जाता है, तो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 452 के प्रावधान लागू होंगे

    मंजू नता जार्ज वारघीज बनाम मणिपुर सरकार, ए आई आर 1970 मणिपुर दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 452 यह कहती है कि जब किसी दाण्डिक न्यायालय में एक मामले की जाँच या विचारण के पश्चात् किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है, तो न्यायालय ऐसा आदेश पारित कर सकता है जिसे वह इसकी अभिरक्षा में या उससे संबंधित या इसके समक्ष पेश किये गये दस्तावेज या किसी सम्पत्ति के कब्जे का अन्यथा हकदार होने का दावा करने वाले किसी भी व्यक्ति के पक्ष में विनाश, अघिहरण (जब्ती) या परिदान द्वारा व्ययन के लिए उचित समझता है जिससे किसी अपराध का कारित होना प्रतीत होता है या जिसका प्रयोग किसी अपराध के कारित किये जाने के लिए किया गया है।

    यह स्पष्टरूपेण दण्ड विधि संशोधन अधिनियम की धारा 8(3) में वर्णित है कि संहिता के प्रावधान जहाँ तक वे उस अधिनियम के असंगत है, वहाँ तक विशेष न्यायाधीश के समक्ष एक कार्यवाही के प्रति लागू होंगे, और उन सभी प्रावधानों के प्रयोजन के लिए विशेष न्यायाधीश की न्यायालय एक जूरी या निर्धारकों की सहायता के बिना ही मामले का विचारण करने वाला एक सत्र न्यायालय समझा जायेगा।

    यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि संहिता में अधिनियमित किए गये सभी प्रावधान, जब तक वे दण्ड विधि संशोधन अधिनियम के किसी भी प्रावधान के असंगत नहीं होते हैं, तब तक एक विशेष न्यायाधीश द्वारा अभिनिर्धारित किये गये एक विचारण के प्रति लागू होगे।

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