एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 21: एनडीपीएस एक्ट के सभी अपराधों का संज्ञेय और गैर जमानती होना
Shadab Salim
13 Feb 2023 1:49 PM IST
एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 37 एनडीपीएस एक्ट के सभी अपराधों को संज्ञेय एवं गैर जमानती अपराध बनाती है। किसी अपराध का संज्ञेय एवं गैर जमानती होने का अर्थ यह है कि वे अपराध बड़ा अपराध है जहां पुलिस को बगैर वारंट के गिरफ्तार करने के अधिकार है एवं अभियुक्त के पास अधिकारपूर्वक जमानत लेने का अधिकार नहीं है अपितु यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर है कि वह अभियुक्त जमानत पर निर्मुक्त करे या फिर नहीं करे। इस आलेख के अंतर्गत एनडीपीएस एक्ट की धारा 37 पर न्याय निर्णयों के प्रकाश में विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।
यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है
धारा 37 अपराधों का संज्ञेय और अजमानतीय होना -
(1) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी,-
(क) इस अधिनियम के अधीन दंडनीय प्रत्येक अपराध संज्ञेय होगा;
(ख) धारा 19 या धारा 24 या धारा 27क के अधीन दंडनीय अपराध एवं वाणिज्यिक मात्रा को अंतर्ग्रस्त करने वाले अपराधों में भी किसी अभियुक्त व्यक्ति को जमानत पर या मुचलके पर तभी निर्मुक्त किया जाएगा जब
(i) लोक अभियोजक को ऐसी निर्मुक्ति के लिए किए गए आवेदन का विरोध करने का अवसर दे दिया गया है, और
(ii) जहां लोक अभियोजक आवेदन का विरोध करता है वहां न्यायालय का यह समाधान हो गया है कि यह विश्वास करने के युक्तियुक्त आधार है कि वह ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और जमानत पर होने के दौरान उसके द्वारा कोई अपराध किए जाने की संभावना नहीं है।
(2) उपधारा (1) के खंड (ख) में विनिर्दिष्ट जमानत मंजूर करने के संबंध में ये परिसीमाएं दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन जमानत मंजूर करने की बाबत परिसीमाओं के अतिरिक्त हैं।
जमानत प्रदान किए जाने के क्षेत्र को स्पष्ट किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उस दशा में ही जमानत की प्रार्थना स्वीकार योग्य होगी जब न्यायालय को यह विश्वास करने का युक्तियुक्त आधार हो कि अभियुक्त दोषी नहीं है अथवा यह वह जमानत पर निर्मुक्त किया गया तो निर्मुक अवधि के दौरान अपराध कारित करने वाला प्रतीत नहीं होता है।
एक अन्य में जमानत के क्षेत्र को स्पष्ट किया गया। यदि अभियुक्त के एनडीपीएस एक्ट के तहत ऐसा मामला लंबित हो जो कि 5 वर्ष या उसके अधिक के निरोध से दंडनीय हो तो ऐसी स्थिति में जमानत की प्रार्थना अधिनियम की धारा 37 (1) (ख) की शर्तों से नियंत्रित होगी।
बुपरेनोफाइन हाइड्रोक्लोराइड का मामला
राजिन्दर गुप्ता बनाम स्टेट, 2000 क्रिलॉज 674 देहली) के मामले में बुपरेनोफाइन हाइड्रोक्लोराइड को औषधि एवं प्रसाधन सामग्री अधिनियम के अधीन होने वाली अनुसूची एच के तहत होने वाला माना गया। इसे एनडीपीएस नियम के अध्याय 7 की परिधि से बाहर होना माना गया। परिणामतः एनडीपीएस एक्ट की धारा 22, 23, 28 अथवा 29 के तहत दण्ड आकर्षित नहीं होगा।
