एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 9: कैनाबिस के पौधे (गांजा पौधा) के संबंध में प्रावधान

Shadab Salim

4 Nov 2023 2:49 PM IST

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 9: कैनाबिस के पौधे (गांजा पौधा) के संबंध में प्रावधान

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 20 कैनाबिस के पौधे से संबंधित है। अफीम का पौधा एवं गांजा का पौधा दोनों ही अलग अलग है। कैनाबिस के पौधे के तने एवं पत्तियों से गांजा तैयार किया जाता है लेकिन एनडीपीएस एक्ट समस्त कैनाबिस के पौधे के संबंध में ही प्रावधान करती है। धारा 20 इससे संबंधित अपराध के मामले में दंड का प्रावधान करती है। इस आलेख में धारा 20 टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा 20 का मूल रूप है

    धारा 20. कैनेबिस के पौधे और कैनेबिस के संबंध में उल्लंघन के लिए दंड-

    जो कोई, इस अधिनियम के किसी उपबंध या इसके अधीन बनाए गए किसी नियम या निकाले गए किसी आदेश या दी गई अनुज्ञप्ति की शर्त के उल्लंघन में,-

    (क) किसी कैनबिस के पौधे की खेती करेगा; या

    (ख) कैनेबिस का उत्पादन, विनिर्माण, कब्जा, विक्रय, क्रय, परिवहन,अंतरराज्यिक आयात, अंतरराज्यिक निर्यात या उपयोग करेगा-

    '[(i) जहां ऐसा उल्लंघन खंड (क) से संबंधित है वहां, कठोर कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी, जो एक लाख रुपए तक का हो सकेगा, और

    (ii) जहां उल्लंघन खंड

    (ख) से संबंधित हैं-

    (क) और अल्पमात्रा अन्तर्ग्रस्त करता है, वहां कठोर कारावास से, जिसकी अवधि छह मास तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो दस हजार रुपए तक का हो सकेगा, अथवा दोनों से;

    (ख) और जहां वाणिज्यिक मात्रा से कम किंतु अल्प मात्रा से अधिक मात्रा को अन्तर्ग्रस्त करता है, वहां कठोर कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने से, जो एक लाख रुपए तक का हो सकेगा;

    (ग) और जहां वाणिज्यिक मात्रा को अन्तर्ग्रस्त करता है, वहां कठोर कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष से कम की नहीं होगी किंतु बीस वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने से भी, जो एक लाख रुपए से कम का नहीं होगा किंतु जो दो लाख रुपए तक का हो सकेगा दंडनीय होगा: परंतु न्यायालय, ऐसे कारणों से, जो निर्णय में लेखबद्ध किए जाएंगे, दो लाख रुपए से अधिक का जुर्माना अधिरोपित कर सकेगा।

    इस धारा में वाणिज्यिक मात्रा हेतु कठोर दंड अधिरोपित किया गया है जहां कम से कम 10 वर्ष का कारावास है एवं अधिकतम बीस वर्ष तक का कारावास है, साथ ही इस धारा में वाणिज्यिक मात्रा से ज्यादा गांजा जप्त होने पर दो लाख रुपए तक का जुर्माना भी है।

    स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ (संशोधन) अधिनियम, 2001 (2001 का 9) द्वारा धारा 20 में संशोधन किया गया है। पूर्ववर्ती खंड (i) एवं (ii) को प्रतिस्थापित किया गया है। यह संशोधन दिनांक 2-10-2001 से प्रभावी किया गया है ।

    मालखाना रजिस्टर

    स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम गुरमेल सिंह, 2005 सुप्रीम कोर्ट (क्रिमिनल) 641:2005 क्रिलॉज 1746 के मामले में मालखाना रजिस्टर को यह प्रमाणित करने के लिए कि मालखाना में जप्त वस्तुओं को रखा गया था, प्रस्तुत नहीं किया गया था। इसके अलावा सील का नमूना भी नमूने के साथ एक्साइज लेबोटरी के लिए नमूने की बोतल पर प्रतीत होने वाली सील से मिलाने करने के प्रयोजन के लिए नहीं भेजा गया था। इसके अलावा अभियोजन के द्वारा प्रस्तुत लिंक साक्ष्य संतोषप्रद होना नहीं पाई गई थी। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    वेंकटराव बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, 2006 क्रि लॉ ज 2326 छत्तीसगढ़ के मामले में मालखाना रजिस्टर की प्रतिलिपि से यह दर्शित नहीं होता था कि अपीलांट अभियुक्त से जप्त गाँजा अथवा उससे प्राप्त किए गए नमूने को मालखाना में सुरक्षित अभिरक्षा में सीलबंद दशा में न्यसित किया गया था। अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों का अपालन होना नहीं पाया गया। मामले में मुख्य आरक्षक अभियोजन साक्षी 1 ने यह भी मंजूर किया था कि दिनांक 1/3/2003 को 1985 के अधिनियम के अधीन 3 मामले रजिस्टर्ड किए गए थे और इन तीनों मामलों की सम्पत्ति को मालखाना में जमा किया गया था।

