निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 1 : परक्राम्य लिखत अधिनियम का परिचय

Shadab Salim

5 Sept 2021 9:26 PM IST

  • निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 1 : परक्राम्य लिखत अधिनियम का परिचय

    परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) भारत में अधिनियमित एक महत्वपूर्ण अधिनियम है जो कुछ लिखत से संबंधित नियमों को प्रस्तुत करता है। निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 काफी पुराना और प्रसिद्ध अधिनियम है।

    इस आलेख के अंतर्गत इस अधिनियम के इतिहास तथा इसके वर्तमान स्वरूप के साथ ही इसका परिचय भी प्रस्तुत किया जा रहा है। इसके बाद के आलेखों में इस अधिनियम से संबंधित विशेष प्रावधानों पर टीका, टिप्पणी प्रस्तुत की जाएगी तथा सारगर्भित महत्वपूर्ण न्याय निर्णयों का भी उल्लेख किया जाएगा।

    परिचय-

    निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 में धरातल पर आया तथा 1 मार्च 1882 से भारत में अधिनियमित हुआ। इस अधिनियम को समझने हेतु सर्वप्रथम तो इसके नाम को समझा जाना चाहिए। परक्राम्य का अर्थ है हस्तांतरण तथा लिखित का अर्थ है कोई भी लिखित दस्तावेज।

    कोई भी ऐसा लिखित दस्तावेज जिसका हस्तांतरण किया जा सकता है उसे परक्राम्य लिखत कहा जा सकता है परंतु इस अधिनियम के अंतर्गत परक्राम्य लिखत केवल तीन चीजों को माना गया है। पहला वचन पत्र, दूसरा विनिमय पत्र तथा तीसरा चेक। इन तीनों दस्तावेजों को परक्राम्य लिखत माना गया है तथा इस समस्त अधिनियम में इन तीनों दस्तावेज से संबंधित प्रावधानों को ही प्रस्तुत किया गया है।

    इन तीनों दस्तावेज के नियमन के उद्देश्य से ही अधिनियम बनाया गया है। इस अधिनियम में कुल 148 धाराएं हैं।

    अगले आलेखों में इन तीनों ही प्रकार के दस्तावेजों पर सारगर्भित टिप्पणी की जाएगी तथा उसके बाद के आलेखों में उन दस्तावेजों से संबंधित नियमों को प्रस्तुत किया जाएगा

    "हुण्डी" शब्द एक सामान्य शब्द है जो देशी भाषा में संस्कृत शब्द " हुण्ड" (Hund) के जड़ में है जिसका अर्थ उगाही (collect) करना होता है। भारत में अंग्रेजी शासन के आने पर पर व्यापारिक क्रियाओं में असीम वृद्धि हुई और मुद्रा की बढ़ती हुयी माँग को केवल सिक्कों की आपूर्ति से पूरा नहीं किया जा सकता था अतः साखपत्र मुद्रा का स्थान ग्रहण किए।

    भारत में न्यायालयों ने इंग्लैण्ड में प्रचलित परक्राम्य लिखतों के विधि को प्रयोज्य मान्य किया जहाँ यूरोपियन के सम्बन्ध में लिखतों के किसी विवाद के सम्बन्ध में कोई प्रश्न उत्पन्न होता था। लिखत के पक्षकार हिन्दू या मुस्लिम होने की दशा में उनके वैयक्तिक विधि प्रवर्तनीय होता था।

    न तो हिन्दू और न तो मुस्लिमों के वैयक्तिक विधि में परक्राम्य लिखतों के सम्बन्ध में कोई सन्दर्भ नहीं मिलता है और न्यायालयों द्वारा सम्बन्धित समुदायों जैसी भी स्थिति हो, उनके संव्यवहारों में उनके व्यापारियों के बीच प्रचलित रूढ़ि को मान्य किया जाता था।

    समय के अनुक्रम में देश में हिन्दुओं से सम्बन्धित एक बलशाली प्रथा का विकास हुआ जिसे यहाँ तक विधायिका भी भारतीय बैंकों एवं व्यापारियों की अज्ञानता में बिना कठिनाई के लागू नहीं कर सका।

