क्या है उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम और अयोध्या विवाद से इसका क्या सम्बन्ध?
LiveLaw News Network
6 Dec 2019 10:30 AM IST
शशांक शेखर मिश्र
अयोध्या- रामजन्मभूमि मामला जब सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था तो उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 का अक्सर ज़िक्र आया और जब 9 नवंबर 2019 को अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया तो इस अधिनियम का बड़े पैमाने पर ज़िक्र हुआ। उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम 1991 को संसद द्वारा पूजा स्थलों के जबरन परिवर्तन पर रोक लगाने के उद्देश्य से पारित किया गया था।
अधिनियम की पृष्ठभूमि
स्वतंत्रता के दो वर्ष बाद ही, 1949 में बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रख दी गईं। इससे विवाद का जन्म तो हो गया लेकिन निर्णायक मोड़ कई वर्षों बाद 1986 में आया, जब शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने का बाद राजीव गांधी सरकार को भारी आलोचना का सामना करना पड़ा, जिसके बाद केंद्र सरकार ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने का आदेश दे दिया।
इसके बाद नब्बे के दशक की शुरुआत में राम जन्मभूमि आंदोलन प्रखर रूप से सामने आया। 1991 के लोकसभा चुनाव के दौरान तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बुदुर में एक चुनावी सभा के दौरान, लिट्टे के आत्मघाती हमले में राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। इसके बाद नरसिंह राव जून 1991 में प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए।
यह वो समय था, जब रामजन्मभूमि आंदोलन अपने चरम पर था। अयोध्या में बाबरी मस्जिद के साथ ही उन तमाम मस्जिदों को परिवर्तित करने की मांग उठने लगी जहां पूर्व में मंदिर रहे थे। ऐसे समय में नरसिंह राव की सरकार ने सांप्रदायिक उन्माद को शांत करने के लिए एक कानून बनाना आवश्यक समझा और वह कानून था, प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप एक्ट, या उपासना स्थल अधिनियम।
यह भी जानना ज़रूरी है कि कांग्रेस ने 1991 के अपने चुनावी घोषणापत्र में ऐसे कानून को लाने की बात पहले ही कर दी थी। अधिनियम के बिल को बहस के लिए संसद के मानसून सत्र में प्रस्तुत किया गया। तत्कालीन गृह मंत्री, शंकरराव चव्हाण ने 10 सितंबर 1991 में लोकसभा में बहस के दौरान इस बिल को भारत के प्रेम, शांति और आपसी भाईचारे के महान संस्कारों का एक सूचक बताया और कहा कि "सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता हमारी महान सभ्यता का चरित्र है।"
पुनः 12 सितंबर 1991 को राज्यसभा में एक भाषण के दौरान शंकरराव चव्हाण ने इसी मुद्दे पर वाद विवाद के समय आदि शंकर के अद्वैत सिद्धांत का आह्वान करते हुए कहा कि "अद्वैत दर्शन स्पष्ट रूप से कहता है कि मनुष्य और ईश्वर में कोई अंतर नहीं। हमें यह समझना चाहिए कि परमात्मा का वास केवल मस्जिद या मंदिर में नहीं, अपितु मानव के ह्रदय में होता है।"
क्या कहता है यह अधिनियम?
उपासना स्थल अधिनियम, 1991 एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण अधिनियम है। इसमें वर्तमान में केवल 7 धाराएं हैं, मूल रूप से 8 धाराएं थी, लेकिन धारा 8 को 2001 में एक संशोधन द्वारा रद्द कर दिया गया था।
प्रस्तावना, प्रवर्तन और विस्तार
इस विधि की प्रस्तावना इसकी आत्मा और उद्देश्य को स्पष्ट कर देती है, जो कि इस प्रकार है "एक अधिनियम जो धार्मिक स्थलों के परिवर्तन को निषिद्ध करता है और ऐसे धार्मिक स्थल जैसे वो 15 अगस्त 1947 को थे उनको उसी रूप में संरक्षित करता है।"
अधिनियम में प्रवर्तन की तिथि पूर्ववर्ती है, क्योंकि राष्ट्रपति ने अधिनियम पर अपने हस्ताक्षर 18 सितंबर 1991 को किए लेकिन प्रवर्तन की तिथि 11 जुलाई 1991 बताई गई है।
धार्मिक स्थल किसे कहते हैं?