इसके अलावा यह भी स्पष्ट किया गया कि यदि यह भी मान लिया जाए कि एनडीपीएस एक्ट के तहत प्रथम दृष्ट्या मामला निर्मित हुआ है तो भी वर्तमान याचिकाकार से संबद्ध मात्रा 4.341 ग्राम मात्र थी। यह 20 ग्राम की व्यवसायिक मात्रा से काफी कम थी। परिणामस्वरूप इस मामले में एनडीपीएस एक्ट की कठोरता को आकर्षित होना नहीं माना गया।
मोहम्मद अलीमुद्दीन बनाम स्टेट ऑफ गणिपुर, 2001 (4) क्राइम्स 135 गुवाहाटी के मामले में अभियुक्त अवयस्क था 10.6 किलोग्राम गाँजे का आधिपत्य उस वाहन में पाया गया था जो कि आवेदक, अभियुक्त व एक अन्य अभियुक्त के आधिपत्य में था। आवेदक अभियुक्त के संबंध में जमानत की माँग की गई थी। अधिनियम की धारा 37 (1) (ii) आकर्षित होना नहीं पाई गई। जमानत स्वीकार कर ली गई।
स्टेट ऑफ गिजोरम बनाम जोलियाना, 2002 (3) क्राइम्स 152 के मामले में अक्षम न्यायालय द्वारा स्वीकृत जमानत निरस्त जमानत इस पर निरस्त कर दी गई थी कि जमानत प्रदान करने वाले न्यायालय की प्रास्थिति अधिनियम के तहत गठित विशेष न्यायालय के रूप में नहीं थी। न्यायहित में अभियुक्त को मामले में अधिकारिता रखने वाले विशेष न्यायालय के समक्ष जमानत की माँग करने के लिए सर प्रदान किया गया।
इंटेलीजेंस ऑफीसर नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो बनाम शंभू, 2001 (1) के मामले में अधिनियम की धारा 37 के प्रावधान का निर्वाचन किया गया। इस धारा की स्कीम से यह प्रकट होता है कि विशेष न्यायाधीश जमानत प्रदान करने के मामले में न केवल दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 में अंर्तनिहित परिसीमाओं के अध्यधीन होगा, अपितु अधिनियम की धारा 37 की परिसीमाओं के अध्यधीन भी होगा उचतम न्यायालय का यह अभिमत रहा कि उब न्यायालय का यह निष्कर्ष त्रुटिपूर्ण था कि चूंकि अधिनियम की धारा 20(ख) (i) के मामले में अधिकतम दंडादेश 5 वर्ष की अवधि का है अतः अधिनियम की धारा 37 का निर्बंधन प्रयोज्य नहीं होगा।
मनोज कुमार बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश, 2002 (4) क्राइम्स 264 हिमाचल प्रदेश के मामले में 850 ग्राम चरस के आधिपत्य में अभियुक्तगण पाए गए थे। व्यावसायिक मात्रा से कम मात्रा होने के तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए अधिनियम की धारा 37 (1) (ख) को आकर्षित होना नहीं माना गया। जमानत मंजूर कर ली गई।
अभियुक्त के आधिपत्य से व्यवसायिक मात्रा से कम मात्रा में प्रतिषिद्ध वस्तु की जब्ती हुई थी। इस आधार पर उसे 6 माह के निरोध से ही दंडित किया जा सकता था। इस अवधि को अभियुक्त पूर्व में ही भुगत चुका था। अभियुक्त की जमानत स्वीकार कर ली गयी।
ओमप्रकाश बनाम स्टेट ऑफ एमपी, 1993 (1) म.प्र.वी. नो. 217 म.प्र के मामले में अभियुक्त के विरुद्ध अधिनियम की धारा 8/18 के तहत मामला था। जमानत की माँग की गई थी। इंटीमेशन रिपोर्ट से यह दर्शित नहीं होता था कि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों का पालन किया गया था।
