न्यायाधीश द्वारा सवाल पूछने या दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का आदेश देने की शक्ति - धारा 168, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023
Himanshu Mishra
14 Sept 2024 7:29 PM IST
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023, जो 1 जुलाई 2024 से लागू हुआ और जिसने पुराने Indian Evidence Act, 1872 की जगह ली, न्यायाधीशों को मुकदमों के दौरान महत्वपूर्ण अधिकार प्रदान करता है। धारा 168 के तहत, न्यायाधीश को साक्ष्य (evidence) की खोज और प्रासंगिक तथ्यों (relevant facts) को स्थापित करने के लिए सवाल पूछने और दस्तावेज़ों (documents) को पेश करने का आदेश देने की शक्ति दी गई है। यह धारा इस बात को सुनिश्चित करती है कि अदालत को सभी महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए जाएं।
धारा 168, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 के तहत न्यायाधीश को मुकदमे के दौरान सवाल पूछने और प्रासंगिक दस्तावेज़ या वस्तु को प्रस्तुत करने का आदेश देने की महत्वपूर्ण शक्ति दी गई है। जहां ये शक्तियां यह सुनिश्चित करती हैं कि सच्चाई सामने आए, वहीं उन्हें गवाहों की सुरक्षा और कानूनी प्रक्रिया की निष्पक्षता बनाए रखने के लिए नियंत्रित भी किया गया है।
न्यायाधीश को प्रासंगिक तथ्यों पर आधारित सवाल पूछने होते हैं, और पक्षकार इन पर तभी आपत्ति कर सकते हैं जब वे धारा 127 से 136, 151 या 152 के प्रावधानों का उल्लंघन करें। यह धारा सुनिश्चित करती है कि न्यायाधीश मुकदमे के दौरान छूटे हुए साक्ष्यों को खोजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं, जिससे न्याय की प्रक्रिया बेहतर तरीके से पूरी हो सके।
धारा 168: न्यायाधीश द्वारा सवाल पूछने की शक्ति
धारा 168 के तहत, न्यायाधीश किसी भी गवाह (witness) या पक्षकार (parties) से किसी भी समय, किसी भी रूप में, कोई भी सवाल पूछ सकता है, यदि वह मानता है कि सवाल प्रासंगिक तथ्यों को जानने या साबित करने के लिए आवश्यक है। इसका मतलब है कि न्यायाधीश सिर्फ वकीलों द्वारा पूछे गए सवालों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि वह सीधे हस्तक्षेप कर सकता है ताकि सभी महत्वपूर्ण तथ्य अदालत के सामने आ सकें।
इस धारा के तहत न्यायाधीश की शक्ति व्यापक है, जिससे वह साक्ष्यों के बारे में सक्रिय भूमिका निभा सकता है। पक्षकार या उनके वकील न्यायाधीश द्वारा पूछे गए सवालों या दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के आदेश पर आपत्ति नहीं कर सकते। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि न्यायाधीश अनुचित या अप्रासंगिक सवाल पूछ सकते हैं; उनका ध्यान सिर्फ उन बातों पर होना चाहिए जो मुकदमे के लिए आवश्यक हैं।
दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का आदेश
सवाल पूछने के अलावा, धारा 168 न्यायाधीश को यह अधिकार भी देती है कि वह किसी भी दस्तावेज़ या चीज़ को प्रस्तुत करने का आदेश दे सकता है जो प्रासंगिक तथ्यों को साबित करने में मददगार हो सकता है। अगर अदालत को किसी मामले के तथ्यों को समझने के लिए किसी दस्तावेज़ की आवश्यकता है, तो न्यायाधीश उस दस्तावेज़ को प्रस्तुत करने का आदेश दे सकता है, चाहे पक्षकारों ने उसकी मांग की हो या नहीं। यह सुनिश्चित करता है कि कोई महत्वपूर्ण साक्ष्य न छूटे।
क्रॉस एक्जामिनेशन (cross-examination) पर सीमा