    वास्तव में विधायिका ने ऐसे स्थानीय प्रथाओं में बल महसूस किया और यह उचित माना कि उन्हें विधि के प्रवर्तन से समुचित शब्दों के द्वारा उन्हें पूर्णतया अपवर्जित किया जा सके। सदिजन्य विधि के अभाव में भारतीयों पर अंग्रेजी विधि से प्राप्त साम्या, न्याय एवं अच्छे अन्तरात्मा के नियम को लागू करते थे।

    1866 में भारतीय विधि आयोग ने परक्राम्य लिखत विधेयक तैयार किया जिसे परिषद में दिसम्बर, 1867 को प्रस्तुत किया। विधेयक को प्रवर समिति को सन्दर्भित किया गया। अनेकों आक्षेप उठाए गए। 1877 में इसे पुनः प्रारूपित किया गया।

    स्थानीय सरकार, उच्च न्यायालयों एवं चैम्बर्स ऑफ कामर्स के आलोचना पर एक लम्बे अन्तराल के बाद प्रवर समिति द्वारा विधेयक को पुनरीक्षित किया गया। इसके बावजूद भी विधेयक अन्तिम रूप नहीं ले सका। 1880 में भारत के सचिव के आदेश पर विधेयक को नये विधि आयोग को सन्दर्भित किया गया।

    नये विधि आयोग के अनुशंसा पर विधेयक को पुनः प्रारूपित किया गया और इसे पुनः प्रवर समिति को भेजा गया जिसने नयी विधि आयोग के अधिकांश अनुशंसा को ग्रहण किया। इस प्रकार चौथी बार प्रारूप तैयार कर परिष26वां अधिनियम परिषद् से परक्राम्य लिखत विधेयक को पारित कर 9 दिसम्बर, 1881 को सहमति प्राप्त किया और 1 मार्च, 1882 को परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (1881 का 26वां) प्रवर्तित हुआ।

    परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 में बैंकों के अनादर को प्रभावी ढंग से निपटने का कोई विशेष प्रावधान न होने से समाज में बैंकों का अनादर असामान्य रूप में बहुलता से होते थे जिससे लोग चेक को में भुगतान में समान्य रूप से स्वीकार करने में संकोच एवं भय रखते थे।

    अनादर से पीड़ित धारक को चेक के लेखीवाल के विरुद्ध प्रभावी उपचार की व्यवस्था न होने से वह अपने को असहाय पाता था। इससे चेकों के अनादर पर एक नए विधि की आवश्यकता हुई। अतः 1988 में एक नया 17वाँ अध्याय "खातों में अपर्याप्त निधियों के कारण कतिपय चेकों के अनादर की दशा में शास्तियाँ" अधिनियमित किया गया और अधिनियम में 138 से 142 तक नयी धाराएँ अन्तःस्थापित की गई।

    उक्त विधि का उद्देश्य मुख्यतः था:-

    (1) चेकों के प्रयोग को प्रोत्साहित करना एवं

    (2) चेकों की विश्वसनीयता में वृद्धि करना था। चेकों के अनादर को इस नयी विधि में अनेक कमियों को व्यवहार में पाया गया। अतः 2002 में पुनः 143 से 147 तक के प्रावधान जोड़े गए जिससे चेकों के अनादर एवं उसके संज्ञान पर सम्पूर्ण संहिता हो सके।

    (3) पुन: 2015 में धारा 142क जोड़ा गया एवं

    (4) धाराएँ 143क एवं 148 को 2018 में जोड़ा गया।

    इस प्रकार अब चेकों के अनादर के सम्बन्ध में धाराएँ 138 से 148 तक हैं।

    परक्राम्य लिखत (संशोधन एवं प्रकीर्ण प्रावधान) अधिनियम, 2002 का उद्देश्य एवं कारण-

    1:- परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 को बैंकिंग, पब्लिक फाइनेन्शियल इन्स्टीट्यूशन्स एण्ड निगोसिएबुल इन्स्ट्रमेण्ट लॉज (संशोधन) अधिनियम, 1988 द्वारा संशोधित कर एक नया अध्याय सत्रहवाँ अधिनियमित किया गया "खातों में अपर्याप्त निधियों के कारण कतिपय चेकों के अनादर की दशा में शास्तियाँ"। इन उपबन्धों को नियमित करने का उद्देश्य चेकों के प्रयोग की संस्कृति को प्रोत्साहित करना एवं लिखतों के विश्वसनीयता में अभिवृद्धि करना था। परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 में जोड़े गये वर्तमान उपबन्ध धारा 138 से 142 बैंकों के अनादर के लिए कम पाए गये एवं अधिनियम में उपबन्धित दण्ड अपर्याप्त पाए गए इन मामलों से सम्बन्धित न्यायालयों की प्रक्रिया भी जटिल पायी गयो। अधिनियम में उपबन्धित प्रक्रिया भी समयबद्ध तरीके से अनादर के मामलों को तेजी से निपटाने में न्यायालय असमर्थ पाये गये।