    उसने प्रतिपरीक्षण में यह भी मंजूर किया था कि तीनों मामलों की न्यसित सम्पत्ति में से दो पैकिटों को रासायनिक परीक्षण के लिए दिनांक 6/3/2003 को भेजा गया था। इसलिए इस बात की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि फोरेंसिक साइंस लेबोटरी के द्वारा प्राप्त किए गए पदार्थ उस स्वरुप का नहीं था जो कि अभियुक्त के आधिपत्य से जप्त किया गया था अथवा इसमें बिगाड़ हो गया था अपराध अप्रमाणित होना नहीं माना गया।

    प्रेमचंद बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश, 2006 क्रि लॉ ज 1821 हिमाचल प्रदेश प्रकरण में यह तर्क दिया गया कि मालखाना रजिस्टर में मालखाना में बरामद चरस के दो नमूने जमा किए जाने मात्र का अभिलेख था। एमएचसी ने प्रथम सूचना रिपोर्ट सील के नमूने के प्रति एवं एनसीबी फॉर्म भी रासायनिक परीक्षक को भेजा था उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि यह बात सही है। परंतु पुलिस नियमों अथवा अभिलेख में ऐसा कुछ नहीं है जिससे यह दर्शित हो सकता हो कि प्रथम सूचना रिपोर्ट की प्रतिलिपि सील का नमूना, एनसीबी फॉर्म को मालखाना में जमा किया जाना होता है, वस्तुतः यह दस्तावेज पुलिस स्टेशन की केस फाइल में रहते हैं और रासायनिक परीक्षक को नमूने के साथ भेजे जाते हैं। परिणामतः इस बिन्दु पर दिया गया तर्क बिना सार का माना गया।

    मालखाना संबंधी साक्ष्य

    समीर घोष बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल, 2001 (1) क्राइम्स 505 कलकत्ता के मामले में साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। अभियोजन इस तथ्य को प्रमाणित करने में विफल रहा था कि नारकोटिक्स सेल के मालखाना में वस्तुओं को कब प्राप्त किया गया था और कब मालखाना से वस्तुओं को प्राप्त कर रासायनिक परीक्षण के लिए भेजा गया था। अधिनियम की धारा 52(क) को परीक्षित कराए जाने का विधायिका का प्रयोजन यह है कि वस्तुओं को प्रतिस्थापित करने से रोका जा सके। वर्तमान मामले में परिणामतः अभियोजन का मामला विफल माना गया।

    अभियुक्त की प्रतिरक्षा में प्रतिकूलता

    गुरुचरणसिंह बनाम स्टेट ऑफ एम.पी.,1992 (1) म.प्र.वी. नो. 53 म.प्र.) प्रकरण में इस आशय का तर्क दिया गया था कि अधिनियम की धारा 41 व 42 के आदेशात्मक प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था। एएसआई जिसके द्वारा जानकारी प्राप्त की गयी थी वह नाम अभिलिखित करने में विफल रहा था।

    इस तथ्य को उसने न्यायालय के समक्ष दिए गए कथन में मंजूर किया था। अभियुक्त के अधिवक्ता के द्वारा न्याय दृष्टांत स्टेट ऑफ बिहार बनाम कपिल सिंह, एआईआर 1969 सुप्रीम कोर्ट 53 के चरण 10 पर निर्भरता व्यक्त करते हुए यह तर्क दिया गया कि ढाबा में प्रविष्ट होने के पूर्व पुलिसजन ने एवं तलाशी दल में साथ होने वाले साक्षीगण ने उनकी खुद की तलाशी नहीं दी थी।

