जानिए सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की आपराधिक (Criminal) प्रकरण ट्रांसफर करने की शक्ति
Shadab Salim
31 July 2020 4:52 PM GMT
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (Crpc 1973) आपराधिक प्रकरणों को अंतरण (Transfer) करने की शक्ति भारत के उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय और सेशन न्यायालय को देती है। कोई आपराधिक प्रकरण एवं अपील को न्यायालय अंतरण कर सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 का अध्याय '31' इस संदर्भ में संपूर्ण व्यवस्था देता है। इस अध्याय में आपराधिक मामलों के अंतरण के बारे में स्पष्ट प्रावधान दे दिए गए हैं।
कभी-कभी न्याय हित में यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि किसी प्रकरण में न्याय नहीं हो पाएगा तथा न्याय के उद्देश्यों के लिए यह समीचीन है कि मामले को एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय में अंतरित (ट्रांसफर) कर दिया जाए। इस हेतु दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत मामलों के अंतरण (Transfer) करने का प्रावधान (provision) दिया गया। लेखक इस लेख के माध्यम से उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय को दिए गए मामलों के अंतरण करने की शक्ति का उल्लेख कर रहा है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामलों और अपीलों का अंतरण
सीआरपीसी की धारा 406
इस धारा में उच्चतम न्यायालय द्वारा मामलों और अपीलों की अंतरण संबंधी शक्ति के बारे में उपबंध दिए गए हैं। उच्चतम न्यायालय मामलों और अपीलों को अंतरित करने के बारे में आदेश तभी देगा जब उसके विचार में ऐसा किया जाना न्याय हित में है।
सुप्रीम कोर्ट भारत के महान्यायवादी (अटॉर्नी जनरल) या हितबद्ध पक्षकार के आवेदन पर किसी मामले को ट्रांसफर कर सकता है। यह आवेदन उसी स्थिति के सिवाय जब आवेदक भारत का महान्यायवादी या राज्य का महाधिवक्ता है शपथ पत्र द्वारा समर्थित होगा।
यदि सुप्रीम कोर्ट इस धारा के अधीन प्राप्त शक्ति का प्रयोग करते हुए किसी आवेदन को इस आधार पर खारिज कर देता है कि ऐसा आवेदन तुच्छ है और न्याय की प्रक्रिया को व्यथित करने हेतु दाखिल किया गया है तो ऐसी परिस्थिति में उच्चतम न्यायालय आवेदन का विरोध करने वाले व्यक्ति को प्रतिकर का भुगतान दिलवाए जाने का अधिकारी है परंतु ऐसे प्रतिकर की राशि ₹1000 से अधिक की नहीं होती है।
कौशल्या देवी बनाम मूलराज 1964 के एक मामले में अभिनिश्चित किया गया है कि वह मजिस्ट्रेट जिसके न्यायालय में से मामला अंतरण हेतु अशायित है विरोधी पक्षकार नहीं माना जाएगा। उसे स्पष्टीकरण देने के लिए केवल वही न्यायालय बाध्य कर सकता है, जिस न्यायालय के समक्ष अंतरण संबंधी आवेदन लंबित है। जहां अभियुक्त को न्यायालय में विचारण के दौरान बैठने की अनुमति प्रदान की गयी हो तो यह मामले के अंतरण का उचित आधार नहीं माना जाएगा।
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 406 के संदर्भ में रंजीत सिंह बनाम पोपर सोनवाने एआईआर 1983 सुप्रीम कोर्ट 291 के प्रकरण में परिवादी ने अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा के आधार पर मामले को पुणे से इंदौर अंतरित करने हेतु याचिका दायर की थी, क्योंकि उसे 9 अभियुक्तों से खतरा होने की आशंका थी।
