एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 37: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत चीज़,जानकारी मांगने एवं परीक्षा लेने की शक्ति

Shadab Salim

2 Dec 2023 1:38 PM IST

  • एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 37: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत चीज़,जानकारी मांगने एवं परीक्षा लेने की शक्ति

    एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 67 धारा 42 के अंतर्गत राज्य एवं केंद्रीय सरकार द्वारा प्राधिकृत किसी व्यक्ति को यह शक्ति देती है कि वह इस अधिनियम के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति से जानकारी मांग सकता है, उसकी परीक्षा कर सकता है एवं चीज़े मांग सकता है जो किसी प्रकरण में आवश्यक है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 67 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

    यह इस अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है-

    धारा 67. जानकारी आदि मांगने की शक्ति-

    धारा 42 में निर्दिष्ट कोई ऐसा अधिकारी, जो केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किया जाता है, इस अधिनियम के किसी उपबंध के उल्लंघन के संबंध में किसी जांच के अनुक्रम में-

    (क) अपना यह समाधान करने के प्रयोजन के लिए कि क्या इस अधिनियम या इसके अधीन बनाए गए किसी नियम या आदेश के उपबंधों का उल्लंघन हुआ है, किसी व्यक्ति से जानकारी मांग सकेगा;

    (ख) किसी व्यक्ति से, जांच के लिए उपयोगी या सुसंगत किसी दस्तावेज या चीज को पेश करने या परिदत करने की अपेक्षा कर सकेगा;

    (ग) मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित किसी व्यक्ति की परीक्षा कर सकेगा।

    वित्त मंत्रालय (राजस्व विभाग) अधिसूचना क्रमांक का.आ. 901(अ) दिनांक 20 अप्रैल, 2010

    एनडीपीएस एक्ट, 1985 (1985 का 61) की धारा 67 के साथ पठित इसकी धारा 42 की उप-धारा (1) और सशस्त्र सीमा बल अधिनियम, 2007 (2007 का 53) की धारा 153 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए, केन्द्र सरकार एतद्द्वारा सशस्त्र सीमा बल से कम से कम हैड कांस्टेबल की श्रेणी के अधिकारियों को धारा 42 और 67 में उसके क्षेत्राधिकार के अंतर्गत विनिर्दिष्ट शक्तियों को प्रयोग करने तथा कर्तव्यों का निर्वहन करने हेतु प्राधिकृत करती है।

    इसका प्रकाशन भारत का राजपत्र (असाधारण) भाग II खण्ड 3 (ii) दिनांक 20- 4-2010 पृष्ठ 1 पर किया गया है।

    मानसिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2005 (2) म.प्र. लॉ ज. 496:2005 (2) जे.एल.जे. 426:2005 क्रि. लॉ रि. 726 म.प्र.) के मामले में भानपूर्वक आधिपत्य का बिन्दु विचारणीय था जिस स्थान से प्रतिषिद्ध वस्तु बरामद हुई थी वह स्थल तालाबन्द था और अभियुक्त ने जेब से इस ताले की चाबियाँ निकाल कर दी थीं। इन चाबियों से स्थल का ताला खोला गया था। अभियुक्त का भानपूर्वक आधिपत्य होना माना गया।

    67 के अधीन अभिलिखित सूचना के आधार पर दोषसिद्धि नहीं किया जा सकता

    2001 क्रि. लॉज. 1882 म.प्र के एक प्रकरण में दोषसिद्धि की विधिमान्यता पर विचार किया गया। विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या धारा 67 के अधीन अभिलिखित सूचना के आधार पर दोषसिद्धि आधारित हो सकेगी। इस संबंध में नकारात्मक मत दिया गया।

    सेंट्रल ब्यूरो ऑफ नारकोटिक्स बनाम देवी सिंह, 2004 (2) म.प्र. वी. नो. 126 म.प्र के मामले में अभियुक्त अफीम की खेती करने के लिए अनुज्ञप्तिधारी था। अभियुक्त ने खेती करने वाले खेत को परिवर्तित किया था और इस बाबत स्पष्टीकरण दिया था। परन्तु अभियुक्त ने खेत परिवर्तन किए जाने के तथ्य को अवगत कराने में विफलता की थी। प्रकरण के उक्त तथ्यों व परिस्थितियों में अभियुक्त की स्वीकृत जमानत निरस्त नहीं की गई।

    कैलाशचंद बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 1998 (2) म.प्र.वी. नो. 42. म.प्र के प्रकरण में अभियुक्त की मुकरी गई संस्वीकृति बाबत समर्थन का अभाव होना पाया गया। इसका कोई उपयोग नहीं माना गया।