    श्री आरएस.सिंह, अमरसिंह व मुख्य आरक्षक की साक्ष्य से यह स्पष्ट था कि अभियुक्त को मिथ्या लिप्त किए जाने की संभावना को दूर करने के लिए परिकल्पित विधिक अपेक्षाओं का पालन नहीं किया गया था। यह तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 50 के तहत तलाशी संचालित करने वाले पुलिस अधिकारी के लिए यह आबद्धकारी था कि वह अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में तलाशी करवाए जाने के विकल्प को चुनने के अधिकार से अवगत कराता।

    अभियोजन साक्ष्य से यह स्पष्ट था कि अभियुक्त को ऐसी कोई सूचना नहीं दी गई और इस कारण वह कथित प्रावधान के अधीन उसके विकल्प का उपयोग नहीं कर सका था। इस प्रकार यह तर्क दिया गया कि आक्षेपित दोषसिद्धि करने में गंभीर दुर्बलता थी। परिणामतः दोषसिद्धि व दंडादेश स्थिर रखनेयोग्य नहीं है। प्रकरण में निम्न न्याय दृष्टांतों पर निर्भरता व्यक्त की गई थी- 1991. जेएलजे 415 एआईआर 1979 सुप्रीम कोर्ट, 711 इन लचरताओं को स्पष्ट नहीं किया जा सका था।

    अभियोजन का मामला किसी एक दुर्बलता से ग्रसित नही था अपितु अधिनियम की धारा 41, 42 व 50 के प्रावधान के उल्लंघन के रुप में गंभीर दुर्बलताएँ थीं। महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि अभियुक्त के पेंट की जेब से प्रतिषिद्ध वस्तु की बरामदगी हुई थी परन्तु यह तथ्य जब्ती पत्रक में वर्णित नहीं था।

    उच्च न्यायालय ने व्यक्त किया कि इस तरह के मामलों में जहां कि 10 वर्ष के निरोध की सजा हो व 1,00,000 रुपए के जुर्माने को अधिरोपित किया जा सकता हो, जांच करने वाले अधिकारी से प्रक्रियात्मक आबद्धताओं के प्रति पूरी तौर पर सजग व निष्ठापूर्ण होने की प्रत्याशा की जाती है। ऊपर इंगित दुर्बलताओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि अभियुक्त को उसकी प्रतिरक्षा में सारवान प्रतिकूलता हुई थी। परिणामतः अभियुक्त को दोषी माने जाने से अनिच्छा व्यक्त की गई।

    अपराध 20 (ग) के बजाए धारा 20(ख) के अधीन

    रामावतार बनाम स्टेट, 2011 क्रिलॉज 69 राजस्थान के मामले में विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को अधिनियम की धारा 8/20 (ख) (2) (ग) के अंतर्गत दोषसिद्ध किया था उस पर 10 वर्ष का सश्रम निरोध व 1 लाख रुपए जुर्माना अधिरोपित किया था। जुर्माना भुगतान करने में चूक करने पर 2 वर्ष 6 माह का अन्यथा सश्रम निरोध भुगतना था। स्वापक्ष औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 की धारा 8/20 (ख) (2) (क) के अंतर्गत 6 माह के सश्रम निरोध का दण्डादेश दिया गया था। दोनों दण्डादेश साथ-साथ का आदेश दिया गया था। दोषसिद्धि से व्यथित होकर अपील की गई थी।

    अपील में उच्च न्यायालय ने यह मत दिया कि अभियोजन के द्वारा स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 के प्रावधानों का पालन किया था और युक्तियुक्त संदेह से परे मामला प्रमाणित किया था। विद्वान विचारण न्यायालय ने प्रत्येक परिस्थिति पर विचार किया था व अभियोजन के द्वारा प्रस्तुत की गई साक्ष्य पर भी विचार किया था। यद्यपि एक महत्वपूर्ण अवधारणा जो कि अंकित किए जाने की अपेक्षा करती है। यह इस प्रकार बताई गई कि अभियोजन स्वयं का यह कहना था कि प्रतिषिद्ध जप्त चरस जो कि बैग से जप्त हुआ था उसका कुल वजन 1 किलोग्राम था।