जहां धारा 168 न्यायाधीश को सवाल पूछने की शक्ति देती है, वहीं यह पक्षकारों के अधिकारों पर भी सीमाएं लगाती है। अगर न्यायाधीश किसी गवाह से सवाल पूछता है, तो पक्षकार को उस जवाब पर जिरह करने का अधिकार नहीं होता, जब तक कि अदालत अनुमति न दे। जिरह आमतौर पर महत्वपूर्ण होती है, जिससे दूसरा पक्ष गवाह के बयान को चुनौती दे सकता है, लेकिन यह धारा सुनिश्चित करती है कि न्यायाधीश का हस्तक्षेप नियंत्रित और कुशल रहे।
न्यायाधीश की शक्तियों पर शर्तें
हालांकि धारा 168 न्यायाधीश को महत्वपूर्ण शक्तियां देती है, लेकिन इसके साथ कुछ सुरक्षा उपाय भी दिए गए हैं ताकि किसी तरह का दुरुपयोग न हो। जैसे कि न्यायाधीश द्वारा पूछे गए सवाल सिर्फ उन तथ्यों पर आधारित होने चाहिए, जिन्हें अधिनियम द्वारा प्रासंगिक घोषित किया गया है, और उन्हें कानून के अनुसार साबित किया जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि फैसले किसी भी अप्रासंगिक या गलत तरीके से प्राप्त साक्ष्यों पर आधारित नहीं हो सकते।
इसके अलावा, धारा 168 न्यायाधीश को किसी भी गवाह को उन सवालों का जवाब देने या दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिए मजबूर करने का अधिकार नहीं देती, जिन्हें वह धारा 127 से 136 के तहत मना कर सकता है। ये धाराएं कुछ खास प्रकार की सूचनाओं की गोपनीयता से संबंधित हैं, जैसे वकील और ग्राहक के बीच की बातचीत, जो अदालत में बिना ग्राहक की सहमति के प्रकट नहीं की जा सकती।
धारा 151 और 152 के तहत न्यायाधीश की शक्तियों पर प्रतिबंध
धारा 168 में धारा 151 और 152 का भी उल्लेख है, जो यह सुनिश्चित करता है कि न्यायाधीश क्या सवाल पूछ सकते हैं। धारा 151 के अनुसार, ऐसे सवाल पूछना मना है, जो गवाह का अपमान करने या उसे परेशान करने के इरादे से किए गए हों। यह न्यायाधीश द्वारा सवाल पूछने की प्रक्रिया को पेशेवर और सम्मानजनक बनाए रखता है। इसी तरह, धारा 152 में ऐसे सवाल पूछने की मनाही है जो मामले से अप्रासंगिक हों, ताकि अदालत अनावश्यक सवालों में न फंसे।
उदाहरण से धारा 168 को समझें
मान लीजिए एक मामला दो व्यावसायिक साझेदारों, A और B के बीच उनके साझेदारी अनुबंध (partnership agreement) को लेकर है। मुकदमे के दौरान, A के वकील गवाह से साझेदारी के अनुबंध की शर्तों के बारे में पूछताछ करते हैं, लेकिन वह यह पूछना भूल जाते हैं कि मुनाफे का बंटवारा कैसे होना था।
न्यायाधीश, यह देखते हुए कि यह तथ्य मामले के लिए महत्वपूर्ण है, सीधे गवाह से पूछते हैं, "A और B के बीच मुनाफे के बंटवारे की शर्तें क्या थीं?" गवाह फिर इसका विस्तृत उत्तर देता है, जो मामले में महत्वपूर्ण साक्ष्य बन जाता है।
इस स्थिति में, पक्षकारों के वकील न्यायाधीश द्वारा इस सवाल को पूछे जाने पर आपत्ति नहीं कर सकते, क्योंकि यह सच्चाई जानने के लिए आवश्यक है। हालांकि, अगर A का वकील गवाह से इस उत्तर पर जिरह करना चाहता है, तो उसे अदालत से अनुमति लेनी होगी। अगर न्यायाधीश को लगता है कि जिरह की जरूरत नहीं है, तो वह इस अनुरोध को अस्वीकार कर सकता है।
दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का आदेश का उदाहरण
उसी व्यापारिक विवाद के मामले में, न्यायाधीश को यह भी महसूस हो सकता है कि साझेदारी का लिखित अनुबंध साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है। तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए, न्यायाधीश B को मूल अनुबंध प्रस्तुत करने का आदेश देते हैं। भले ही B इस दस्तावेज़ को प्रस्तुत न करना चाहे, न्यायाधीश के आदेश के बाद इसे प्रस्तुत करना अनिवार्य हो जाता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि सभी प्रासंगिक दस्तावेज़ उपलब्ध हों ताकि निष्पक्ष निर्णय लिया जा सके।