पिटीशनर स्वयं एक अधिवक्ता था। उच्चतम न्यायालय ने परिवादी की ट्रांसफर पिटिशन को खारिज करते हुए पुलिस को निर्देश जारी किया कि पिटीशनर को समुचित सुरक्षा व्यवस्था दी जाए तथा संबंधित पुलिस अधीक्षक इस पर संज्ञान ले।
इंदर सिंह बनाम करतार सिंह एआईआर 1979 उच्चतम न्यायालय 1720 में पिटीशनर की गरीबी के आधार पर उच्चतम न्यायालय द्वारा मामले का अंतरण आदेशित (ordered) किया जा सकता है।
मेनका संजय गांधी बनाम राम जेठमलानी एआईआर 1979 उच्चतम न्यायालय 468 के मामले में कहा गया है कि वाद स्थल के चयन का अधिकार परिवादी का होगा। अभियुक्त यह मांग नहीं कर सकता कि उसका विचारण अमुक स्थान पर किया जाये।
एसके शुक्ला बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एआईआर 2006 उच्चतम न्यायालय 413 के मामले में अभियुक्त एक विधायक एवं राज्य मंत्रिमंडल का सदस्य था। इसके विरुद्ध POTA सहित अन्य अधिनियम के अंतर्गत कई आरोप थे। साक्षीगण उसके विरुद्ध साक्ष्य देने से कतराते थे तथा वे कोई भी उसके विरुद्ध बोलने की हिम्मत नहीं करता था।
इस सिलसिले में एक साक्षी की हत्या भी की गयी थी। राज्य सरकार भी अभियुक्त के विरुद्ध प्रकरण जारी रखने में विशेष रूचि नहीं रखती थी तथा उस अभियुक्त के विरुद्ध (POTA) कानून के अंतर्गत लगे आरोप वापस ले लिए थे। इस परिस्थिति में अभियुक्त के प्रकरण को राज्य के बाहर किया जाना न्याय के हित हेतु अति आवश्यक हो गया था। जिस से न्याय की हत्या ना हो एवं समाज के प्रभावशाली लोग न्याय को प्रभावित नहीं करें।
परमिंदर कौर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2007 क्रिमिनल लॉ जनरल 1977 सुप्रीम कोर्ट के प्रकरण में याचिकाकर्ता (पिटीशनर) को आशंका थी की यदि वह रामपुर के न्यायालय में उपस्थित होती है तो विरोधी पक्ष से उसे शारीरिक हानि कारित की जा सकती है, क्योंकि विरोधियों ने उसे इस आशय की धमकी दे रखी थी।
लेकिन न्यायालय ने इसे व्यर्थ एवं बेबुनियाद कारण मानते हुए उसके प्रकरण को रामपुर न्यायालय से दिल्ली चंडीगढ़ न्यायालय में अंतरित किए जाने से इनकार कर दिया जिसे उच्चतम न्यायालय ने भी उचित ठहराया।
निर्णय के कारण दर्शाते हुए कहा गया कि रामपुर आने की संभावना की पुष्टि में कोई सबूत प्रस्तुत नहीं किए थे। यह पाया गया कि पिटीशनर कुछ मामलों के सिलसिले में कई बार रामपुर के न्यायालय में उपस्थित रही थी लेकिन उसे किसी ने भी कोई शारिरिक क्षति नहीं पहुंचायी जैसी क्षति का उसे विरोधी पक्षकार से किसी प्रकार का भय था। यदी उसे ऐसी क्षति का भय था तो वह उसकी शिकायत पुलिस में दर्ज करा सकती थी।
याचिकाकर्ता ने प्रकरण को रामपुर से दिल्ली और चंडीगढ़ न्यायालय में अंतरित किए जाने हेतु एक कारण यह भी दर्शाया था कि उसका स्वास्थ्य खराब था लेकिन इसकी पुष्टि में कोई चिकित्सय प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया था इसके विपरीत उसका अनेक बार भारत से अमेरिका आना-जाना साबित हो चुका था और यह भी पाया गया कि वह अपनी जमीन जायदाद की देखरेख के लिए प्राय रामपुर जाया करती थी। इन परिस्थितियों में उसके द्वारा धारा 406 के अंतर्गत प्रकरण को अंतरण किए जाने की याचिका निराधार होने के कारण निरस्त किए जाने योग्य थी।