    कथित वजन में बारदाना (पैकिंग मटेरियल) का वजन भी शामिल था। ऐसी स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता था कि वर्तमान मामले में अंतर्ग्रस्त मात्रा व्यवसायिक मात्रा थी क्योंकि टेबिल की प्रविष्टि क्रमांक 3 में जो मात्रा दी गई है उसके अनुसार अल्प मात्रा 100 ग्राम थी एवं व्यवसायिक मात्रा 1 किलोग्राम थी। स्वीकृत तौर पर अभियोजन के द्वारा बारदाना (पैकिंग मटेरियल) समेत 1 किलोग्राम वजन होना पाया गया था। इसलिए यह अखण्डनीय निष्कर्ष निकलता था कि प्रतिषिद्ध वस्तु का कुल वजन 1 किलोग्राम से कम था और इस प्रकार यह अल्प एवं व्यवसायिक मात्रा के मध्य आती थी।

    परिणामस्वरुप वर्तमान मामला स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 की धारा 20 (ग) के प्रावधान के तहत आने वाला नहीं माना गया। वर्तमान मामले में स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 की धारा 20 के खण्ड (ख) के प्रावधान आकर्षित होना माने गए।

    अतः यह माना गया कि न्याय के उद्देश्य की पूर्ति हो जाएगी यदि अभियुक्त को 7 वर्ष के सश्रम निरोध की अवधि के लिए दण्डादिष्ट किया जाता है। परिणामतः मामले में दोनों अपीलों को आंशिक तौर पर स्वीकार किया गया। सभी अपीलांट्स की दोषसिद्धि को स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 की धारा 8/20 (ख) (ii) बी के अंतर्गत कर दिया गया।

    अभियुक्त द्वारा संबंधित भाषा न जानने का तर्क

    रबम्मा बनाम (श्रीमती) बनाम स्टेट, 1998 क्रिलॉज, 1660 प्रकरण में यह तर्क दिया गया कि दोषसिद्धि इस आधार पर दोषपूर्ण थी कि अभियुक्त तेलगू भाषा पढ़ना अथवा लिखना नहीं जानता था। उच्च न्यायालय का अभिमत रहा कि यह देखने में आता है कि कई व्यक्ति यद्यपि संबंधित भाषा को पढ़ना अथवा लिखना नहीं जानते हैं फिर भी उस भाषा को बोल लेते हैं। वर्तमान मामले में अभियुक्त ने साक्षी को इस आशय का सुझाव नहीं दिया था कि अभियुक्त तेलगू भाषा बोलना नहीं जानता था। परिणामतः इस आधार पर दोषसिद्धि में हस्तक्षेप करने से इंकार किया गया।

    वेंकटराव बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, 2006 क्रि. लॉज. 2326 छत्तीसगढ़ के मामले में विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को अधिनियम की धारा 20 (ख) (i) के तहत दोषसिद्ध किया था और 5 वर्ष के सश्रम निरोध व 5,000 रुपए जुर्माना को अधिरोपित किया गया था। इसे चुनौती दी गई। अपीलीय न्यायालय ने यह अभिमत दिया कि यह कहा जा सकता है कि विचारण न्यायालय ने अपीलांट - अभियुक्त को अत्यधिक यांत्रिक रीति में बिना न्यायिक मस्तिष्क को प्रयोज्य किए दोषसिद्ध किया था।

    न्यायालय ने जप्ती के दस्तावेजों को देखने का भी कष्ट नहीं उठाया था। मालखाना में नमूने को न्यसित किए जाने वाले दस्तावेज को भी देखने के संबंध में भी ध्यान नहीं रखा था। इसके अलावा अधिनियम की धारा 50 एवं 55 के आदेशात्मक प्रावधान पर भी विचार नहीं किया था और साधारण तौर पर ही निर्णय के पद 9 में यह लिख दिया गया था कि अ.सा. 8 की विश्वसनीय साक्ष्य से यह प्रमाणित होता था कि उसके द्वारा अधिनियम के सभी आदेशात्मक प्रावधानों का पालन किया गया था। इस प्रक्रिया को अमान्य किया गया। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    प्रतिषिद्ध वस्तु के नमूने को वेयरहाउस में प्रस्तुत करने में विलंब

    श्री सत्यवान पागी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2006 क्रिलॉज 2181 बम्बई प्रकरण में यह निवेदन किया गया कि प्रतिषिद्ध वस्तु के नमूने को वेयरहाउस में प्रस्तुत करने में विलंब हुआ था। इस संबंध में परिवादी के पत्र जो कि वेयरहाउस ऑफीसर को लिखा गया था उस पर निर्भरता व्यक्त की गई थी। वेयरहाउस में नमूने को 24.2.2001 को दोपहर 2,45 बजे प्राप्त किया गया था।