    2:- देश में परक्राम्य लिखत अधिनियम को उक्त धाराएँ 138 से 142 के अधीन अधिक संख्या में विभिन्न न्यायालयों में विचाराधीन पाए गए। इस सम्बन्ध में अधिक संख्या में प्राप्त परिवादों को ध्यान में रखते हुए जो विभिन्न न्यायालयों में लम्बित थे, एक कार्य समूह गठित किया गया जिसका कार्य धारा 138 को पुनर्विलोकन करना था एवं इस धारा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक संशोधन की आवश्यकता की अनुशंसा करना था।

    3:- सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एवं अन्य विधिक विशेषज्ञों के परामर्श से कार्य समूह की अनुशंसा एवं अन्य संस्थाओं व संगठनों के प्रतिवेदनों का परीक्षण किया एवं एक विधेयक नामतः परक्राम्य लिखत (संशोधन) विधेयक, 2007, 24 जून, 2001 को लोक सभा में प्रस्तुत किया गया और विधेयक को वित्तीय विषय पर प्रवर समिति को सन्दर्भित किया गया जिसके द्वारा कतिपय निम्नलिखित संशोधन लोक सभा में रखे गये।

    4:- प्रवर समिति की अनुशंसाओं को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित संशोधन परक्राम्य लिखत अधिनियम के करने के लिए निर्णय लिए गए

    (1) अधिनियम में उपबन्धित 1 वर्ष के दण्ड को 2 वर्ष में वृद्धि करना।

    पत्र मुद्रा (कागजी) अधिनियम-पत्र मुद्रा अधिनियम, 1871 को परक्राम्य लिखत अधिनियम के प्रावधान प्रभावित नहीं करते हैं। 1871 का अधिनियम उत्तरोत्तर पत्र मुद्रा अधिनियमों द्वारा मान्य किया गया, अन्तिम भारतीय मुद्रा अधिनियम, 1923 था जिसे भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 से निरसित किया गया 1871 के अधिनियम की धारा 21 के प्रावधान को भारतीय रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया अधिनियम, 1934 की धारा 31 में सूक्ष्म उपान्तरों के साथ पुनः अधिनियमित किया गया है। 1946 के अधिनियम की यथासंशोधित धारा 31 है।

    (2) परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 में किसी बात के होते हुए भी रिजर्व बैंक से या इस अधिनियम द्वारा अभिव्यक्तः यथा प्राधिकृत केन्द्रीय सरकार से भिन्न भारत में कोई व्यक्ति कोई ऐसा वचनपत्र, जिसमें यह अभिव्यक्त है कि लिखत के वाहक को देय है, न तो लिखेगा न ही निर्गमित करेगा। पत्र मुद्रा अधिनियम का उद्देश्य बैंक एवं निजी व्यक्तियों को निर्णन के सरकार के एकाधिकार के उल्लंघन से रोकता है। यह एकाधिकार अब भारतीय रिजर्व बैंक में और कतिपय मामलों में केन्द्रीय सरकार में निहित है। वाहक को माँग पर देय " से अभिप्रेत कि कोई व्यक्ति के धारक के पृष्ठांकन के बिना भुगतान प्राप्त कर सकता है यह धारा बैंक खाते पर वाहक चेक लिखने से मनाही नहीं करता है।

    चेक सुविधा बैंक में किए गए जमा धन को चेक से आहरित करने की सुविधा बैंक का एक आवश्यक कार्य है जिसे केन्द्रीय सरकार अधिसूचना द्वारा भारत के रिजर्व बैंक की अनुशंसा पर बैंकिंग कम्पनियों को अनुज्ञात कर सकेगी।

    बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 की धारा 49क के अनुसार चेक द्वारा आहरण की सुविधा केवल कंग कम्पनी रिजर्व बैंक स्टेट बैंक या अन्य बैंकिंग संस्थाएं फर्म या अन्य कोई व्यक्ति जो रिजर्व बैंक की अनुशंसा पर केन्द्रीय सरकार द्वारा अधिसूचित है, प्रदान कर सकेगी परन्तु यह कि इस धारा में उपबन्धित कोई बात सरकार द्वारा अधिसूचित सेविंग बैंक स्कीम पर लागू होगी। वचनपत्र विनिमय पत्र एवं चेकों से सम्बन्धित परक्राम्य लिखत अधिनियम आंग्ल कामन लॉ पर आधारित है।

    भारतीय विधि के संहिताकरण में आंग्ल विधि के प्रावधानों को निष्ठापूर्वक अपनाया गया है। अतः भारतीय शर्तों के विलक्षण किन्ही विशेष परिस्थितियों के अभाव में भारतीय न्यायालय भारतीय विधि को आंग्ल विधि के प्रावधानों की अनुकूलता में व्याख्या करने के लिए अनुमन्य थे परन्तु लॉ मर्चेन्ट के ये भाग जिसे भारतीय विधायिनी स्वीकार करने के समुचित पायो उसे भारतीय संविदा अधिनियम एवं परक्राम्य लिखत अधिनियम में सम्मिलित कर लिया और इस प्रकार यह न्यायालयों की क्षमता में नहीं था कि स्थापित आधारों को छोड़कर अनिश्चित क्षेत्रों में खोज करें जो लॉ मर्चेन्ट पदावली से परिभाषित थे।

    उसी समय, परक्राम्य लिखत अधिनियम को विस्तृत और परक्राम्य लिखत के सभी पहलुओं को छूता हुआ विस्तारित नहीं कहा जा सकता है। अतः जहाँ कहाँ भी इसके प्रावधानों के निर्वाचन में कहीं भी कोई सन्देह में आंग्ल निर्णय को निर्देशन के रूप में सन्दर्भ देना विधिसम्मत होगा; देखें शिवराम बनाम जयराम मुदालियर, न्या० रामामूर्ती 5 अधिनियम के प्रावधानों को इस रूप में निर्वाचन किया जाना चाहिये जिससे परक्राम्य लिखतों को हाथों हाथ से बिना किसी सन्देह एक अस्पष्टता के परन्तु यथार्थ एवं निश्चितता के साथ संचलन को प्राप्त किया जा सके एवं अभिवृद्धि हो सके। न्यायालय किसी भी ऐसे निर्वाचन एवं तर्क को स्वीकार न करें जिससे व्यापार को अत्यधिक असुविधा एवं कठिनाई कारित हो।

    अधिनियम विल, नोट एवं चेक के केवल निर्गमन एवं परक्रामण को विनियमित करता है, लेकिन ऐसे लिखतों के विधि के प्रवर्तन या जीवित पक्षकारों के अन्तरण से अधिकारों के अन्तरण का कोई प्रावधान नहीं करता है।

    परक्राम्य लिखतों के आंग्ल विधि को विनिमय पत्र अधिनियम, 1872 द्वारा संहिताकरण किया गया। यद्यपि कि भारतीय एवं आंग्ल विधि में भाषा एवं व्यवस्था में अन्तर है, दोनों आंग्ल कामन लॉ का अनुसरण करते हैं। भारतीय अधिनियम को आंग्ल अधिनियम के पहले पारित किया गया है।

    स्थानीय सीमा- भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के पारित होने के पूर्व अधिनियम का विस्तार सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत पर था। स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 की धारा 18 (3) में यह प्रावधानित था कि इस अधिनियम में अभिव्यक्त अन्यथा उपबन्धित के सिवाय, ब्रिटिश भारत के सभी विधि एवं उसके विभिन्न भागों जो नियत तिथि के ठीक पूर्व अस्तित्व में थे आवश्यक अनुकूलता के साथ प्रत्येक नए राज्य और उसके अनेक भागों में प्रयोज्य होंगे, जब तक कि विधायिका या अन्य प्राधिकारी जो इस सम्बन्ध में शक्ति रखते हैं, विधि द्वारा अन्य प्रावधान बनाते हैं तभी से भारतीय संविधान अधिनियमित किया गया है और संविधान के अनुच्छेद 372 के द्वारा यह प्रावधानित है कि इस संविधान के प्रारम्भ के ठीक पूर्व, सभी विधि जो भारत के क्षेत्र में प्रवृत्त है, इसके अन्तर्गत प्रवृत्त बने रहेंगे जब तक कि किसी सक्षम विधायिका या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा उन्हें परिवर्तित निरसित या संशोधित नहीं किया जाता है।