श्री बैद्यनाथ आयुर्वेद भवन प्राइवेट लिमिटेड बनाम पंजाब राज्य के वाद में कहा गया है कि धारा 406 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को वह शक्ति प्राप्त है कि वह आवश्यक होने पर किसी प्रकरण को एक राज्य से किसी दूसरे राज्य में ट्रांसफर कर सकता है परंतु ऐसा करते समय न्यायालय को पक्षकारों और साक्षियों की सुविधा का उचित ध्यान रखना होगा।
ललिता बनाम कुलविंदर सिंह 2010 के प्रकरण में याचिकाकर्ता ने अपना प्रकरण गाजियाबाद दिल्ली न्यायालय से लुधियाना न्यायालय को अंतरित किए जाने हेतु इस आधार पर आवेदन किया कि उसके दो स्कूल जाने वाले छोटे-छोटे बच्चे थे तथा वह बार-बार गाजियाबाद दिल्ली न्यायालय में पेशी पर जाने का खर्च कर पाने में असमर्थ थी तथा वह हर्निया और जोड़ों के दर्द से भी गंभीर रूप से पीड़ित थी।
प्रकरण में न्यायालय ने उसके आवेदन को स्वीकार्य मानते हुए उसके प्रकरण को लुधियाना न्यायालय को हस्तांतरित करने की अनुमति प्रदान कर दी।
सीआरपीसी की धारा 406 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को मामलों को ट्रांसफर करने की शक्ति प्राप्त है जो किसी एक उच्च न्यायालय से मामले को किसी दूसरे उच्च न्यायालय में ट्रांसफर कर सकता है। इसी प्रकार धारा 407 के अंतर्गत उच्च न्यायालय को आपराधिक प्रकरणों और अपीलों को ट्रांसफर करने की शक्ति धारा 407 के अंतर्गत दी है।
मामलों को ट्रांसफर करने की उच्च न्यायालय की शक्ति (Power of High Court to transfer cases)
'धारा 407 सीआरपीसी'
इस धारा के अधीन आपराधिक मामलों को अंतरित करने के बारे में उच्च न्यायालय की शक्ति का उल्लेख किया गया है। इस धारा में वर्णित उपबंधों के अनुसार उच्च न्यायालय इस तरह की शक्ति का प्रयोग निचले न्यायालय की रिपोर्ट पर यह हितबद्ध पक्षकार के आवेदन पर या स्वत: संज्ञान (Suo moto) के आधार पर भी कर सकता है।
उल्लेखनीय है कि इस धारा के अधीन मामले का अंतरण तभी हो सकता है जब उसमें दोषमुक्ति के रूप में निर्णय ना हुआ हो अर्थात यदि मामले में निर्णय दे दिया गया हो तो उसका ट्रांसफर नहीं हो सकेगा।
जब एक बार मामला सेशन न्यायालय में मजिस्ट्रेट को अंतरित कर दिया गया हो तो अन्य न्यायालय में मजिस्ट्रेट पूरे मामले को अंतरित नहीं कर सकेगा। सभी अधीनस्थ न्यायालय आदेशों को मानने के लिए बाध्य है।
यदि अंतरण के लिए दिए जाने वाले आवेदन एक खंड (Branch) के अधीन अशायित हैं किंतु वह वस्तुतः अंतरण के किसी दूसरे खंड( Branch) के अधीन आता है तो उच्च न्यायालय खंड के आधार पर उसका स्वविवेक से अंतरण करेगा।
कृष्णा पन्नी कर बनाम केरल राज्य के वाद में केरल उच्च न्यायालय ने निश्चित किया कि कार्यपालक मजिस्ट्रेट उच्च न्यायालय की अधिकारिता के अधीन होते हैं उच्च न्यायालय प्रकरण को एक कार्यपालक मजिस्ट्रेट से किसी अन्य मजिस्ट्रेट को अंतरण करने के लिए सक्षम होगा।
मैसूर राज्य बनाम हनुमंथा एआईआर 1966 के मामले में यह अभिनिश्चित किया गया था कि जहां मजिस्ट्रेट लोक अभियोजक द्वारा दी गयी राय के आधार पर भ्रमित हुआ हो तथा ऐसे भ्रम के कारण धारा 311 के अधीन स्वविवेक प्रयोग के संबंध में तथा उसके आधार पर स्थगन आदेश संबंधी कार्यवाही स्थगित कर दी हो तो उक्त दशा में मजिस्ट्रेट के न्यायालय से वाद को अंतरित करने का उचित आधार होगा।