    परिवादी की साक्ष्य से यह दिखाई दे सकता है कि अभियुक्तगण के कथन अभिलिखित करने के उपरांत उन्हें लगभग 23/24-2-2004 की मध्यरात्रि में गिरफ्तार किया गया था और न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी मार्गों के समक्ष दिनांक 24.2.2001 को 10 बजे प्रस्तुत किया गया था व साढ़े दस बजे ज्यूडीशियल लॉकअप मार्गो में रखा गया था। परिवादी को निश्चित तौर पर मार्गों से पानाजी तक वेयर हाउस में कथित वस्तुओं को जमा करने के लिए यात्रा की थी।

    परिवादी ने यह बताया था कि उसके द्वारा संपत्ति को अलग-अलग अलमारी में रखा गया था और जिसकी दोनों चाबियाँ उसके पास थीं। इस बात पर विचार करते हुए कि साढ़े दस बजे से 2.45 बजे तक का दिन का समय लग गया थाव अन्यथा इस बात पर विचार करते हुए परिवादी को मार्गों से पानाजी तक की यात्रा करना थी यह नहीं कहा जा सकता है कि वेयरहाउस में कि जप्त वस्तुओं को जमा करने में अनावश्यक विलंब हुआ था।

    किशोरीलाल बनाम स्टेट ऑफ एम.पी, आईएलआर 2011 मप्र 498 के मामले में प्रतिषिद्ध वस्तु की विस्तृत मात्रा को न्यायालय के समक्ष अप्रस्तुति प्रतिषिद्ध वस्तु की विस्तृत मात्रा को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया अपितु मात्र नमूनों को प्रस्तुत किया गया था। ऐसी स्थिति यह तथ्य प्रमाणित होना नहीं माना गया कि नमूनों को विस्तृत मात्रा (bulk quantity) से तैयार नहीं किया गया था अपराध अप्रमाणित माना गया।

    रंजिश के कारण मिथ्या लिप्त

    विजयनारायण बनाम स्टेट ऑफ बिहार, 2005 क्रिलॉज 163 एनओसी के मामले में झारखण्ड अभियुक्त के कमरे की तलाशी पुलिस दल ने ली थी और उसने वहां से ब्राउन सुगर, गाँजा व भाँग को बरामद पाया गया था। इन वस्तुओं का वजन नहीं किया गया था और इन्हें पुलिस उप निरीक्षक ने साक्षीगण की उपस्थिति में सील्ड नहीं किया था।

    पैकेटों पर अभियुक्त के हस्ताक्षर भी प्राप्त नहीं किए गए थे। इसके अलावा अभियोजन के मामले की दुर्बलता यह भी थी कि स्वतंत्र साक्षीगण में से किसी का परीक्षण नहीं हुआ था। उप निरीक्षक अभियुक्त के मकान में भाड़ेदार था। भाड़ेदारी के कतिपय विवाद के कारण रंजिश से अभियुक्त को मिथ्या लिप्त किए जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता था। अपराध अप्रमाणित माना गया।

    आरोप

    वेंकटराव बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़, 2006 क्रिलॉज 2326 छत्तीसगढ़ के मामले में विचारण न्यायालय के द्वारा विरचित आरोप की विधिमान्यता पर विचार किया गया। अपीलीय न्यायालय का यह अभिमत रहा कि विचारण न्यायालय के द्वारा जो आरोप की विरचना की गई थी यह पुटिपूर्ण थी। अभियुक्त के विरुद्ध अधिनियम की धारा20 (ख) (ii) के बजाए धारा 20 (ख) (i) के अधीन आरोप की विरचना कर दी थी।

    विचारण न्यायालय ने धारा 20 (ख) (i) के प्रावधान का अवलोकन करने का कष्ट नहीं उठाया था और अभियुक्त को अधिनियम की धारा 20 (ख) (i) के तहत दोषसिद्ध कर दिया था जो कि किसी केनेबिस पोधे की खेती से संबंधित है। विचारण न्यायालय का कृत्य बिना न्यायिक मस्तिष्क प्रयोज्य करने की कोटि में माना गया। इसे अमान्य कर दिया गया। अभियुक्त को दोषमुक्त किया गया।

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