    संविधान के अनुच्छेद 246 द्वारा यह प्रावधान किया गया है कि सातवें अनुसूची के सूची (संघ सूची) में दिए गए मामलों के किसी भी बाद के सम्बन्ध में संसद को विधि बनाने की अनन्य शक्ति प्राप्त है।" संघ सूची के मद 46 में विनिमय पत्र, चेक, वचनपत्र एवं अन्य समान लिखतों को सम्मिलित किया गया है। सूची के 45वें मद बैंकिंग से सम्बन्धित है। इस प्रकार परक्राम्य लिखतों एवं बैंकिंग के विषय संसद के अनन्य अधिकारिता में आते हैं जिसे केवल परक्राम्य लिखत अधिनियम में परिवर्तन या संशोधन करने की शक्ति है।

    यहाँ पर विनिमय पत्र, चेक एवं वचनपत्र के सम्बन्ध में विधि बनाने की संसद एवं राज्यों की विधायिकी शक्तियाँ महत्वपूर्ण हैं। राज्य विधायिका अपनी सूची में विधि बनाते समय अपनी अधिकारिता का उल्लंघन करता है और प्रसंगत: भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अधीन किसी संघीय विषयों का उल्लंघन करता है, के प्रश्न को उच्चतम न्यायालय ने बाम्बे राज्य बनाम नरोत्तम दास में निर्णत किया है।

    इस मामले बम्बई उच्च न्यायालय में 11,074 रु० की वसूली के लिए एक वाद लाया। यह वाद वचनपत्र के आधार पर यह कथन करते हुए कि प्रान्तीय विधायिका विधि बनाने की कोई शक्ति वचनपत्र के सम्बन्ध में नहीं रखती है जो कि भारत सरकार अधिनियम, 1935 को सातवीं अनुसूची की सूची में प्रविष्टि 53 से आच्छादित होता है, और इसलिए बाम्बे सीटो सिविल कोर्ट एक्ट, 1948 शक्ति बाह्य था।

    यह धारित किया गया कि आक्षेपित अधिनियम सूची-II (प्रविष्टि 2 साथ सपठित प्रविष्टि 1) भारत सरकार अधिनियम, 1935 सूची से सम्बन्धित था अतः शक्ति बाह्य नहीं था, यहाँ तक कि आक्षेपित अधिनियम सूची-।। के आच्छादित विषय के सम्बन्ध में विधि के सार एवं तत्य से सम्बन्धित था। यह तथ्य कि यह प्रसंगत वचनपत्र से सम्बन्धित वाद से प्रभावित है (सूची के अन्तर्गत आने वाली प्रविष्टि 28 एवं 53 से सम्बन्धित) इसकी विधिमान्यता को प्रभावित नहीं करेगी।

    स्थानीय प्रथाएं:- अधिनियम अपने प्रवर्तनीयता से बचाता है किसी स्थानीय प्रथाएं जो किसी ओरिएण्टल (प्राच्य) भाषा से सम्बन्धित लिखतों को यह अधिनियम वचनपत्रों, विनिमय पत्रों एवं चेकों पर प्रयोज्य होता है, परन्तु जहाँ लिखत ओरिएण्टल (प्राच्य) भाषा के हैं, अर्थात् "हुण्डी" या "रुक्का" वहाँ इस अधिनियम के प्रावधानों के बावजूद स्थानीय प्रथा प्रयोज्य होंगे। इस व्यावृत्ति खण्ड का प्रभाव यह नहीं है कि अधिनियम को पूर्ण रूप से "हुण्डी" के सम्बन्ध में अप्रयोज्य बनाना है।

    यह केवल वहाँ जहां स्थानीय प्रथा प्रतिकूल है वहाँ स्थानीय प्रथा अधिनियम के प्रावधानों पर अधिभावी होगा। ऐसी किसी प्रथा के सबूत के अभाव में अंग्रेजी भाषा में लिखे गए लिखतों अर्थात् "हुण्डियों" पर प्रयोज्य होगा। परन्तु ऐसी लिखतों में जहाँ ऐसा आशय इंगित है कि पक्षकारों के विधिक सम्बन्ध इस अधिनियम से शासित होंगे वहाँ स्थानीय प्रथा लागू नहीं होंगे।

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