घरेलू हिंसा (DV Act) का उद्देश्य
Shadab Salim
4 Oct 2025 4:02 PM IST

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के नामित अधिनियमन के लिए उद्देश्यों और कारणों का कथन असंदिग्ध रूप से घोषणा करता है कि 1994 के वियना समझौते के सभी सहभागी राज्यों, बीजिंग घोषणा-पत्र, कार्यवाही के लिए मंच (1995), किसी भी प्रकार की विशेष रूप से परिवार के भीतर घटित होने वाली, हिंसा के विरुद्ध महिलाओं के संरक्षण की स्वीकृति देता है।
घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के अधिनियमन के लिए उद्देश्यों एवं कारणों का कथन दर्शित करता है कि चूंकि पति या उसके नातेदार द्वारा महिला के साथ क्रूरता करना केवल अपराध था, तथा सिविल विधि घरेलू हिंसा की घटना को इसकी सम्पूर्णता में सम्बोधित नहीं करती थी, संसद ने भारत के संविधान के अनुच्छेदों 14, 15 तथा 21 के अधीन प्रत्याभूत अधिकारों को ध्यान में रखते हुए एक विधि अधिनियमित करने का प्रस्ताव किया, ताकि घरेलू हिंसा की घटना से पीड़ित होने से संरक्षित करने तथा घरेलू हिंसा की घटना रोकने के क्रम में, सिविल विधि के अधीन उपचार के लिए उपबन्ध किया जाय। अतः अधिनियम पीड़ितों के लिए सिविल उपचारों का उपबन्ध करता है ताकि घरेलू हिंसा के विरुद्ध उन्हें उपचार प्रदान किया जाय, तथा केवल तभी दण्ड दिया जा सकता है, यदि अधिनियम के अधीन पारित आदेश का उल्लंघन होता है।
अधिनियम का अर्थान्वयन करने के लिए उद्देश्यों और कारणों का कथन प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए, किन्तु रिष्टि के आशयित उपचार तथा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जानने के लिए उनको सन्दर्भित करना अनुज्ञेय है। इस पहलू पर, स्टेट आफ वेस्ट बंगाल बनाम यूनियन आफ इण्डिया, एआईआर 1963 एससी 1241 में निर्णय को सन्दर्भित करना सुसंगत है जिसमें यह निम्नलिखित रूप में धारित है:
"फिर भी यह सुस्थापित है कि, विधेयक में संलग्न उद्देश्यों तथा कारणों के कथन, जब संसद में प्रस्तुत किये गये, संविधि के सारवान प्रावधानों के सही अर्थ तथा प्रभाव को विनिश्चित करने के लिये प्रयुक्त नहीं किये जा सकते हैं। विधायन हेतु प्रेरित करने वाली पूर्व कार्यगुजारियों तथा पृष्ठभूमि को समझने के सीमित प्रयोजन के सिवाय उनका प्रयोग नहीं किया जा सकता है। लेकिन हम इस कथन का प्रयोग अधिनियमन के निर्माण के सहायक के रूप में या यह दर्शित करने के लिए नहीं कर सकते हैं कि विधानमण्डल का आशय राज्य में निहित साम्पत्तिक अधिकार ग्रहण करना या किसी रूप में खनिजों के स्वामी के रूप में राज्य सरकार के अधिकारों को प्रभावित करना था। एक संविधि जैसा कि संसद ने पारित किया, सम्पूर्ण रूप में विधायिका के सामूहिक आशय की अभिव्यक्ति है तथा किसी व्यक्ति के द्वारा हालांकि वह मंत्री हो, अधिनियम के आशय और उद्देश्य के बारे में किया गया कोई कथन संविधि में प्रयुक्त शब्दों की सामान्यता को कम करने के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है।"