जमानत के प्रक्रम पर न्यायहित यह अपेक्षा करता है कि मामले के भाग्य के लिए किसी भी प्रकार का कमेंट उचित नहीं होगा। परिणामतः मामले के गुणागुण पर जाने से इंकार किया गया। उच्च न्यायालय ने मामले के गुणागुण पर जाए बिना यह अभिलिखित किया कि अधिनियम की धारा 37 में वर्णित शर्तों की संतुष्टि होती है। जमानत मंजूर कर ली गई।
गोपू बनाम स्टेट ऑफ आन्ध्र प्रदेश, 2002 (2) क्राइम्स 191 आन्ध्र प्रदेश के मामले में अभियुक्तगण के विरुद्ध आरोप यह था कि उनके द्वारा उनकी भूमि में गाँजे के पौधे उगाए गए थे। मामले में जमानत की माँग की गई थी। अभियोजन ने इस बिन्दु पर साक्ष्य नहीं दी थी कि जहाँ प्रतिषिद्ध वस्तु पाई गई थी वह भूमि अभियुक्तगण के स्वामित्व की थी जमानत स्वीकार कर ली गई।
शियाद बनाम स्टेट ऑफ केरल, 2000 (1) क्राइम 635) के मामले में अभियुक्त के आधिपत्य में 3,200 नार्फिन / बुप्रेनोर्फिन सोइड्रोक्लोराइड (Buprenorphine soidrochloride) पाए गए थे। इसके अलावा 60 एम्पलस ओफेनोजन (Ampules ophenorgon) था। मामले में जमानत की मांग की गई थी। आधार यह दिया गया था कि प्रत्येक एम्पल में 0.3 ग्राम सुप्रेनोर्फिन (Buprenorphine ) था इसलिए यह मात्रा अल्प मात्रा की कोटि में आती थी। उक्त तर्क के प्रकाश में जमानत की मांग की गई थी।
सत्र न्यायालय ने इस प्रार्थना को इस आधार पर निरस्त कर दिया था कि प्रत्येक एम्पल में 2 एम.एल. मार्फीन थी। यह मात्रा व्यसायिक मात्रा की कोटि में आती है। इसके अलावा यह भी स्पष्ट किया गया कि यह ज्ञात करने के लिए कि मात्रा व्यवसायिक है अथवा अल्प है इसके लिए संपूर्ण सोल्यूशन के आधार पर अवधारित किया जाना चाहिए। इस संबंध में अधिनियम की धारा 2 (viia) एवं धारा 2 (xxiiia) दिशा निर्देश उपलब्ध कराती। वर्तमान मामले में जब्त संपूर्ण निर्मिति को विचार में लिया गया।
यह मद क्रमांक 239 सहपठित मद 169 के अधीन व्यावसायिक अथवा अल्प मात्रा नहीं थी और यदि अपराध प्रमाणित भी होता था तो यह अधिनियम की धारा 22(ग) अथवा 22 (क) के अधीन नहीं आएगा अपितु मात्र अधिनियम की धारा 22(क) के तहत आएगा।
इसके अलावा इस तथ्य को भी ध्यान में रखा गया कि अभियुक्त क्रमांक 1 जो कि जब्त एम्पल्स के आधिपत्य में पाया गया था उसे विशेष न्यायालय के द्वारा दिनांक 13.10.2004 को जमानत पर निर्मुक्त कर दिया गया था। याचिकाकार को 25.6.2005 को गिरफ्तार किया गया था। और वह पूर्व में ही 110 दिवस जेल में रह चुका था। याचिकाकार की जमानत स्वीकार कर ली गई।
रामेश्वर प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 1988 (2) म.प्र.वी.नो 223 मप्र के मामले में सेन्ट्रल ब्यूरो ऑफ नारकोटिक्स गुना के द्वारा अभियुक्त को गिरफ्तार किया गया था। यह आरोप लगाया गया था कि अभियुक्त के आधिपत्य से 2.400 किलोग्राम अफीम बरामद हुई थी। अभियुक्त के अधिवक्ता के द्वारा म.प्र. हाई कोर्ट के न्याय दृष्टांत् रमेशचन्द्र बनाम स्टेट ऑफ एम.पी, 1987 क्रिलॉरि 324 म.प्र पर निर्भरता व्यक्त की गई थी और यह प्रार्थना की गई थी कि अभियुक्त को जमानत पर निर्मुक्त कर दिया जाए।