इससे पहले कि हम धार्मिक स्थल के परिवर्तन की व्याख्या करें, "धार्मिक स्थल" शब्द के अर्थ को भी परिभाषित करना आवश्यक है। अधिनियम की धारा 2 (ग) में धार्मिक स्थल को इस प्रकार परिभाषित किया गया है।
"धार्मिक स्थल का अर्थ है एक मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर, मठ, अथवा अन्य कोई भी जन धार्मिक स्थल जो किसी भी धर्म या संप्रदाय का है, या जो किसी भी नाम से जाना जाता हो।"
इस परिभाषा में भी धार्मिक स्थल शब्द को बहुत व्यापक अर्थ दिया है, जो अपने में समस्त धार्मिक स्थलों को समेट ले। धार्मिक स्थल शब्द की परिभाषा से सम्बंधित एक बड़ा ही रोचक वाद है, नहर सिंह बनाम शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी (1993) 103 PLR 33। इस वाद में विविदित स्थान पर एक धर्मशाला थी, जो कि धार्मिक उद्देश्य से समाज को समर्पित कर दी गई थी। धर्मशाला का कई वर्षों तक उसी रूप में प्रयोग किया गया, तत्पश्चात धर्मशाला का परिवर्तन एक सिख गुरूद्वारे के रूप में कर दिया गया।
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायलय ने ऐसे परिवर्तन को अधिनियम की धारा 3 के तहत अविधिक और अवैध माना। हालांकि इस वाद में न्यायलय के समक्ष जो साक्ष्य रखे गए उन कागजातों में इतना ही सिद्ध हो पाया कि विवादित स्थल पर सन् 1944-45 तक धर्मशाला थी। न्यायालय ने निरंतरता की उपधारणा के आधार पर यह माना कि जब तक यह सिद्ध न हो जाए क़ि 1947 से पूर्व ही विवादित स्थल पर सिख गुरुद्वारे का निर्माण हो चुका था, तब तक न्यायालय, यह उपधारण कर सकेगा कि विवादित स्थल पर 15 अगस्त 1947 को एक धर्मशाला थी, जिसका परिवर्तन अवैध था।
धार्मिक स्थल के परिवर्तन का क्या अर्थ है?
अधिनियम की धारा 3- अधिनियम की धारा 3 ही इसका मुख्य उद्देश्य है। धारा 3 ही धार्मिक स्थलों के परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाती है। इस धारा में "परिवर्तन" का अर्थ बहुत व्यापक माना गया है। किसी धार्मिक स्थल का परिवर्तन दो तरह से किया जा सकता है, जिसे यह अधिनियम रोकता है।
•यदि किसी धार्मिक स्थल का परिवर्तन किसी अन्य धर्म के स्थल के रूप में हो।
•या यदि किसी धार्मिक स्थल का परिवर्तन उसी धर्म के अन्य पंथ के द्वारा ही हो, तब भी यह अधिनियम लागू होगा।
इस प्रकार परिवर्तन शब्द की एक व्यापक व्याख्या इस अधिनियम के अंतर्गत की गई है। हर धर्म में विभिन्न शाखाएं और मत होते हैं, और उन संप्रदायों को उसी धर्म में रहते हुए भी स्वयं की विविधता को संरक्षित करने का अधिकार होता है।
उदाहरण के तौर पर यदि एक ऐसा हिन्दू मंदिर हो, जिसकी पूजा पद्धति और प्रबंधन आर्य समाज द्वारा हो, तो उस मंदिर को सनातन मतावलंबी एक सनातनी मंदिर के रूप में परिवर्तित नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा कृत्य अधिनियम की धारा 3 के विरुद्ध है। वैसे ही इस्लाम में इमामबाडा, जो कि केवल शियाओं का पूजा स्थल होता है, उस पर नियंत्रण भी शिया मुसलमानों का ही रहेगा और वो अपनी आस्था के अनुसार उसमें व्यवस्था और प्रबंध सुनिश्चित कर सकेंगे। सुन्नी मतावलंबी ऐसे इमाम बाड़े को एक मस्जिद के रूप में परिवर्तित नहीं कर सकते।
धार्मिक स्थलों से जुड़े वाद
अधिनियम की धारा 4 में सर्वप्रथम इस विधि के उद्देश्य को दोहराते हुए एक घोषणा की जाती है कि देश के सभी धार्मिक स्थल उसी रूप में रहेंगे जैसा कि वे 15 अगस्त 1947 को थे। इसके अतिरिक्त धारा 4 का एक और विशेष औचित्य है।
धार्मिक स्थलों से सम्बंधित वादों की संपोषणीयता का निर्धारण भी इसी धारा के माध्यम से होता है। धारा में निर्दिष्ट है कि किसी भी धार्मिक स्थल से सम्बंधित यदि कोई भी वाद, अपील या अन्य विधिक कार्यवाही किसी भी न्यायालय, न्यायाधिकरण या प्राधिकरण के समक्ष लंबित है तो इस अधिनियम के पारित होने के साथ ही ऐसे सभी वाद, अपील और अन्य विधिक कार्यवाही को निरस्त मान लिया जाएग।
धार्मिक स्थलों के परिवर्तन को चुनौती
निश्चित रूप से धारा 4 के सभी उपबंध धार्मिक स्थलों से सम्बंधित वादों पर विराम लगाते हैं, लेकिन यह ध्यान देने योग्य है, यदि 15 अगस्त 1947 के बाद किसी धार्मिक स्थल का परिवर्तन किया जाता है जैसा कि अधिनियम में वर्जित है तो ऐसे परिवर्तन को चुनौती दी जा सकती है। धारा 4 का परंतुक बड़े साफ़ शब्दों में यह कहता है कि यदि किसी धार्मिक स्थल का परिवर्तन 15 अगस्त 1947 के पश्चात किया जाता है तो ऐसे परिवर्तन के सम्बंधित वाद न्यायालय में संपोषणीय हैं और ऐसे स्थलों को पुनः उसी स्वरुप में लाया जाएगा जैसा स्वरुप उनका 15 अगस्त 1947 को था।
अधिनियम का अपवाद
धारा 4 को पढ़ने के उपरांत एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि यदि हर तरह के धार्मिक स्थलों से सम्बंधित मामले इस अधिनियम के परिवर्तन के साथ ही निरस्त हुए तो फिर न्यायलय ने अयोध्या विवाद कैसे सुना और निर्धारित किया?