वियना समझौता, 1994 तथा कार्रवाई के लिए बीजिंग घोषणा और मंच (1995) ने यह अभिस्वीकृत किया है कि घरेलू हिंसा निःसन्देह रूप से मानव अधिकारों का विवाद है। महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर अभिसमय पर संयुक्त राष्ट्र समिति ने अपनी सामान्य सिफारिश में यह सिफारिश किया है कि राज्य पक्षकारों को महिला को किसी प्रकार की हिंसा के विरुद्ध, विशेष रूप से जो परिवार के भीतर घटती है, संरक्षित करने के लिए कार्य करना चाहिए। भारत में घरेलू हिंसा की घटना व्यापक रूप से विद्यमान है, परन्तु सार्वजनिक परिधि में अदृश्यमान रही है।
सिविल विधि इस घटना को उसकी सम्पूर्णता में प्रदर्शित नहीं करती है। वर्तमान में जहाँ महिलाओं के साथ उसके पति अथवा उसके नातेदारों के द्वारा क्रूरता की जाती है, यह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498(ए) के अधीन अपराध है। महिलाओं को घरेलू हिंसा की पीड़िता होने से संरक्षण के लिए तथा समाज में घरेलू हिंसा की घटना को निवारित करने के लिए सिविल विधि में उपचार का उपबन्ध करने के लिए संसद में घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण विधेयक पुरःस्थापित किया गया।
घरेलू हिंसा निःसंदेह मानवाधिकार विवाद और विकास के प्रति गम्भीर व्यवधान है। वियना समझौता, 1994 और कार्यवाही के लिए बीजिंग घोषणा और मंच (1995) ने इसे अभिस्वीकृत किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के विभेदीकरण के उन्मूलन पर अभिसमय समिति (सी ई डी ए डब्ल्यू) ने सभी प्रकार अपनी सामान्य सिफारिश संख्या 12 (1989) में यह अनुशंसा की है कि राज्य पक्षकारों को किसी प्रकार की हिंसा, विशेष रूप से परिवार के भीतर होने वाली हिंसा के विरुद्ध महिलाओं को संरक्षण करने के लिए कार्य करना चाहिए।
घरेलू हिंसा की घटना व्यापक रूप से प्रचलित है किन्तु सार्वजनिक क्षेत्र में व्यापक रूप से अदृश्य है। वर्तमान में, जहां महिला अपने पति या उसके सम्बन्धियों द्वारा क्रूरता के अधीन रखी जाती है, वहां वह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498- क के अधीन अपराध है। लेकिन, सिविल विधि इस घटना के सम्बन्ध में पूर्ण रूप से प्रावधान नहीं करती।
इसलिए सिविल विधि के अधीन, जो महिलाओं का घरेलू हिंसा का पीड़ित होने से संरक्षण करने और समाज में घरेलू हिंसा की घटना को निवारित करने के लिए आशयित है, उपचार के लिए प्रावधान करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के अधीन प्रत्याभूत अधिकारों को ध्यान में रखकर अधिनियमित करने की प्रस्थापना की जाती है।
यह उन महिलाओं को आच्छादित करता है, जो दुर्व्यवहारी से सम्बन्धित हैं या सम्बन्धित रही हैं, जहां दोनों पक्षकार साझी गृहस्थी में एक साथ रह रहे हैं और समरक्तता, विवाह द्वारा या विवाह अथवा दत्तक ग्रहण की प्रकृति में सम्बन्ध के माध्यम से सम्बन्धित हैं। इसके अतिरिक्त संयुक्त परिवार में के रूप में एक साथ रहने वाले परिवार के सदस्यों के साथ सम्बन्ध को भी शामिल किया जाता है। वे महिलाएं भी, जो बहन, विधवा, माता, अकेली महिला हैं या दुर्व्यवहार के साथ रह रही हैं, प्रस्तावित विधायन के अधीन विधिक संरक्षण की हकदार हैं, लेकिन चूंकि विधेयक पत्नी या विवाह की प्रकृति के सम्बन्ध में रहने वाली महिला को पति या पुरुष भागीदार के किसी सम्बन्धी के विरुद्ध प्रस्तावित अधिनियमित के अधीन परिवाद दाखिल करने के लिए समर्थ बनाता है, इसलिए यह पति या पुरुष भागीदार के किसी महिला सम्बन्धी की पत्नी या महिला भागीदार के विरुद्ध परिवाद दाखिल करने के लिए समर्थ नहीं बनाता।