मामले के संपूर्ण तथ्यों व परिस्थितियों पर विचार करते हुए यह निर्देशित किया गया कि अभियुक्त को विचारण लंबन के दौरान जमानत पर निर्मुक्त किया जाता है यदि यह 50,000 रुपए का निजी मुचलका व 2 सक्षम जमानतदार जो कि 25,000- 25,000 रुपए की राशि के हों संपादित करता है।
राजेश जगदम्बा अवस्थी बनाम स्टेट ऑफ गोवा, 2005 (51) एसीसी 315:एआईआर. 2005 सुप्रीम कोर्ट 1389 जमानत की माँग की गई थी। वर्तमान मामले में बरामदगी पत्रक एवं लोक विश्लेषक की रिपोर्ट में वर्णित वस्तु का वजन में अंतर अत्यधिक होना पाया गया। यह सामान्य भिन्नता नहीं थी। क्योंकि 10 ग्राम के प्रतिषिद्ध वस्तु के नमूने में 6 ग्राम से अधिक की भिन्नता थी। इसे बड़ी मित्रता के रूप में माना गया। इसका प्रतिकूल प्रभाव माना गया। हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि इस प्रक्रम पर कोई निष्कर्ष अभिलिखित करना उचित नहीं होगा।
इसे साक्ष्य के आधार पर विचारण प्रक्रम में देखा जाएगा। इसके अलावा इस तथ्य को भी रेखांकित किया गया कि अभियोजन के अनुसार प्रतिषिद्ध बरामद वस्तु स्मैक (ब्राउन शुगर) थी। परंतु लोक विश्लेषक की रिपोर्ट के अनुसार इसे हेरोइन होना पाया गया था। एनडीपीएस एक्ट के तहत इन दोनों प्रतिषिद्ध वस्तुओं को अलग-अलग परिभाषित किया गया है और दोनों समान वस्तुएँ नहीं है। इसलिए मामले के गुणागुण पर कोई राय व्यक्त किए बिना आवेदक की जमानत मंजूर कर ली गई।
जोना बी. बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1996 जेएलजे 648 म.प्र के मामले में जमानत की माँग की गई थी। इस मामले में अभियोजन स्वयं का यह मामला था कि जब छापा दल घर गया था तो उस समय दोनों आवेदिका अभियुक्त व उसका पति घर पर उपस्थित था। कतिपय सदस्यों को देखकर अभियुक्त का पति भाग गया था जब ऐसी स्थिति थी तो जब तक कुछ अन्यथा घटित नहीं किया जाता यह नहीं कहा जा सकता कि आवेदिका- अभियुक्त कथित भवन के अनन्य आधिपत्य में थी कथित भवन अभियुक्त के ससुर से संबंधित था और छापा के समय उसका पति वहाँ पर था परंतु भाग गया था।
जब भवन ससुर के नाम था और छापा के समय उसका पति उपस्थित था तो ऐसी स्थिति में यह उपधारणा की जाएगी कि जब तक यह प्रमाणित करने के लिए प्रतिकूल सामग्री न हो यह उपधारणा की जाएगी कि उसका ससुर अथवा पति कथित भवन के आधिपत्य में था। परिणामतः अभियुक्त की जमानत स्वीकार की गई।
एक अन्य मामले में जमानत की मांग की गई थी। गाँजा जप्ती का मामला था। अधिनियम की धारा 20ख के तहत अभियोजन किया गया था। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए कि इस प्रावधान के तहत अधिकतम दंडादेश 5 वर्ष के सश्रम निरोध का हो सकता था अधिनियम की धारा 37ख के प्रावधान आकर्षित नहीं माने गए। जमानत प्रदान किए जाने का मामला मानते हुए जमानत स्वीकार कर ली गई।
