आपराधिक अदालतों की शक्तियां

Shadab Salim

15 Nov 2022 8:19 AM GMT

  • आपराधिक अदालतों की शक्तियां

    आपराधिक अदालतें आपराधिक मुकदमे सुनती है, इन अदालतों को कुछ शक्तियां दी गई है। इन शक्तियों में दंड देने की शक्तियां महत्वपूर्ण है। इस आलेख के अंतर्गत ऐसी ही शक्तियों का उल्लेख किया जा रहा है। आपराधिक अदालतों की अधिकारिता अर्थात दंड देने की शक्तियों का उल्लेख दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 26 से 31 तक में किया गया है।

    अपराधी का विचारण-

    संहिता की धारा 26 में अपराधों के विचारण के बारे में प्रावधान किया गया है।

    इसके अनुसार- भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की परिधि में आने वाले अपराधों का विचारण निम्नांकित कोर्ट द्वारा किया जा सकेगा-

    (i) हाईकोर्ट

    (ii) सेशन कोर्ट एवं

    (ii) अन्य कोर्ट।

    किस कोर्ट द्वारा किस अपराध का विचारण किया जायेगा, इसका उल्लेख दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की प्रथम अनुसूची में किया गया है।

    लेकिन भारतीय दण्ड संहिता 1860 की धारा 376 एवं धारा 376-क से 376-ड के अन्तर्गत बलात्कार से सम्बन्धित अपराधों का विचारण यथासम्भव ऐसे न्यायालय द्वारा किया जायेगा जिसकी पीठासीन अधिकारी महिला हो।

    यह व्यवस्था दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2008 द्वारा की गई है। इस संशोधन की पृष्ठभूमि में स्टेट ऑफ पंजाब बनाम गुरमीत सिंह का मामला रहा है जिसमें सुप्रीम कोर्ट द्वारा बलात्कार से सम्बन्धित मामलों की सुनवाई महिला न्यायाधीश द्वारा किये जाने की अनुशंसा की गई थी।

    यहां यह उल्लेखनीय है कि जहां एक ही घटना से सम्बन्धित दो ऐसे मामले हों जिनमें से एक की सुनवाई करने की अधिकारिता सेशन कोर्ट को हो तथा दूसरे को मजिस्ट्रेट को, वहां ऐसे सम्पूर्ण मामले की सुनवाई सेशन कोर्ट द्वारा की जा सकेगी। उसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को अन्तरित किया जाना आवश्यक नहीं होगा।

    किशोरों से सम्बन्धित मामलों का विचारण- संहिता की धारा 27 में 'किशोरों' (Juvenils) से सम्बन्धित मामलों के विचारण के बारे में प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार- किशोरों से सम्बन्धित ऐसे मामलों का, जो मृत्यु अथवा आजीवन कारावास से दण्डनीय नहीं है, विचारण मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के कोर्ट द्वारा अथवा किशोरों से सम्बन्धित विधि के अधीन गठित किसी कोर्ट अथवा बोर्ड द्वारा किया जायेगा।

    किशोरों से सम्बन्धित मामलों के विचारण के लिए बालक अधिनियम, 1960 एवं किशोर न्याय अधिनियम, 1986 के अधीन विशेष अदालतों का गठन किया गया था। अब इन अधिनियमों का स्थान 'किशोर न्याय (बालकों की देख रेख और संरक्षण) अधिनियम 2000' में ले लिया है। इस अधिनियम के अधीन किशोरों से सम्बन्धित मामलों का विचारण 'किशोर न्याय बोर्ड' द्वारा किया जाता है।

    किशोर न्याय बोर्ड में-

    (i) महानगर मजिस्ट्रेट अथवा प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट एवं

    (ii) दो सामाजिक कार्यकर्ता, होंगे जिनमें से कम से कम एक महिला होगी।

    किशोर अथवा बालक से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है, जिसने 'अठारह वर्ष की आयु पूरी नहीं की है।

    हाईकोर्ट एवं सेशन कोर्ट की दण्डादेश की शक्तियां

    संहिता की धारा 28 के अनुसार-

    (क) हाईकोर्ट विधि द्वारा प्राधिकृत कोई दण्डादेश पारित कर सकेगा।

    (ख) सेशन जज या अपर सेशन जज विधि द्वारा प्राधिकृत कोई दण्डादेश पारित कर सकेगा।

    (ग) सेशन जज या अपर सेशन जज द्वारा पारित मृत्यु दण्डादेश की पुष्टि हाई कोर्ट द्वारा की जानी आवश्यक होगी।

    (घ) असिस्टेंट सेशन जज निम्नांकित को छोड़कर विधि द्वारा प्राधिकृत कोई दण्डादेश पारित कर सकेगा-

    (i) मृत्यु दण्ड,

    (ii) आजीवन कारावास, एवं

    (iii) दस वर्ष से अधिक की अवधि का कारावास ।

    स्पष्ट है कि सेशन जज एवं अपर सेशन जज द्वारा मृत्यु दण्ड, आजीवन कारावास या अन्य किसी प्रकार का दण्डादेश पारित किया जा सकता है। जबकि असिस्टेंट सेशन जज द्वारा मृत्यु दण्ड, आजीवन कारावास अथवा दस वर्ष से अधिक की अवधि का दण्डादेश पारित नहीं किया जा सकता है।

    दण्ड सुधारात्मक अथवा निवारणात्मक होना अपेक्षित है। अपर्याप्त दण्ड देकर अभियुक्त के प्रति मजिस्ट्रेट की सहानुभूति जताने को घातक माना गया है।

    दण्डादेश की शक्तियां

    संहिता की धारा 30 में मजिस्ट्रेट की दण्डादेश की शक्तियों का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार-