इस प्रश्न का उत्तर हमें अधिनियम की धारा 5 में मिलता है। अधिनियम की धारा 5 यह बताती है कि यह अधिनियम अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर लागू नहीं होगा और ना ही उससे संबंधित किसी भी प्रक्रिया में हस्तक्षेप करेगा। इसी कारणवश, रामजन्मभूमि विवाद से सम्बंधित वाद, उसकी उच्चतम न्यायलय में अपील एवं और जो हाल ही में दाखिल की गयी पुनर्विचार याचिका, सभी वैध है।
अधिनियम के उल्लंघन का दंड
अधिनियम की धारा 6 में धारा 3 के उल्लंघन को दंडनीय बनाया गया है, जिसके तहत यदि कोई व्यक्ति किसी भी धार्मिक स्थल का परिवर्तन करता है तो उसे तीन वर्ष तक का कारावास भुगतना पड सकता है। इसके अतिरिक्त उस पर आर्थिक दंड भी लगाया जाएगा।
धारा 6 के अंतर्गत आपराधिक प्रयास और दुष्प्रेरण को भी दंडनीय बनाया गया है।
अयोध्या निर्णय और उपासना स्थल अधिनियम
सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या मामले के निर्णय में उपासना स्थल अधिनियम की विस्तृत व्याख्या की गई। निर्णय का भाग-I पूरी तरह उपासना स्थल अधिनियम पर प्रकाश डालता है। फैसले के पैरा संख्या 78 से लेकर संख्या 85 तक उपासना स्थल अधिनियम का ज़िक्र हैं। अपने निर्णय में न्यायलय ने अधिनियम के प्रावधानों को बारीकी से खंगाला है और विधायिका के उद्देश्य और अधिनियम की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला।
उपासना स्थल अधिनियम और पंथनिरपेक्षता
सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय में संविधान में दिए पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत को व्यक्त किया और कहा कि पंथनिरपेक्षता का ध्येय संविधान की मूल संरचना का एक अभिन्न अंग है। यह अधिनियम एक विधायी तंत्र है जिसके माध्यम से राष्ट्र की पंथनिरपेक्ष तत्वों को संरक्षित रखा जाता है।
पंथनिरपेक्षता पर सबसे महत्वपूर्ण निर्णय माने जाने वाले एस आर बोमई बनाम भारत संघ के निर्णय को न्यायलय ने रेखांकित किया और इस फैसले के मुख्य बिंदु को दोहराया जिसमें कहा गया था कि "पंथनिरपेक्षता धर्मों के प्रति उदासीनता के भाव से कहीं अधिक है। पंथनिरपेक्षता एक दायित्व है जिसका निर्वहन परम आवश्यक है"। इससे पूर्व केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के वाद में भी पंथनिरपेक्षता को संविधान की मूल संरचना का अंग बताया गया था।
अयोध्या वाद पर वापस आते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उपासना स्थल अधिनियम और पंथनिरपेक्षता का ध्येय एक दूसरे से इस तरह जुड़े हुए हैं कि इन्हें भिन्न नहीं किया जा सकता। राज्य का एक पवित्र दायित्व है कि वो सभी धर्मों की समानता को संरक्षित करने का प्रतिज्ञान करे और इस मार्ग पर कटिबद्ध रहे। फैसले में यह भी कहा गया कि इस अधिनियम के अंतर्गत सभी धार्मिक स्थलों के संरक्षण का भार राज्य के साथ साथ नागरिक के कंधों पर भी है, यह दायित्व संविधान के अनुच्छेद 51A से उत्पन्न होते हैं और हर नागरिक के लिए अनुसरणीय है।
इलाहबाद उच्च न्यायालय का निर्णय
इलाहाबद उच्च न्यायलय ने जब राम जन्मभूमि विवाद पर फैसला सुनाया था, तब उस निर्णय में न्यायमूर्ति डी वी शर्मा ने अपने फैसले में लिखा था कि उपासना स्थल अधिनियम के प्रवर्तन के पूर्व यदि कोई वाद न्यायलय के समक्ष लाया गया हो, तो यह अधिनियम उस वाद को प्रभावित नहीं करेगा।