हीरालाल बनाम स्टेट ऑफ एम.पी, 1989 (1) म.प्र.वी. नो. 135 म.प्र के मामले में जमानत की मांग की गई थी। तीन बार मौका दिए जाने पर भी मामले में केस डायरी प्रस्तुत नहीं की गई। हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि केस डायरी प्रस्तुत किए जाने के पीछे प्रयोजन यह होता है कि अभियुक्त के पूर्वपूत को अवधारित किया जा सके व उन परिस्थितियों को देखा जा सके जिनमें कि अपराध कारित किया गया है। अभियुक्त को जमानत प्रदान किए जाने अथवा न किए जाने के संबंध में अन्य सुसंगत परिस्थितियों को भी पुलिस इंगित कर सकती है। परंतु इस मामले में पुलिस केस डायरी प्रस्तुत करने में सजग होना नहीं पाई गई। प्रकरण के उक्त तथ्यों के प्रकाश में जमानत स्वीकार कर ली गई।
जीतू बनाम नारकोटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो, 2004 (3) क्राइम्स 559 केरल के मामले में जब अधिनियम की धारा 37 में यथाविहित जमानत आवेदन का विरोध किया जाता है तो इसमें जमानत प्रदान न किए जाने के कारणों को बताया जाना चाहिए। जब लोक अभियोजक के द्वारा इंगित कारण स्थिर रखने योग्य पाए जाएँ तो न्यायालय को जमानत प्रदान करने की शक्ति प्राप्त नहीं होगी जब तक कि न्यायालय की संतुष्टि न हो जाए कि यह विश्वास करने के युक्तियुक्त आधार हैं कि अभियुक्त ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और वह जमानत पर रहने के दौरान कोई अपराध कारित करने वाला प्रतीत नहीं होता है।
यदि जमानत प्रदान करने का विरोध करने के संबंध में दिए गए कारण स्थिर रखने योग्य नहीं है अथवा जमानत का विरोध करने के संबंध में कोई कारण दर्शित नहीं किए जाते तो ऐसी स्थिति में न्यायालय को जमानत प्रदान करने का विवेक प्राप्त होगा। ऐसे मामलों में न्यायालय को जमानत प्रदान करने का विवेक होगा चाहे न्यायालय की यह संतुष्टि न हुई हो कि यह विश्वास करने के युक्तियुक्त आधार हैं कि अभियुक्त ऐसे अपराध का दोषी नहीं है और वह जमानत पर होने के दौरान किसी अपराध को कारित करने वाला प्रतीत नहीं होता है। याचिकाकार की जमानत मंजूर कर ली गई।
जीतू बनाम नारकोटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो, 2004 (3) क्राइम्स 559 केरल के मामले में याचिकाकार के विरुद्ध धारा 21 (ग), 22 (क) एवं 29 के तहत के अपराध था। जमानत चाही गई थी। लोक अभियोजक ने इस आधार पर जमानत का विरोध किया था कि याचिकाकार ने अन्य अभियुक्त के साथ षड़यंत्र किया था।
जब लोक अभियोजक से इस बाबत पूछा गया कि उसके पास दर्शित करने के लिए क्या सामग्री है कि याचिकाकार ने प्रतिषिद्ध वस्तुओं को लाने में अन्य अभियुक्त के साथ षड़यंत्र किया था तो लोक अभियोजक ने यह निवेदन किया कि अपराध के अन्वेषण के दौरान अभिलिखित कथन हैं। कथन के अलावा अन्य कोई सामग्री यह इंगित करने के लिए नहीं थी कि याचिकाकार ने अन्य अभियुक्त के साथ प्रतिषिद्ध वस्तु को लाने में षड़यंत्र किया था। जमानत स्वीकार करने का उपयुक्त मामला माना गया।