    (i) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की कोर्ट निम्नांकित दण्डादेश को छोड़कर, विधि प्राधिकृत कोई दण्डादेश पारित कर सकेगा-

    (क) मृत्यु दण्ड

    (ख) आजीवन कारावास, अथवा

    (ग) सात वर्ष से अधिक की अवधि का कारावास ।

    दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट 'सात वर्ष' तक की अवधि के कारावास का दण्डादेश पारित कर सकेगा।

    (ii) प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा-

    (क) तीन वर्ष तक की अवधि के कारावास, अथवा

    (ख) दस हजार रूपए तक के जुर्माने अथवा

    (ग) दोनों का

    दण्डादेश पारित किया जा सकेगा।

    परकाम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अन्तर्गत चैक अनादरण के मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में विहित दण्डादेश एवं जुर्माने से अधिक का आदेश नहीं दिया जा सकेगा।'

    (iii) द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा एक वर्ष तक की अवधि के कारावास अथवा पाँच हजार रूपये तक के जुर्माने अथवा दोनों का दण्डादेश पारित किया जा सकेगा।

    (iv) मुख्य महानगर मजिस्ट्रेट एवं महानगर मजिस्ट्रेट की दण्डादेश की शक्तियाँ वही क्रमशः मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट एवं न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग की हैं।

    जुर्माने के संदाय में व्यतिक्रम किये जाने पर कारावास का दण्डादेश-

    संहिता की धारा 30 में यह कहा गया है कि किसी मजिस्ट्रेट का न्यायालय जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर इतनी अवधि का कारावास अधिनिर्णीत कर सकेगा जो विधि द्वारा प्राधिकृत है, लेकिन वह अवधि-(i) धारा 29 के अधीन मजिस्ट्रेट की शक्ति से अधिक नहीं होगी, एवं-

    (ii) जहां कारावास मुख्य दण्डादेश के भाग के रूप में अधिनिर्णीत किया गया है, वहाँ वह उस कारावास की अवधि के "चौधाई" से अधिक नहीं होगी जिसको मजिस्ट्रेट उस अपराध के लिए, न कि जुर्माना देने में व्यतिक्रम होने पर दण्ड के तौर पर, देने के लिए सक्षम है। यहां यह उल्लेखनीय है कि जुर्माना संदाय नहीं किये जाने पर पारित कारावास का दण्डादेश सजा नहीं होकर एक "शास्ति" मात्र है। जुर्माने की राशि का संदाय कर दिये जाने पर कारावास की अवधि उसी अनुपात में कम कर दी जायेगी।

    एकाधिक अपराधों के लिए दण्डादेश-

    संहिता की धारा 31 में संकलित दण्ड के बारे में प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार- जब किसी अभियुक्त को एक ही विचारण में एक से अधिक अपराधों के लिए दोषसिद्ध किया जाता है तब भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 71 के अध्यधीन रहते हुए अदालत उसे विभिन्न अपराधों के लिए उपबंधित दण्डों में से वह दण्ड दे सकेगा जिसके लिए वह प्राधिकृत है।

    यदि एकाधिक दण्ड की सीमा उस कालावधि से अधिक हो जाती है जिसके लिए वह न्यायालय सक्षम है तो ऐसी अवस्था में उसे ऊपर की कोर्ट के समक्ष विचारण हेतु प्रेषित करना आवश्यक नहीं होगा।

    उल्लेखनीय है-

    (i) किसी भी अवस्था में ऐसे व्यक्ति को "चौदह वर्ष" से अधिक की कालावधि के कारावास से दण्डित नहीं किया जा सकेगा, तथा

    (ii) संकलित दण्ड उस दण्ड के परिमाण के दुगुने से अधिक नहीं होगा जिसे एक अपराध के लिए न्यायालय दण्ड देने के लिए सक्षम है।

    चतर सिंह बनाम स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि एकाधिक अपराधों में कुल मिलाकर अभियुक्त को चौदह वर्ष से अधिक अवधि के कारावास का दण्डादेश नहीं दिया जा सकेगा। यदि इससे अधिक दण्डादेश पारित किया जाता है तो वह अपास्त किये जाने योग्य होगा। इस मामले में अभियुक्त को बीस वर्ष की अवधि के कारावास से दण्डित किया गया था।

    जहां अभियुक्त को कारावास की सजा के साथ साथ जुर्माने से भी दण्डित किया जाता है, वहाँ जुर्माने का संदाय करने में असफल रहने पर जुर्माने के एवज में कारावास की सजा भुगतनी होगी और ऐसी सजा मूल कारावास की सजा से पृथक भोगनी होगी।

    सजाओं का साथ-साथ या पृथक् पृथक् चलना-

    धारा 31 (1) में यह कहा गया है कि जहां अभियुक्त को एकाधिक अपराधों के लिए दण्डित किया गया हो, वहाँ जब तक न्यायालय द्वारा निदेशन दिया जाये कि ऐसे दण्ड साथ-साथ भोगे जायेंगे,

    ये ऐसे क्रम से एक के बाद एक प्रारम्भ होंगे और पृथक्-पृथक् भोगे जायेंगे। यहां यह ज्ञातव्य है कि इस धारा के उपबंध आज्ञापक नहीं होकर निदेशात्मक (Directory) है। यह मजिस्ट्रेट की विवेकाधीन शक्तियों पर निर्भर है। लेकिन मजिस्ट्रेट द्वारा इन शक्तियों का न्यायिक तौर पर प्रयोग किये जाने की अपेक्षा की जाती है। अमूमन सभी सजाए एक साथ भुगतने का आदेश दिया जाता है।

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