केवल ऐसी आशंका की वाद का निस्तारण आमुक न्यायालय द्वारा उचित ढंग से नहीं किया जाएगा वाद के अंतरण का समुचित आधार नहीं माना जाएगा।
विष्णु चंद बनाम राज्य एआईआर 1952 अजमेर 39 के मामले में कहा गया है कि जहां अभियोजन का वकील न्यायालय के पीठासीन अधिकारी का भतीजा हो प्रकरण को अंतरित करने का आधार माना जाएगा क्योंकि यह नैसर्गिक न्याय के विरुद्ध है, वाद के पक्षकारों से हितबद्ध व्यक्ति न्यायालय का पीठासीन अधिकारी नहीं हो सकता।
ए आर अंतुले बनाम नायक एआईआर 1978 सुप्रीम कोर्ट 1531 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिश्चित किया की धारा 407 से संविधान के अनुच्छेद 14 के समानता संबंधी उपबंधों का उल्लंघन नहीं होता है, क्योंकि यह धारा युक्तियुक्त वर्गीकरण पर आधारित है। इस प्रकरण में न्यायालय द्वारा यह ज्ञापित किया गया कि यह धारा तभी लागू की जाएगी जब निम्न में से एक या अधिक समान शर्तें मौजूद हो।
1) अधीनस्थ न्यायालय में उचित तथा पक्षपात रहित विचारण संभव ना हो-
2) मामले में विधि संबंधी कोई अप्रत्याशित प्रश्न उदित होने की आशंका हो-
3) इस सहिंता के किसी उपबंध के अधीन मामले से संबंधित अंतरण आदेश पारित किया जाना आवश्यक हो-
4) अंतरण पक्षकारों तथा साक्षियों के लिए सुविधाजनक हो-
5) न्याय के उद्देश्य के लिए ऐसा करना समीचीन हो-
अंतुले के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के दिए गए यह निर्देश महत्वपूर्ण है। किसी भी आपराधिक मामले को इन निर्देशों के अंतर्गत ही अंतरित किया जाता है।
फजलुर रहमान बनाम पंजाब राज्य के एक मामले में प्रकरण को पंजाब राज्य से असम राज्य को अंतरित किए जाने का प्रश्न था।
इस वाद में परिवादी ने याचिकाकर्ता के विरुद्ध 363 366 धारा 120 बी भारतीय दंड संहिता 1860 (Ipc) के अंतर्गत आरोप लगाते हुए पंजाब न्यायालय में परिवाद दायर किया था।
इस परिवाद में परिवादी ने बतलाया की उसकी पुत्री को बहला-फुसलाकर उसके साथ जबरदस्ती विवाह कर लिया गया था। इसके उत्तर में याचिकाकर्ता का कहना था कि परिवादी की पुत्री वयस्क थी तथा उसने अपने माता-पिता का घर छोड़कर उससे याचिकाकर्ता से स्वेच्छा विवाह किया था तथा दोनों असम राज्य में पति-पत्नी के रूप में शांतिपूर्वक रह रहे थे।
याचिकाकर्ता ने उसके पंजाब में चल रहे प्रकरण को असम में अंतरित करने हेतु याचिका करते हुए परिवादी के विरुद्ध शिकायत दर्ज करायी कि परिवादी व उसके परिवारजन उसे लगातार धमकियां दे रहे हैं जिसके कारण उनसे खतरा एवं मानसिक संत्रास है।
न्यायालय ने निर्धारित किया कि याचिकाकर्ता के आवेदन को उचित एवं उपयुक्त मानते हुए उसका प्रकरण असम राज्य को अंतरित कर दिया जाए।
उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय आपराधिक मामलों एवं अपीलों का ट्रांसफर कम ही मामलों में करते हैं। जिन मामलों में न्याय हित में ट्रांसफर आवश्यक हो जाता है उन्हीं मामलों में ट्रांसफर किया जाता है क्योंकि आपराधिक मामलों के विचारण संबंधी अधिकार दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के अंतर्गत क्षेत्र के अनुसार न्यायालयों को वितरित किए गए हैं। न्यायालयों की विचारण संबंधी अधिकारिता का संपूर्ण उल्लेख सीआरपीसी 1973 के अध्याय- 13 के अंतर्गत कर दिया गया है परंतु इसके बाद भी न्याय हेतु कभी कभी ट्रांसफर करना होता है।