यह पद "घरेलू हिंसा" को परिभाषित करता है, जिसमें वास्तविक गाली वा धमकी या दुर्व्यवहार अर्थात् शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक अथवा आर्थिक है। महिला के सम्बन्धी द्वारा विधि विरुद्ध दहेज की मांग द्वारा तंग करना भी इस परिभाषा के अधीन आच्छादित किया जायेगा।
यह आवास को सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं के अधिकार के लिए प्रावधान करता है। यह महिलाओं के अपने वैवाहिक गृह या साझी गृहस्थी में निवास करने के अधिकार के लिए प्रावधान करता है, चाहे उसे ऐसे घर या गृहस्थी में कोई हक या अधिकार है या नहीं। इस अधिकार को निवास आदेश द्वारा सुनिश्चित किया जाता है, जो मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया जाता है।
यह मजिस्ट्रेट को व्यथित व्यक्ति के पक्ष में प्रत्यर्थी को घरेलू हिंसा के कार्य या किसी अन्य विनिर्दिष्ट कार्य में सहायता करने या कारित करने, व्यथित व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त कार्य स्थल या किसी अन्य स्थल में प्रवेश करने, उसको संसूचित करने का प्रयत्न करने, दोनों पक्षकारों द्वारा प्रयुक्त किसी सम्पत्ति से पृथक् करने और व्यथित व्यक्ति, उसके सम्बन्धी या अन्य के प्रति जो घरेलू हिंसा में उसकी सहायता करते हैं, हिंसा कारित करने से निवारित के लिए संरक्षण आदेश पारित करने के लिए मजिस्ट्रेट को सशक्त करता है।
यह संरक्षण अधिकारी की नियुक्ति और व्यथित व्यक्ति को उसकी चिकित्सीय परीक्षा, विधिक सहायता प्राप्त करने, सुरक्षित आश्रय इत्यादि के सम्बन्ध में सहायता प्रदान करने के लिए सेवा प्रदाता के रूप में गैर-सरकारी संगठनों के रजिस्ट्रीकरण के लिए प्रावधान करता है।
इस कानून की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, न्यायालयों से अत्यन्त संवेदनशील दृष्टिकोण अपेक्षित होता है, जहां 2005 के अधिनियमों के अधीन कोई अनुतोष नहीं दिया जा सकता हो तो इसकी कभी परिकल्पना ही नहीं करनी चाहिए किन्तु पोषणीयता के आधार पर एकदम आरम्भिक स्तर पर याचिका को निरस्त करने से पहले उठाये गये विवाद्यकों पर प्रासंगिक विमर्श एवं गहन विचारण होना चाहिए। यह मस्तिष्क में रखना चाहिए कि बेसहारा एवं किस्मत का मारा हुआ, 2005 के अधिनियम के अधीन "व्यथित व्यक्ति" बहुत मजबूरी में कोर्ट में आता है। सभी दृष्टिकोण से विचार करना कोर्ट का कर्तव्य होता है कि क्या प्रत्यर्थी द्वारा प्रस्तुत दलील व्यथित व्यक्ति के व्यथा को समाप्त करने के लिए वास्तविक रूप से विधितः मजबूत एवं सही है।
हेतुक के प्रति न्याय, सागर के नमक के समकक्ष है" इस सिद्धान्त को ध्यान में रखना चाहिए। विधि का कोर्ट इस सत्य को मान्यीकृत करने के लिए बाध्य है जो जब न्याय किया जाता है तो चमकता है। आरम्भतः किसी याचिका को खारिज करने से पहले यह देखना बाध्यकारी होता है कि ऐसे विधायन के अधीन व्यथित व्यक्ति अनिर्णयन की स्थिति का सामना न करे।