सर्वोच्च न्यायालय न्यायमूर्ति शर्मा के इस निष्कर्ष से सहमत नहीं दिखाई दिया। सर्वोच्च न्यायलय ने इस निष्कर्ष को ख़ारिज करते हुए स्पष्ट किया कि अधिनियम के आने से पूर्व धार्मिक स्थलों के लंबित वाद भी निरस्त माने जाएंगे और 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस भी रूप में थे, उनको उसी रूप में संरक्षित किया जाएगा।
इतिहास और भविष्य
सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस निर्णय में उपासना स्थल अधिनियम के उद्देश्य को भी परिभाषित किया और कहा, "पूर्ववर्ती कृत्यों को यथावत रहने देना संवैधानिक सिद्धांतो का एक आधारभूत ढांचा है। उपासना स्थल अधिनियम एक विधायी हस्तक्षेप है जो कि पूर्ववर्ती कृत्यों को यथावत रखने में सहायक है, जिसका मुख्य ध्येय पंथनिरपेक्षता को पुष्ट करना ही है।"
पूर्ववर्ती कृत्यों पर किसी का नियंत्रण नहीं है और किसी भी समाज के इतिहास को बदला नहीं जा सकता। इस संदर्भ सर्वोच्च न्यायालय ने कहा,
"विधि का देश के इतिहास और भविष्य दोनों पर प्रभाव पड़ता है। देश के नागरिकों को देश के इतिहास को संज्ञान में लेते हुए उसे स्वीकार करने की आवश्यकता है, स्वतंत्रता का क्षण हमारे राष्ट्र के इतिहास में एक अद्वितीय मोड़ था, जिसने इतिहास के घाव भर दिए। अब हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि ऐतिहासिक भूलों का परिहार जनता कानून को अपने हाथों में लेकर नहीं कर सकती, इस अधिनियम के प्रवर्तन के साथ ही संसद ने बड़े ही साफ शब्दों में यह सुनिश्चित कर दिया कि इतिहास और ऐतिहासिक भूलों के नाम पर किसी को भी इस देश के वर्तमान और भविष्य के साथ खिलवाड करने का अधिकार नहीं है।"
निष्कर्ष
हर समाज का इतिहास कुछ अप्रिय घटनाओं से अवश्य भरा होता है और भारत का इतिहास भी भिन्न नही है। लेकिन स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद, राष्ट्र का निर्माण समानता, पंथनिरपेक्षता, आधुनिकता और संविधानवाद जैसे सिद्धांतो पर हुआ। उपासना स्थल अधिनियम को उन्ही सिद्धांतो के अग्रसरण हेतु पारित किया गया।
विधि शासन स्थापित होने के उपरांत यह राज्य का दायित्व है कि वो केवल विधि के मार्ग पर ही चले, इतिहास का बहाना लेकर कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया जा सकता जो कि अवैध हो। उपासना स्थल अधिनियम एक व्यापक विधि है जो भारत के अंदर मौजूद सभी धार्मिक स्थलों पर लागू होता है, यह एक संवैधानिक राज्य का उसके समस्त नागरिकों को एक वचन है कि इस राज्य में हर धर्म, हर मज़हब का स्थान समान है, किसी भी व्यक्ति का धार्मिक अधिकार किसी दूसरे धर्म से बड़ा या अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता।
यह भी स्पष्ट है कि अयोध्या विवाद अकेला ऐसा मामला है जिस पर इस अधिनियम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। एक दृष्टि से देखा जाये तो अयोध्या विवाद एक अपवाद है, और अपवाद केवल नियम को पुष्ट करता है। अतः वर्तमान विधिक दृष्टि से देखा जाए तो ऐसे स्थलों का परिवर्तन असंभव है। सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या निर्णय के साथ ही उपासना स्थल अधिनियम को पंथनिरपेक्षता से जोड़ दिया जो कि संविधान की मूल संरचना का अंग है और इस मूल संरचना का उद्देश्य और नियम साफ है। देश के सभी धार्मिक स्थल, चाहे वो किसी भी धर्म, पंथ, संप्रदाय के हों, सुरक्षित हैं और संरक्षित हैं और भविष्य में भी रहेंगे।
लेखक डॉ० राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय से विधि स्नातक हैं और उच्च न्यायालय, इलाहबाद में अधिवक्ता हैं।