    जॉन ओहूमा बनाम इंटेलीजेंस ऑफीसर नारकोटिक्स ब्यूरो, 1999 (1) क्राइम्स 309 बम्बई के मामले में अभियुक्त की संस्वीकृति रुपी साक्ष्य प्रकरण में दर्शित कारणों के आधार पर स्वीकार नहीं मानी गई। इस साक्ष्य को अपवर्जित करने पर अभियुक्त को दोषसिद्ध करने के लिए अन्य साक्ष्य सीमित स्वरुप की थी। परिणामतः अभियुक्तगण को दोषमुक्त किया गया।

    ज्ञानचन्द बनाम स्टेट, 2005 क्रिलॉज 3228 इलाहाबाद के मामले में अभियुक्त कथन स्वैच्छिक था अथवा नहीं इसका अवधारण किया जाना था। अभियुक्त को अगले दिवस कथन के लिए मजिस्ट्रेट के समक्ष उसे उपस्थित किया गया था। यदि कथन के बाबत कतिपय धमकी दिए जाने का अथवा प्रपीड़ा पहुँचाए जाने का मामला था तो यह तथ्य न्यायालय की जानकारी में लाया जा सकता था परंतु अभियुक्त मौन बना रहा था। कथन पर अभियुक्त के हस्ताक्षर भी थे।

    उपरोक परिस्थिति में यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि कथन को प्रपीदा के अधीन अभिलिखित किया गया होगा। एक अन्य प्रकरण में अभियुक्त का संस्वीकृति कथन था। इस कथन को स्वैच्छिक होना नहीं पाया गया। परिणामतः ऐसी संस्वीकृति को दोषसिद्धि का आधार नहीं बनाया जा सकता।

    मानसिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2005 के प्रकरण में विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या अभियुक्त के संस्वीकृति कथन को भी दोषसिद्धि का आधार बनाया जा सकता है। इस संबंध में सकारात्मक मत दिया गया।

    सत्यवान पागी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2006 क्रि. लॉज. 2181 बम्बई के मामले में परिवादी की साक्ष्य विश्वसनीय व विश्वासपूर्ण थी। इसका समर्थन स्वतंत्र शासकीय साक्षी एवं इंस्पेक्टर से होता था। यह इंस्पेक्टर परिवादी के समान विभाग से ही संबंधित था। परिवादी की साक्ष्य से यह दर्शित होता था कि दोनों अभियुक्तगण हशीश के संयुक्त आधिपत्य में होना पाए गए थे। दोनों अभियुक्तगण के द्वारा अधिनियम की धारा 67 के अधीन न्यायकेत्तर संस्वीकृतियाँ भी की गई थीं।

    परिवादी के द्वारा प्रस्तुत की गई साक्ष्य को अभियुक्तगण के विरुद्ध आरोप प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त से अधिक होना माना गया। यह अभिमत दिया गया कि दोनों अभियुक्तगण को विशेष न्यायाधीश ने सही तौर पर दोषसिद्ध किया। जॉन ओहूमा के मामले में अभियुक्त के द्वारा की गई संस्वीकृति से मुकरने संबंधी प्रश्न की प्रकृति तथ्य के प्रश्न के रूप में न कि विधिक प्रश्न के रूप में होना मानी गई।

    एम. नित्यानंदम बनाम स्टेट बाय द इंटेलीजेंस ऑफीसर, डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंस, 2002 (3) क्राइम्स 571 मद्रास के मामले में संस्वीकृति से विलंब से मुकरने का प्रभाव संस्वीकृति से मुकरने की स्थिति थी। विलंब से मुकरने की स्थिति बनी थी। इन परिस्थितियों में यह अभिनिर्धारित नहीं किया जा सकता कि अभियुक्त की संस्वीकृति अधिनियम की धारा 67 के तहत स्वैच्छिक नहीं थी।

    मनीष एच. भल्ला बनाम सत्यप्रकाश बहल, 2005 क्रि. लॉज. 1827 बम्बई के मामले में सह-अभियुक्त के द्वारा अन्य अभियुक्त को लिप्त करने के संबंध में की गई संस्वीकृति के आधार पर अभियुक्त को दोषी होना नहीं माना जा सकता।

    नंदकिशोर बनाम सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ नारकोटिक्स, नीमच, 2005 क्रि. लॉज. 118 एन.ओ.सी. म.प्र के मामले में साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया मामले में अन्वेषण अधिकारी की विश्वसनीय प्रकृति की साक्ष्य थी हालांकि स्वतंत्र साक्षीगण पक्षद्रोही हो गए थे। उक्त स्थिति में भी अन्वेषण अधिकारी की साक्ष्य की विश्वसनीयता को दृष्टिगत रखते हुए दोषसिद्धि की जा सकेगी।

    प्रभुलाल बनाम सी.बी.एन. गरोठ के मामले में कहा गया है कि जमानत के प्रक्रम पर अधिनियम की धारा 67 के अधीन कथन की ग्राहता के बाबत विचार नहीं किया जाना चाहिए।

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